अपना देश तो वही है, फिर भी लगता है कि यह पहले जैसा नहीं है। हवा कुछ बदल गई लगती है। यह बदली हवा, हो सकता है कि कुछ लोगों को अपने स्वास्थ्य के लिए अधिक अनुकूल लग रही हो और वे स्वयं को पहले से ज्यादा ‘ऊर्जावान’ और ‘प्रफुल्लित’ महसूस करते हों। यह एक सच्चाई भी है। कुछ लोगों को भीतर ही भीतर एक आश्वासन यह ताकत दे रहा है कि वे कुछ भी कर सकते हैं। देश की छवि वैसी ही बना सकते हैं जैसी कि वे चाहते हैं।
‘यहां भी होगा, वहां भी होगा, मेरा यह जलवा’ अगर यों ही चलता रहेगा, यानी जब, जहां, जिस किसी पर भी वार कर दो, प्रहार कर दो, जुबान से या फिर लकड़ी-लोहे की छड़ से, तो जरा सोचिए कि देश के प्रबुद्ध और सौम्य नागरिक-समाज की सद्-आकांक्षाओं का क्या होगा? भौचक्के-से यह सब होता देख वे सयाने लोग कैसा महसूस करते होंगे जिन्होंने देश को आज़ादी की भारी कीमत चुकाते देखा था! विभाजन-विस्थापन के दंश झेले थे। उस वीभत्स कत्लेआम की कहानियां उनके मुख से सुन कर एक छोटा-सा प्रश्न हमेशा मन को झकझोरता रहा कि सामान्य-सा व्यक्ति एक स्थिति में इतना क्रूर कैसे हो जाता है?
आज आक्रामकता के बदले आयामों में इस सवाल का जवाब जो मुझे मिला, वह यह कि परिवारों, विद्यालयों और समाजों के मार्गदर्शक और जिम्मेदार कहे जाने वाले हम लोग कहीं न कहीं चूकते आए हैं। आने वाली नस्लों को, अपनी-अपनी पुस्तकों से धार्मिकता, परंपरा और मर्यादा के पाठ हम खूब पढ़ाते रहे, जाति-धर्म, क्षेत्र, प्रांत के साथ-साथ राष्ट्रवादिता जैसी घुट्टियां भी उन्हें देते रहे, लेकिन मानवीय संवेदना का सबसे जरूरी संदेश जिस गहनता के साथ उन तक पहुंचना चाहिए था वह नहीं पहुंच पाया। परिणाम यह हुआ कि मुट्ठी भर वहशियों की जमातें भीड़ की मानसिकता तैयार करने का घिनौना खेल खेलने लगीं। कहीं तनी हुई मुट्ठियां, कहीं चेतावनी की मुद्रा तो कहीं धमकी की भाषा। हम भूल जाते हैं कि वाक्युद्ध से शुरू होने वाला सिलसिला दंगे-फसाद और महायुद्धों तक पहुंच जाता है, जिसके आगे केवल विनाश और सर्वनाश है।
आज देश में जो परिदृश्य बनते जा रहे हैं वे खतरे की घंटियां हैं। आधुनिक विज्ञान, टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया के इस तेज रफ्तार युग में भी, न जाने क्यों अब यह ज्यादा जरूरी लग रहा है कि कबीर, नानक जैसे संतों और विश्व भर के सूफी दरवेशों की वाणी को समझने और आत्मसात करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। साहिर लुधियानवी का लिखा, रफी साहब का गाया गीत ‘इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा’ जिसे सुनते आधी सदी बीत गई, अब मेरे मोबाइल के म्यूजिक-प्लेयर में संरक्षित है। इस बदले परिवेश में ऐसे गीत बहुत सुकून देते हैं।
’शोभना विज, पटियाला
