अमेरिकी शहर न्यूयार्क की घटना हमारे शिक्षा-व्यवस्था के कर्णधारों को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त है। स्कूल में पढ़ने वाले एक बच्चे के माता-पिता उससे मिल कर चलने लगे तो उसकी नजर सूचना-पट््ट पर पड़ी। इस पर लिखे शब्दों में कई गलतियां थीं। पूछताछ करने पर पता चला कि प्रधानाचार्य महोदय ने वह सूचना खुद लिखी थी।

अभिभावक ने स्कूल प्रबंधक से लिखित शिकायत की। इस घटना को बेहद गंभीर माना गया और स्कूल सूचना-पट््ट में दर्ज जानकारी में स्पेलिंग की त्रुटियों को सही करने के साथ प्रधानाचार्य की छुट्टी कर दी गई। सवाल है कि क्या ऐसा कुछ होने पर हमारी शिक्षा-व्यवस्था अध्यापक या प्रधानाचार्य को इस प्रकार दंडित कर सकती है! जबकि यहां अध्यापक ही नहीं, बल्कि फर्जी विद्यालय से लगा कर विश्वविद्यालय भी अपने अंदाज में शिक्षा की अलख जगा रहे हैं।

प्रत्येक साल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) फर्जी विश्वविद्यालयों की नाम सहित सूची प्रकाशित करवाता है। बावजूद इसके इन विश्वविद्यालयों की सेहत पर प्रभाव नहीं पड़ता। उच्च शिक्षा की नियामक संस्था और फर्जी विश्वविद्यालय के बीच चूहे-बिल्ली का अनवरत खेल सिद्ध करता है कि कुछ लोगों के लिए कायदे-कानून बेमानी हैं। उदारीकरण के दौर में शिक्षा व्यापार बन गई है। इस तथ्य से सभी लोग वाकिफ हैं। लेकिन सरकारें इससे अवगत होते हुए भी आमजन को झुठलाने के प्रयास में लगी हैं।

बहरहाल, देश में फर्जी ढंग से कितने विद्यालय चल रहे हैं, इसके बारे में सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जिनके कंधों पर फर्जी विद्यालयों के रोकथाम की जिम्मेदारी है वे ही खेल खेलने में लगे हैं। शिक्षा माफियाओं का कमाल है कि विद्या ददाति विनयम् का उद्घोषक देश अपनी शिक्षा-व्यवस्था को रसातल में जाने से रोक नहीं सका। क्षेत्रीय बोर्ड विशेषकर हिंदीभाषी वाले क्षेत्र शिक्षा-व्यवस्था की शुचिता कायम करने में नाकामयाब रहे हैं। यही कारण है कि सीबीएसइ और अन्य अंगरेजी माध्यम वाले बोर्ड की अपेक्षा यहां फर्जीवाड़ा व्यापक है।

2014 में उत्तर प्रदेश बोर्ड से हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में पंजीकृत परीक्षार्थियों की संख्या से इस बार आॅनलाइन पंजीकरण और परीक्षाफार्म भरने से कुल विद्यार्थियों की संख्या लगभग छह लाख कम हो गई। जबकि आंकड़े गवाह हैं कि प्रत्येक साल उत्तर प्रदेश बोर्ड से परीक्षा देने वालों की संख्या में लाखों की वृद्धि हो जाती थी।

यकीनन आॅनलाइन पंजीकरण और परीक्षाफार्म भराने से उत्तर प्रदेश बोर्ड को फर्जी परीक्षार्थियों से काफी राहत मिली। इससे उन विद्यालयों के प्रबंधकों का खेल बिगड़ गया, जो साल भर छात्रों की खोज और प्रवेश का कार्य करते थे। बोर्ड के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से पंजीकरण फार्म का पिछले दरवाजे से बंद होना भी फर्जी परीक्षार्थियों की नकेल कसने में सहायक रहा। इसके बावजूद दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश बोर्ड से फर्जी विद्यार्थियों का पत्ता साफ हो गया है। क्योंकि नकल माफियाओं की पकड़ इतनी गहरी है कि जब तक आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होगा, इनके हौसले पस्त होने वाले नहीं।

मूल प्रश्न है कि क्या हम ऐसा सोच रखने वाले शिक्षा अधिकारियों के भरोसे नकल के लिए कुख्यात बोर्डों को सुधार सकते हैं? एक तरफ स्पेलिंग की गलती होने पर प्रधानाचार्य की कुर्सी चली जाती है तो दूसरी ओर साल भर इस उधेड़-बुन में गुजर जाते हैं कि कैसे नकल के ठेके को जिंदा रखा जाए। ऊंचे मंच से देश को समझाया जाता है कि दुनिया के दो सौ शीर्ष संस्थानों में भी हमारी कोई जगह नहीं है। लेकिन देश को यह आश्वासन नहीं मिलता कि फर्जी विद्यार्थी, फर्जी विद्यालय और फर्जी विश्वविद्यालय इतिहास बन जाएंगे।

वास्तव में अगर हम चाहते हैं कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था दुनिया के लिए मॉडल बने तो किसी की नकल करने की आवश्यकता नहीं है। आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा-व्यवस्था का आधुनिक मॉडल तैयार करें। ताकि फिर उस इतिहास को लिखा जाए, जो सदियों पहले नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों ने लिखा था।

धर्मेंद्र कुमार दुबे, वाराणसी</strong>

 

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