पिछले कुछ महीने से यूनान जिस आर्थिक संकट में घिरा रहा है, उसमें किसी को भी ‘ग्रीक ट्रेजेडी’ की झलक दिखाई दे सकती है। लेकिन यह केवल यूनान की त्रासदी नहीं है। यह पूरे औद्योगिक जगत की त्रासदी है। अंतर केवल इतना है कि अभी औद्योगिक और वित्तीय रूप से अधिक शक्तिशाली देश अपनी इस त्रासदी को औद्योगिक और वित्तीय रूप से कमजोर देशों की ओर खिसकाने में सफल हो जाते हैं। अभी उन्हें विश्वास है कि कोई रास्ता निकल आएगा और अंतत: वे इस त्रासदी से उबरने में सफल हो जाएंगे। लेकिन इतना वे जानते हैं कि इस त्रासदी का मूल औद्योगिक तंत्र के भीतर ही है, उसके बाहर नहीं।

पर इस संकट के विस्तार में जाने से पहले यूनान की त्रासदी के पूरे कथानक पर एक दृष्टि डाल लें। एक करोड़ से अधिक आबादी वाला यूनान यूरोप की एक मझोली शक्ति है। उसका अधिकतर भूगोल पहाड़ों से आवृत्त है और केवल बीस प्रतिशत भूमि पर खेती हो सकती है। पर उसके पास विश्व के सबसे लंबे समुद्र तटों में से एक समुद्री पट्टी है। इसलिए जहाजरानी उद्योग के क्षेत्र में वह अग्रणी रहा है। वही उसके उद्योग तंत्र की रीढ़ है। उसके अलावा पर्यटन और कृषि उत्पाद ही उसकी आय के साधन हैं। कल तक वह यूरोप के समृद्ध देशों में गिना अवश्य जाता था, लेकिन उसकी यह समृद्धि अधिक पुरानी नहीं थी।

पंद्रहवीं शताब्दी में यूनान उस्मानी साम्राज्य के नियंत्रण में चला गया था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में उस्मानी साम्राज्य से स्वतंत्र होने की कशमकश आरंभ हुई। लेकिन उस्मानी साम्राज्य के सामने उसकी शक्ति अल्प थी। अंतत: वह ब्रिटेन, फ्रांस और रूस की सहायता से स्वतंत्र हुआ। यह स्वाभाविक ही था कि स्वतंत्र यूनान का राजतंत्र इन देशों के परोक्ष नियंत्रण में चला जाता। अपने आंतरिक और बाह्य दबावों के कारण वह 1893 में दिवालिया घोषित हो गया था।

पहले महायुद्ध के समय यूनान में दो समानांतर सरकारें थीं। एक ब्रिटेन द्वारा पोषित और दूसरी जर्मनी द्वारा पोषित। दूसरे महायुद्ध में वह जर्मनी के नियंत्रण में चला गया। 1941-42 में जर्मनी में नियंत्रण के कारण उसके कोई एक लाख लोग भुखमरी का शिकार हुए। इक्कीस हजार लोगों को जर्मनों ने मौत के घाट उतार दिया। दस लाख लोग बेघरबार हो गए। अंतत: दूसरे महायुद्ध में जर्मनी हारा और यूनान उसके नियंत्रण से मुक्त हुआ, पर अगले तीस वर्ष वहां लोकतंत्रवादियों और साम्यवादियों के बीच संघर्ष चला। 1975 में अंतत: वहां लोकतंत्रीय संविधान लागू हुआ।

उस समय तक अमेरिका और यूरोप के अन्य औद्योगिक देश अपना कायाकल्प कर चुके थे। उनका आंतरिक बाजार जितना विस्तृत हो सकता था, हो चुका था। अपने औद्योगिक तंत्र को चलाते रहने के लिए उन्हें नए बाजार चाहिए थे। 1950 से 1970 के औद्योगिक समृद्धि के स्वर्णकाल में जर्मनी यूरोप की आर्थिक महाशक्ति हो गया था। उसने पश्चिमी यूरोप को एकीकृत बाजार बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए। सभी देशों के अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता बनाए रखने के आग्रह के कारण यूरोप का आर्थिक एकीकरण संभव नहीं था। इसलिए वित्तीय एकीकरण की दिशा में यूरो सर्वमान्य मुद्रा बना। यूनान भी इस नई व्यवस्था में सम्मिलित कर लिया गया।

