अशोक वाजपेयी ने ‘कभी-कभार’ में युवा कवियों को लगभग खारिज करते हुए उनके लिखे को अप्रभावी क्या घोषित कर दिया, सोशल मीडिया में मानो भूचाल ही आ गया। वहां एक-दूसरे को कमतर दिखाने की होड़ चल पड़ी है। जब संप्रेषित विचारों को विज्ञान भी ऊर्जा का प्रकार मान चुका है तब यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है कि क्या किसी भी व्यक्त विचार को खारिज किया जा सकता है?

एक सामान्य पाठक के बतौर विचारों के प्रति दिनोंंदिन बढ़ती असहिष्णुता मुझे अधोगामी सामूिहक-सामाजिक चिंतन की द्योतक लगती है। कथा-कविता पर न तो ‘एक्पायरी डेट’ चस्पां की जा सकती और न ही ‘बौद्धिक पौष्टिकता’ के मानक लागू हो सकते हैं।

इतिहास गवाह है कि निकृष्ट प्रतीत होती बात भी, अंतत: किसी उत्कृष्ट विचार की जनक बन जाती है। लाखों लोगों के मन की बात बड़े से बड़ा आलोचक नहीं जान सकता, सो उसके कहे को ही प्रामाणिक मान लेना अनुचित होगा। जहां यह सच है कि कोई बिरला ही आलोचक को ध्यान में रख कर लिखता होगा, वहीं सत्य यह भी है कि अपने सिरजे की आलोचना भी किसी बिरले के ही गले उतरती होगी।

वस्तुत: यह पसंद-नापसंद का टंटा अक्सर दो व्यक्तियों के बीच झंडाबरदारी का मसला ही होता है- उस पर मसाला लगा कर तलना ठीक नहीं।

अजय सोडानी, कालिंदी कुंज, इंदौर

 

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