लद्दाख सीमा पर चीन की ओर से हिंसक झड़प करने और अतिक्रमण के जवाब में भले ही चीनी सामान के बहिष्कार की मांग जोर पकड़ रही है, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। भारतीय उपभोक्ताओं की सस्ते चीनी सामान पर अत्यधिक निर्भरता और इंडस्ट्री को अपने तमाम उत्पादों के लिए चीनी सामान के आयात की जरूरत के चलते ऐसा हो पाना मुश्किल है। चीनी प्रोडक्ट्स के इस्तेमाल में कमी को लेकर यदि सरकार की ओर से कोई नीति लाई जाती है तो फिर आने वाले समय में भारत में चीजों के दाम कुछ समय के लिए बढ़ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर आप दवाओं की कीमत को ही देख सकते हैं। कोरोना संकट के बाद फार्मास्युटिकल तत्व 6 फीसदी से 167 पर्सेंट तक महंगे हुए हैं। इसकी वजह जनवरी के बाद से ही चीन से आयात का प्रभावित होना है।
भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों के कुल आयात में चीन की 45 फीसदी की हिस्सेदारी है। इसके अलावा कुछ मोबाइल फोन कंपोनेंट्स का 90 पर्सेंट तक आयात चीन से ही होता है। फार्मा कंपनियां अपना 65 से 70 पर्सेंट तक का आयात चीन से ही करती हैं। सीमा पर तनाव के बीच भी चीन से भारत सबसे ज्यादा आयात करता है। यही नहीं बीते साल के 11 महीनों में भारत के मुकाबले कारोबार में चीन 47 अरब डॉलर के सरप्लस पर था। इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का कहना है कि भारत में 2 लाख करोड़ रुपये का मोबाइल फोन मार्केट है, जिसमें 72 पर्सेंट हिस्सेदारी शाओमी जैसी चीनी कंपनियों की है।
यही नहीं टेलिकॉम इक्विपमेंट मार्केट में भी चीनी कंपनियों की 25 पर्सेंट की हिस्सेदारी है। इस सेक्टर में कई अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां भी हैं, लेकिन चीनी कंपनियों को किनारे लगाने से इक्विपमेंट्स की कीमत 15 पर्सेंट तक बढ़ सकती है। इसके अलावा भारतीय कंपनियों को चीन से मिल रहे निवेश पर भी असर होगा। भारत के स्मार्ट टीवी मार्केट में भी चीनी कंपनियों की 45 फीसदी तक की हिस्सेदारी है, जो अन्य कंपनियों के मुकाबले 30 से 50 फीसदी तक कम दाम में अपने सामान बेच रही हैं।
1962 में भारत के शेयर बाजार में आई थी बड़ी गिरावट: इससे पहले चीन के खिलाफ 1962 की जंग को लेकर बात करें तो उस दौरान भी भारतीय शेयर बाजार में बड़ी गिरावट देखने को मिली थी और सोने की कीमतों में भी 30 पर्सेंट तक की कमी आ गई थी। रिजर्व बैंक की तत्कालीन रिपोर्ट के मुताबिक तब शेयर मार्केट में 16 पर्सेंट की गिरावट आई थी। इसके अलावा बैलेंस ऑफ पेमेंट्स का भी संकट पैदा हुआ था। रिपोर्ट के अनुसार शेयर मार्केट में 1958 से ही काफी तेजी का दौर देखने को मिल रहा था, लेकिन इसके बाद जुलाई से दिसंबर 1962 के बीच शेयर मार्केट 8.2 पर्सेंट गिर गया था और फिर जून 1963 तक यह गिरावट 16 पर्सेंट बढ़ गई थी।