यूरो जोन में सम्मिलित होने से पहले यूनान अपनी स्वाभाविक गति से प्रगति कर रहा था। अपनी आय के साथ कदम मिलाते हुए वह अपना व्यय बढ़ा रहा था। बाजार के इस मद्धिम विस्तार से यूनान के बजाय अमेरिका या जर्मनी को अधिक परेशानी थी। उनकी औद्योगिक शक्तियों को अपनी नितंतर बढ़ती भूख मिटाने के लिए नए शिकार चाहिए थे। इसलिए यूनान को बहुत तीव्र गति से समृद्ध होने का सपना दिखाया गया, उसे समझाया गया कि उत्पादन बढ़ाए बिना भी समृद्ध हुआ जा सकता है- उपभोग बढ़ा कर।

उपभोग बढ़ेगा तो मांग बढ़ेगी, औद्योगिक निवेश का रास्ता खुलेगा और अपने आप औद्योगिक तंत्र खड़ा होने लगेगा। बिना आय बढ़ाए उपभोग बढ़ाना हो तो एक ही तरीका है- ऋण। अपने बाजार के विस्तार के लिए औद्योगिक देश दूसरी सरकारों पर हथियार खरीदने के दबाव बनाते हैं और उनके नागरिकों पर औद्योगिक सामान खरीदने के लिए। सरकारें और नागरिक इसी प्रक्रिया में समृद्ध देशों और उनकी वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में डूबते चले जाते हैं।

कई महीने से यह ढोल पीटा जाता रहा है कि यूनान ने बेचा कम, खरीदा ज्यादा और इस तरह उसका घाटा भी बढ़ता रहा और ऋण भी। यूरो जोन में कोई देश अपनी सकल आय की तुलना में कितना घाटा निभा सकता है, इसकी सीमा बांधी गई है, लेकिन अमेरिका की गोल्डमैन सैक्स और जेपी मॉर्गन चेज ने इस नियम से बचने के अनुचित तरीके निकाल दिए। ये गतिविधियां खुलीं और 2004 में यूनान सरकार ने माना कि वह तब तक अपना घाटा कम आंकती रही है। वह वास्तव में सकल घरेलू उत्पादन का पंद्रह प्रतिशत निकला और यूनान का सार्वजनिक ऋण भी बढ़ कर डेढ़ सौ प्रतिशत से अधिक हो चुका था। लेकिन यह ऋण कहां खर्च हो रहा था?

यूनान के राजनीतिक नेतृत्व को दो बातें समझाई गर्इं। एक यह कि रूस से भौगोलिक निकटता उसकी सुरक्षा को खतरा हो सकती है। इसलिए उसे अपनी रक्षा तैयारी बढ़ानी चाहिए और देश के भीतर के साम्यवादियों को मुख्यधारा में लाने के लिए सेवा क्षेत्र का तेजी से विस्तार करना चाहिए।

यूनान 2000 से 2007 तक यूरोप की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था था। लेकिन इस वृद्धि के भीतर झांकने पर ही पता लगता है कि इस दौरान वह नाटो देशों में अमेरिका के बाद सबसे अधिक हथियार खरीदने वाला देश था। उसने बयालीस प्रतिशत खरीद अमेरिका से की, 22.7 प्रतिशत जर्मनी से और 12.5 प्रतिशत फ्रांस से। इसी तरह औद्योगिक देशों का सामान खरीदने के लिए यूनान के नागरिकों को बैंकों से अधिकाधिक कर्ज लेने के लिए प्रेरित किया गया। 2000 तक ऐसा ऋण सकल घरेलू उत्पादन का मात्र बीस प्रतिशत था। आज वह बढ़ कर एक सौ अस्सी प्रतिशत हो चुका है।

अगर औद्योगिक जगत में 2008 में मंदी का यह ताजा दौर न शुरू हुआ होता तो समृद्धि का सपना दिखा कर ऋण लादते रहने का यह खेल कुछ समय और चलता रहता। इस खेल में समृद्ध औद्योगिक देशों को दोहरा फायदा हो रहा था। उनका औद्योगिक सामान बिक रहा था और उनकी कंपनियों के मुनाफे बढ़ रहे थे।

दूसरी ओर बढ़ते हुए ऋणों के कारण यूनान के ऋण की ब्याज दर ऊंची होती चली जा रही थी। ऊंची ब्याज की इस लूट में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से लगा कर यूरोपीय बैंक तक सभी सम्मिलित थे। 2008 से आरंभ हुई मंदी ने पूंजी के प्रवाह को रोक दिया, नए ऋण मुश्किल हो गए। यूनान जो ऋण लेकर पुरानी देनदारी चुका रहा था, दिवालिया होने के कगार पर आ पहुंचा।

