विगत कुछ समय से देश में राष्ट्रवाद का जुनून जिस उन्मादी ढंग से बनाया जा रहा है, सरकार के खिलाफ बोलने वाले को देशद्रोही की संज्ञा से विभूषित किया जा रहा है, उन पर शारीरिक और गैरकानूनी आक्रमण किए जा रहे हैं, उससे लगता है कि पाक अधिकृत कश्मीर में सेना द्वारा किए गए ‘लक्षित हमले’ का मकसद कहीं अगले वर्ष के आरंभ में होने वाले विधानसभा के चुनाव तो नहीं! यों भी, शासन में आने पर मोदी सरकार चुनाव पूर्व के वादों को जुमला करार देकर अवाम को निराश कर चुकी है। सरकार के काम से मजदूर, नवयुवक, किसान- सभी नाखुश हैं। पाकिस्तान में भी अगले वर्ष चुनाव है और नवाज शरीफ की स्थिति नाजुक है।
जैसी खबरें सामने आ रही हैं, यह न पहला लक्षित हमला था और न अंतिम साबित होने वाला है। पाकिस्तानी सेना और इसकी शह पर चलने वाले आतंकी संगठनों द्वारा अवांछित कार्यों का प्रतिकार भारतीय सेना करती रही है। पर इस बार इसे नरेंद्र मोदी और सरकार की निर्णय क्षमता और नेतृत्व की आक्रामकता से जोड़ कर हो-हल्ले के साथ पेश किया जा रहा है। आखिर विपक्ष को सवाल उठाने का मौका कहां से मिला! बनावटी चुनाव सर्वेक्षण को किनारे करें तो अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को बढ़त मिलने के संकेत नहीं हैं।
हमें समझना होगा कि 1991 में उदारीकरण के बाद भारत में पहली बार केंद्र में बहुमत की सरकार बनी है। ओबामा समेत विश्व के अग्रणी पूंजीवादी मुल्कों के नेताओं की रुचि इस सरकार के मुखिया मोदी में अपने कारोबारी सौदे और मुनाफे की वजह से है। परमाणु करार पर व्यावसायिक समझ, जीएसटी, हथियारों की खरीद आदि पर सरकार के रुख को इसी नजर से देखने की जरूरत है।
देश लोगों से बना है, न कि वह एक नक्शा, स्मारक या भवन भर है। हमें उन तमाम लोगों को चिह्नित करना होगा जो सचमुच देश से द्रोह कर रहे हैं। राजनीतिक दल तो देश के साथ खिलवाड़ कर रहे ही हैं। सवाल है कि उन शिक्षकों का क्या हो, जिनकी गैरजिम्मेदारी से छात्र-छात्राओं का भविष्य बर्बाद हो रहा है? उन चिकित्सकों से कैसे पेश आया जाए जिनकी लापरवाही से रोगियों कि मृत्यु हो जाती है या जो भ्रूणहत्या जैसे घिनौने काम में लगे हैं? दवाओं और खाद्य पदार्थों में मिलावट से हजारों लोगों की प्रतिवर्ष अकाल मृत्यु के दोषियों के साथ कैसा सलूक होना चाहिए? फिर सरकार का क्या हो, जिसकी नीतियों के चलते हर साल सैकड़ों परिवार भुखमरी के शिकार होते हैं और हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं? क्या राष्ट्रवाद के उन्माद से इन समस्याओं का हल हो जाएगा?
’रोहित रमण, पटना विवि, पटना