केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने रविवार को मीडिया से संबंधित मुद्दों पर जो राय जाहिर की, वह पिछले कुछ समय से चल रही इस बहस का ही विस्तार है कि आखिर मीडिया की जिम्मेदारी और सीमाएं क्या हैं! न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की ओर से मीडिया की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी विषय पर बोलते हुए अरुण जेटली ने आधुनिक तकनीक के दौर में मीडिया पर पाबंदी लगाने को गैरजरूरी बताया और आत्मनिरीक्षण की वकालत की। इससे इतना तो साफ है कि इस मसले पर सरकार फिलहाल नीतिगत तौर पर मीडिया पर लगाम कसने के पक्ष में नहीं है और वह चाहती है कि उठने वाले सवालों के जवाब की तलाश खुद भीतर से हो।
लेकिन उनकी यह बात महत्त्वपूर्ण है कि मीडिया को इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि जो मामले व्यापक जनहित के न हों या जिनमें लोगों की निजता शामिल हो, उन खबरों की प्रस्तुति कैसे की जाए। यह छिपा नहीं है कि जिस समय देश में एक बड़े तबके को प्रभावित करने वाली कोई घटना चल रही होती है या सरकार के स्तर पर फैसले किए जाते हैं, उस समय मुख्यधारा मीडिया में बेवजह विवाद या किसी के निजी प्रसंग को सनसनीखेज बना कर पेश किया जाता है। यह एक तरह से मीडिया की अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी है। इसलिए यह विचार का विषय होना चाहिए कि अपने दायित्वों के बरक्स प्रस्तुति से कैसे संदेश सामने आ रहे हैं।
जाहिर है, अगर लोकतंत्र में मीडिया की आजादी एक अनिवार्य पहलू है तो उससे यह भी अपेक्षा है कि वह व्यापक जनता के हितों का ध्यान रखेगा। अदालतों में चल रहे मामलों में बेलगाम रिपोर्टिंग और इसके चलते अदालतों पर बनने वाले दबाव को लेकर कई बार सवाल उठाए गए हैं और इस पर रोक के लिए नियमन की जरूरत भी बताई गई। लेकिन अरुण जेटली का कहना है कि कोई मुद्दा अदालत में है, केवल इसलिए मीडिया पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।
हालांकि कई बार सरकारों पर ऐसे आरोप सामने आए हैं कि वे विज्ञापनों को सीमित कर मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश करती हैं। सवाल है कि निजी क्षेत्र के विज्ञापनों के दौर में यह तरीका कितना असरकारी है? यहीं यह सवाल उठता है कि अखबारों या टीवी चैनलों पर जिस तरह विज्ञापनों की बाढ़ दिखाई देती है, क्या उसकी कोई सीमा है। जेटली ने विज्ञापनों की मात्रा में सरकारी दखल देने को एक खराब उदाहरण बताया।
लेकिन जो अखबार या टीवी चैनल समाचारों की प्रस्तुति के लिए सरकार से लाइसेंस और कई तरह की सुविधाएं हासिल करते हैं, उनके एक तरह से विज्ञापनों के प्रकाशन-प्रसारण के माध्यम के रूप में तब्दील हो जाने को कितना उचित कहा जा सकता है? फिर विज्ञापनों में किसी उत्पाद के बारे में जो दावे किए जाते हैं, उनके गलत पाए जाने पर संबंधित पक्षों को दंडित करने के लिए क्या कोई ठोस इंतजाम है? जहां तक इंटरनेट के चलते किसी देश के मीडिया की हर घर में पहुंच की दलील पर विदेशी निवेश को बहुत आपत्तिजनक नहीं मानने की बात है तो यह इस क्षेत्र में सुविधाओं के लिहाज से अनुकूल हो सकता है। लेकिन क्या यह भारत के मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों में पूरी तरह सुरक्षित होगा, इस पर भी गौर किया जाना चाहिए।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta