बिहार में टॉपर होने केखास मायने हैं। या तो वह किसी बड़े नेता, अधिकारी, माफिया का सगा-संबंधी होगा या फिर किसी ऐसे शिक्षण संस्थान में पढ़ाई कर रहा होगा, जिसकी पहुंच बोर्ड या विश्वविद्यालय तक होगी। अभी बिहार की शिक्षा के बारे में काफी कुछ कहा-सुना जा रहा है। साल भर पहले स्कूलों की दीवारों पर फांदते परीक्षा देते छात्रों के अभिभावक, विभिन्न तरीके आजमा कर अपनों को नकल करवाते लोगों की तस्वीरें सामने आई थीं। इस तस्वीर को गंभीरता से लिया गया और 2016 की मैट्रिक और इंटर की परीक्षा में नकल रोकने के लिए सख्त कदम उठाए भी गए। लेकिन घड़े में एक छेद हो तो उसे किसी तरह बंद कर दिया जाए, अनगिनत छेदों को बंद करना आसान नहीं होता।
शिक्षा जगत में यह दुर्गुण आज नहीं, बहुत दिनों से है। पिछले कुछ सालों में यह अधिक बढ़ा और फला-फूला है। यह केवल बिहार में नहीं, कई प्रदेशों में हो रहा है। बिहार में यह काम निचले स्तर पर हो रहा है, जबकि अन्य प्रदेशों में उच्चतर शिक्षा में ऐसा ही चल रहा है। हाल ही में जब बिहार में शिक्षकों की भर्ती शुरू हुई तो अधिकतर नौजवान बिहार के बाहर से बीएड की डिग्रियां लाकर नियुक्त हुए थे। बाद में जांच के दौरान कितनों की नियुक्ति निरस्त कर दी गई।
सवाल है इस ‘उद्योग’ के बढ़ने और फलने-फूलने के कारण क्या हैं और इसे रोका कैसे जाए? एक तरफ देश में सरकारी स्कूल-कॉलेजों को बदहाल किया जा रहा है, दूसरी और निजी शिक्षण संस्थानों को बढ़ने का मौका दिया जा रहा है। निजी शिक्षण संस्थान क्या लोगों को शिक्षित करने के लिए खुल रहे हैं? ये संस्थान शिक्षा का कारोबार करते हैं। इस उद्योग में नेताओं और अफसरों, सभी का निवेश हो रहा है। जब बात निवेश की हो तो मुनाफे की भी जरूर होगी। इसके लिए ग्राहकों को आकर्षित करना होता है और इसी मकसद से संस्थान में पढ़ने वाले बच्चों को अच्छे अंकों से पास करना भी जरूरी है। अब समझा जा सकता है कि कहां-कहां किससे सांठगांठ होती होगी।
यह धंधा लगातार कई वर्षों से चलता आ रहा है। रह-रह कर कभी हो-हल्ला होने पर जांच और कार्रवाई की खानापूर्ति भी हो जाती है, लेकिन इसके स्थायी हल के लिए कभी पहल नहीं हुई। नतीजा है कि आज शहरों से गांव की गलियों तक शिक्षा की दुकानें खुल चुकी हैं, जहां विद्यार्थियों, अभिभावकों का आर्थिक-मानसिक शोषण जारी है। देश में दो तरह की शिक्षा-व्यवस्था चल रही है!
अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय