हिंदी के दिग्गज पत्रकार राम बहादुर राय को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का अध्यक्ष बनाया गया है। आमतौर पर बौद्धिकता के केंद्र माने जाने वाले संस्थानों में सरकारी नियुक्तियों को लेकर जिस तरह के विवाद खड़े होते रहे हैं, उसी तरह इस पर भी विवाद स्वाभाविक था। लेकिन विचारधाराओं की जंग को फिलहाल किनारे रख कर इस समय जब हम राय की बात करते हैं, तब समझ में आता है कि वे कलम के ऐसे कारिंदे रहे, जिन्होंने समय और समाज के साथ दगा नहीं किया। मौजूदा दौर में जब कलम से लिखे पर ही सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे हैं तो ऐसे समय में राय जैसे व्यक्तित्व यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहते हैं कि उनकी कलम की स्याही किसी खास राजनीतिक रंग की इबारत नहीं लिखेगी।

माना जाता है कि राय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नजदीकी रखने वालों में रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि छात्र राजनीति के दौरान सक्रिय रहे राय कभी लोकनायक जयप्रकाश नारायण से प्रभावित रहे थे और तब उन्हें जेपी के नजदीकी लोगों में से जाना जाता था। जेपी आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी। एक समय में समाजवादी विचारधारा से प्रभावित राय ने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी ‘रहबरी के सवाल’ और प्रधानमंत्री वीपी सिंह पर ‘मंजिल से ज्यादा सफर’ लिखी। 2015 में पद्मश्री से नवाजे गए राय ने अपने पत्रकारीय जीवन में कई सरकारों और उनके कार्यकाल पर निष्पक्ष कलम चलाई।

उनके बारे में यहां सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज उनकी सैद्धांतिक और बौद्धिक प्रतिबद्धता को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, उसके बरक्स उनकी पत्रकारीय निष्ठा सदा से ही मजबूत रही है। ‘सबकी खबर ले, सबको खबर दे’ वाले जनसत्ता को राय ने अपने समय में पत्रकारिता का पहरेदार बनने में मजबूत भूमिका निभाई। समूची रिपोर्टिंग टीम को उन्होंने स्वतंत्रता के भाव के साथ काम करने का माहौल दिया, अपनी टीम के पत्रकारों की कलम में किसी खास रंग की स्याही नहीं भरने दी। साथ ही रिपोर्टिंग की अपनी टीम में एक स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना भी भरी जो किसी भी संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है।

जनसत्ता में संवाददाता के तौर पर शुरुआत करने के बाद वे समाचार सेवा के संपादक पद तक पहुंचे। इस पूरे कार्यकाल के दौरान उनकी कलम ने खबर को खबर के तौर पर ही पेश किया। एक पत्रकार की हैसियत से राय ने कभी न तो कोई समझौता किया और न ही अपनी विचारधारा को अपने रचनाकर्म के आड़े आने दिया। उनकी पहली प्राथमिकता खबरों की निष्पक्षता थी। जिस बात ने उन्हें भीड़ से अलग रखा, वह उनकी सच को सच और झूठ को झूठ कहने की ताकत थी।

फिलहाल वे ‘यथावत’ पत्रिका के संपादक हैं। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने अपनी समूची शक्ति अपने संस्थान की बेहतरी में लगाई। खबरनवीसी के पेशे में शानदार ईमानदार पारी खेल चुके राय अगर आज अपनी विचारधारा के कारण किसी खास संस्था से जुड़े हैं तो इसे उनके लोकतांत्रिक हक के तौर पर देखा जाना चाहिए।

हम सब अपने पेशे के साथ अपनी निजी जिंदगी भी जीते हैं। हर पत्रकार वोट डालता है तो वह किसी एक पार्टी के नेता को ही डालता है। महत्त्वपूर्ण यह है कि उसकी यह पसंद या नापसंदगी उसके पेशे के आड़े तो नहीं आ रही! कहीं वह संस्थान और अपने मातहतों का बेजा इस्तेमाल तो नहीं कर रहा! लेकिन इस कसौटी पर राय की पेशे के प्रति प्रतिबद्धता पर कोई विवाद नहीं। विचाराधारा की जंग में शायद वे किसी खास लकीर पर खड़े हों, लेकिन एक प्रबुद्ध पत्रकार की उनकी छवि तो निर्विवाद है।
खबरनवीस खबरों के साथ जंग करता है और जंग के इस मैदान में सबसे अहम कड़ी होती हैं

राजनीतिक शख्सियतें, क्योंकि राज और समाज को सबसे ज्यादा यही प्रभावित करते हैं, इसलिए खबरों का सूत्र इनसे जुड़ता है। और इसी क्रम में वे खास शख्सियतों से प्रभावित भी होते हैं। एक समय में राय जयप्रकाश नारायण के नजदीकी रहे, मीसा के तहत जेल गए तो बाद के समय में चंद्रशेखर और वीपी सिंह से प्रभावित हुए और उनके नजदीकी बने। जयप्रकाश, चंद्रशेखर और वीपी सिंह- ये वे नाम हैं, जिनकी राजनीति भारतीय लोकतंत्र में मील का पत्थर साबित हुई है। जाहिर है कि इनकी राजनीति से राय लोकतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा के कारण ही प्रभावित हुए थे। खासतौर पर जेपी आंदोलन ने बिहार से लेकर देश के फलक पर जैसी राजनीतिक जमीन रची, उसमें जेपी के साथ होना अपने आप में राय को खास बनाता है।

फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीति की कामयाबी के लिए प्रसिद्ध हुए और समाज की पिछड़ी जातियों के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की हिम्मत करने वाले वीपी सिंह ने उन्हें प्रभावित किया तो इन सबसे राय के सरोकार का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन अब एक खास सरकारी संस्था का अध्यक्ष होने के कारण वे कुछ लोगों के निशाने पर हैं। हालांकि उनकी नियुक्ति का विरोध लोकतांत्रिक परंपरा का ही हिस्सा है। लेकिन यहां मसला उनकी पत्रकारीय निष्ठा का है। कसौटी अगर यह है तो कहा जा सकता है कि पत्रकारिता के साथ उन्होंने कभी विश्वासघात नहीं किया। इनकी कलम न तो किसी खास रंग में खुद रंगी थी और न ही किसी दूसरे पर वैसा रंग फेंका। बस स्याह और सफेद का फर्क करना जो एक पत्रकार की पहचान होती है, वह राय की भी रही। लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ चलने वाले खबरनवीस की उनकी छवि पर कभी आंच नहीं आई।