सरकार ने सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए शुक्रवार को कई बड़ी घोषणाएं की। वित्त मंत्री ने कॉरपोरेट टैक्स रेट को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या इन कदमों से भारतीय अर्थव्यवस्था दोबारा से वैसे ही रफ्तार पकड़ पाएगी जैसा कि नजारा शेयर मार्केट में शुक्रवार को देखने को मिला?
इससे पहले कि कोई इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश करे, यह जानना जरूरी है कि इस टैक्स कटौती के दायरे को कमतर नहीं किया जा सकता। कॉरपोरेट टैक्स में इतने बड़े पैमाने पर कटौती (एक चौथाई से ज्यादा) करीब 15 साल के बाद की गई है। साल 2004-05 में टैक्स रेट को 35 पर्सेंट से घटाकर 30 पर्सेंट किया गया था। इससे 7 साल पहले पी चिदंबरम ने अपने ड्रीम बजट में इसे 40 प्रतिशत से घटाकर 35 पर्सेंट किया था।
निर्मला सीतारमण के उठाए कदमों पर क्रिकेट की भाषा में टिप्पणी करने की कोशिश करें तो वित्त मंत्री ने शुक्रवार को गेंद को स्टेडियम के पार पहुंचा दिया है। हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसे और छक्कों की जरूरत है। 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी रन रेट के लिए ऐसा करना ही पड़ेगा। यह रिक्वायर्ड रन रेट करीब 14 से 15 प्रतिशत सालाना का होगा।
टैक्स कटौती के मुख्यत: तीन असर होते हैं, पहला कि यह कंपनियों का मुनाफा बढ़ाता है। इसके चलते वे अतिरिक्त नकदी का निवेश करते हैं। ऐसे कदमों के चलते भारतीय कंपनियां और ज्यादा राहत की मांग नहीं कर सकतीं और उन पर निवेश करने का दबाव बनता है। दूसरा असर यह कि बाजार में एक फील गुड सेंटिमेंट पैदा होता है। इससे एक सीधा मैसेज जाता है कि सरकार का भारतीय कंपनियों में भरोसा कायम है। तीसरा असर यह होता है कि ऐसे कदमों से सरकार की वित्तीय स्थिति पर दबाव बनता है।
टैक्स छूट में इस कटौती का सालाना बोझ करीब 1.45 लाख करोड़ रुपये पड़ेगा, जिस अंतर को कोई सरकार नहीं भर पाएगी। यह रकम जीडीपी का करीब 1 प्रतिशत है। राज्यों के सामने कोई विकल्प नहीं है। उन्हें केंद्र की ओर से करीब 61 हजार करोड़ रुपये कम मिलेंगे। ऐसे में उनके सामने विभिन्न योजनाओं में व्यय का दायरा बढ़ाने की गुंजाइश बेहद कम रहेगी।
अगर पीछे के घटनाक्रम पर नजर डालें तो बजट के तीन महीने के अंदर और बीते चार हफ्तों में सीतारमण ने अर्थव्यवस्था को लेकर कई कदम उठाए। इसमें फॉरेन पोर्टफोलिया इन्वेस्टर्स को सरचार्ज में राहत, कई बड़े सरकारी बैंकों का विलय, एक्सपोर्ट्स को बढ़ावा देने के लिए नई योजना, बैंकों में पूंजी निवेश और ऑटो व रियल एस्टेट सेक्टर को राहत आदि शामिल है।
हालांकि, इनमें से कोई भी कदम ढांचागत समस्याओं का हल निकालते नजर नहीं आता, जिनपर ध्यान देने की जरूरत है। इन कदमों से डिमांड और प्राइवेट इन्वेस्टमेंट में सुस्ती जैसी समस्याओं का हल निकलते भी नहीं नजर आया। हालांकि, अगर सवाल यह है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था इन कदमों के बिना बेहतर रहती तो जवाब हां नहीं होगा।