यह संकट केवल यूनान के लिए नहीं था। समृद्ध देशों के लिए भी था, क्योंकि यूनान के दिवालिया होने पर उनके बैंक भी डूबते। अपने बैंकों को बचाने के लिए समृद्ध देशों ने यूनान को दिवालिया होने से बचाने के नाम पर और ऋण दिया। पर यह पैसा यूनान की सरकार के पास नहीं आया, उन बैंकों के पास गया, जिनका यूनान कर्जदार था। यानी जर्मनी ने अपने बैंकों के संकट को यूनान सरकार के कंधों पर डाल दिया। यूनान सरकार कर्जदार हो गई और समृद्ध देशों के बैंक बच गए।

यूनान पर मितव्ययिता के नाम पर अनेक प्रतिबंध थोपे गए। सरकार के आर्थिक स्रोत सूखे तो यूनान की अर्थव्यवस्था सिकुड़ने लगी और बड़े शहरों के आधे लोग बेरोजगार हो गए। लोगों के वेतन पैंतीस प्रतिशत तक घट गए और वृद्ध लोगों की पेंशन आदि भी सिकुड़ गई। इस संकट की स्थिति में यूनान के अमीर लोग अपनी पूंजी यूरोप के फलते-फूलते इलाकों में ले गए।

इस आर्थिक तंगी ने यूनान में राजनीतिक संकट पैदा किया। चुनाव में सरकार बदली, नई वामपंथी झुकाव वाली सरकार ने कहा कि अब तक जो हुआ, उसमें यूनान की पिछली सरकारें ही नहीं ऋणदाता देश और उनकी संस्थाएं भी सहभागी थीं। अब स्थिति से उबरने के लिए ऋण का पुनर्समायोजन किया जाए। ऋण का एक भाग अदेय मान लिया जाए। स्वयं जर्मनी को दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस तरह की कर्जमाफी मिली थी। यह सब तर्क देने वाले यूनान के कुछ दिन पहले तक के वित्तमंत्री यानिस वारोफाकिस अर्थशास्त्रियों के बीच रातोंरात प्रसिद्ध हो गए। उनकी पुस्तक ‘माडर्न पॉलिटिकल इकोनॉमी’ अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को पढ़नी चाहिए। अंतत: जर्मनी के दबाव में उन्हें सरकार से हटा दिया गया। यूनान को पुरानी शर्तों पर समझौता करने के लिए मजबूर किया गया है, जो उसके गले का फंदा ही साबित होने वाला है।

अगर आप इस कथानक पर दृष्टि डालते हुए केवल यूनान को देखते रहेंगे तो न आप यूनान की इस त्रासदी को समझ पाएंगे, न समूचे औद्योगिक जगत की त्रासदी को। हम जिस औद्योगिक सभ्यता को समृद्धि के नए युग में पदार्पण मानते हैं वह हमारी अधोगति का मार्ग है। औद्योगिक सभ्यता का अर्थ है उत्पादन का कुछ हाथों में सीमित हो जाना। सभी जगह कृषि में 1-3 प्रतिशत और उद्योग धंधों में 10-12 प्रतिशत लोग कार्यरत होते हैं और वह भी एक यांत्रिक प्रक्रिया के पुर्जे की तरह। इससे पूरे समाज की सृजनात्मकता, स्वायत्तता और पारस्परिकता समाप्त हो जाती है।

उद्योग तंत्र को चलाते रहने के लिए उसके उत्पादन का बिकना आवश्यक है। उद्योग मुनाफे पर निर्भर है और मुनाफा बढ़ाते जाना ही उनका लक्ष्य होता है। इस प्रक्रिया में आय कुछ हाथों में सिकुड़ती जाती है, शेष लोगों की आय घटती है और बाजार में मंदी आरंभ हो जाती है। उससे उबरने के लिए उदारतापूर्वक ऋण देकर उपभोग प्रोत्साहित किया जाता है।

सामान्यत: आय बढ़ने पर ऋण घटना चाहिए। लेकिन पिछले चार दशक पर दृष्टि डालें तो सभी समृद्ध देशों की आमदनी भी बढ़ रही है और ऋणग्रस्तता भी। आज अमेरिका की ऋणग्रस्तता उसकी समृद्धि के बावजूद सबसे अधिक है। यही हाल जापान, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन का है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने हिसाब लगाया है कि औद्योगिक देशों की आर्थिक वृद्धि की दर उनकी ऋण वृद्धि की दर से निरंतर पीछे है। इसका अर्थ यह हुआ कि औद्योगिक देशों में भी औद्योगिक वस्तुओं की मांग बढ़ाने के लिए और अधिक ऋण उपलब्ध करते रहना होता है। औद्योगिक सभ्यता ऋणम् कृत्वा घृतम् पिबेत वाली उक्ति को चरितार्थ कर रही है। इसे आप सभ्यता कहेंगे या अ-सभ्यता।

बनवारी

 

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