इस लेख के लिखे जाने तक इंदौर-पटना एक्सप्रेस ट्रेन हादसे में मारे जाने वालों की संख्या 146 हो चुकी थी। वहीं 180 लोग घायल थे जिनमें 58 लोग गंभीर रूप से घायल हैं। मैं इसे हादसा नहीं कहूंगा। मैं इसे ऐसा दुर्भाग्य कहूंगा जिसे टाला जा सकता था। इतने बड़े हादसे के बाद रस्मी तौर पर जांच के आदेश दिए जा चुके हैं। जांच आयोग कई महीने बाद अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। तब तक जनता इस हादसे को भूल चुकी होगी, जब तक कि कोई नया हादसा न हो जाए। लेकिन जिन लोगों के परिजन इस हादसे में मारे गए हैं वो क्या वो इसे भूल पाएंगे? जिस पुत्र का पिता नहीं रहा, वो महिला जिसका पति नहीं रहा या जिस माँ का बेटा नहीं रहा वो इसे भूल सकेंगे?
अगर रेल दुर्घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो सबसे पहले ये तथ्य सामने आता है कि इनका शिकार सबसे ज्यादा गरीब लोग होते हैं। ऐसे ज्यादातर ट्रेन हादसे उन ट्रेनों के साथ होते हैं जिन्हें गैर-वीआईपी ट्रेनें कहते हैं। राजधानी, शताब्दी इत्यादि ट्रेनों को वीआईपी ट्रेनें कहते हैं। तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि राजधानी और शताब्दी पूरी तरह सुरक्षित हैं? इसका जवाब है, नहीं। चूंकि ट्रेनों के ट्रैक (पटरियां) और सिग्नल सिस्टम एक ही हैं फर्क बस ट्रेन के इंजन और उसके डब्बों में होता है। वीआईपी ट्रेनों में एलएचबी कोच होते हैं। वीआईपी ट्रेनों के गुजरने से पहले ट्रैक की ज्यादा बेहतर निगरानी भी की जाती है।
सवाल ये है कि “भारतीय रेलवे की बीमारी की जड़ क्या है?” मैंने माननीय रेल मंत्री की इस हादसे पर प्रतिक्रिया सुनी। उन्होंने कहा, “दोषियों के खिलाफ़ यथासंभव कड़ी कार्रवाई की जाएगी।” लेकिन “दोषी कौन है?” क्या हम एक अक्षम रेलवे प्रणाली के लिए ब्रिटिश सरकार को दोषी मान लें? बिल्कुल नहीं। ब्रिटिश शासन से जो कुछ कीमतें चीजें हमें मिली है उनमें एक सक्षम रेलवे प्रणाली भी शामिल है। तो फिर दोषी कौन है? क्या ड्यूटी पर तैनात बेचारे गैंगमैन इसके लिए जिम्मेदार हैं? बिल्कुल नहीं क्योंकि वो इतने शिक्षित नहीं होते कि रेल की गुणवत्ता और उससे जुड़े जोखिम का मूल्यांकन कर सकें। मैं इसके लिए रेल मंत्री को भी जिम्मेदार नहीं मानता। मेरी राय में केंद्र की एक के बाद एक आने वाली विभिन्न सरकारों को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। उन सभी को जिन्होंने भारतीय रेलवे को कीमती संपत्ति के बजाय एक राजनीतिक औजार की तरह बरता। भारतीय रेलवे हर रोज जितनी सवारी और सामान की ढुलाई करती है उसका हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कम से कम दो प्रतिशत का योगदान है।
भारतीय रेलवे दुनिया की सबसे बेहतरीन रेलों में एक है। भारतीय सेना के बाद इसे देश का दूसरा सबसे अच्छी चीज कहा जा सकता है जिसमें बहुत से काबिल लोग काम करते हैं। लेकिन इसे सुनियोजित तरीके से एक के बाद दूसरी सरकारों ने नुकसान पहुंचाया क्योंकि वो इसकी क्षमता को ठीक से नहीं समझती थीं। भारतीय रेलवो की तुलना जापानी रेलवे प्रणाली शिंकानसेन से की जा सकती है जो 1964 से लाखों यात्रियों को मंजिल तक पहुंचा रही है। शिंकानसेन में आज तक किसी की भी जान नहीं गई है। भारतीय रेलवे इससे भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है बशर्ते इसके लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराए जाएं।
आज रेलवे की सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये दिवालिया होने की कगार पर है। बहुत जल्द ही भारतीय रेलवे को कर्मचारियों की तनख्वाह देने के लिए कर्ज लेना पड़ेगा क्योंकि इसके 25 हजार करोड़ रुपये या इससे भी ज्यादा के घाटे में होने का अनुमान है। मुझे सबसे ज्यादा चिंता डिप्रिशिएशन रिजर्व फंड (डीआरएफ) और डेवलपमेंट फंड (डीएफ) की सुरक्षा की है। रेलवे के पास पैसे की कमी है इसलिए ये दोनों ही घटते जा रहे हैं। भारतीय रेलवे अपना दैनिक खर्च निकालने लायक आय भी नहीं कर पा रही है। ट्रैक, इंजन, डब्बे और सिग्नल सिस्टम को बदलने के लिए डीआरएफ की जरूरत होती है। औसतन डीआरएफ के लिए हर साल 20-25 हजार करोड़ रुपये चाहिए होते हैं ताकि खराब हो चुकी सामग्री को बदला जा सके। साल 2016 के बजट में डीआरएफ के लिए केवल 3200 करोड़ रुपये का फंड दिया गया। यानी रेलवे में जिस सामग्री को बदले जाने की तत्काल जरूरत है वो नहीं बदली जा सकेंगे। इसका अर्थ रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था से समझौता।
रेलवे का ध्यान सुरक्षा से ज्यादा कैटरिंग, वाईफाई, बुलेट ट्रेन इत्यादि जैसी चीजों पर है। रेलवे के लोग बड़े स्तर पर हतोत्साहित हैं क्योंकि रेलवे में ऊपरी स्तर पर बड़े बदलाव के बावजूद अनिश्चितता के बादल नहीं छंटे हैं। एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए रेलवे बोर्ड के मौजूदा चेयरमैन को रिटायर होने के बाद दो साल का सेवा विस्तार दिया गया है जिसकी वजह से कई लोग नाराज हुए। रेलवे ट्रैक, इंजन और डब्बों इत्यादि मौजूदा परिसंपत्तियों पर भी कम खर्च कर रहा है। पुराने पड़ चुके परिसंपत्तियों को बदला भी नहीं जा रहा है। माल ढुलाई पिछले साल से 15 प्रतिशत कम रही जो कि लक्ष्य से 25 प्रतिशत कम थी। रेलवे के रखरखाव की भी उचित निगरानी नहीं की जा रही है। एलएचबी कोचों को बदलने का काम बहुत धीरे चल रहा है। अगर इंदौर-पटना एक्सप्रेस में एलएचबी कोच लगे होते तो नुकसान काफी कम हो सकता था। इसके अलावा रेल की पटरियों में आने वाली दरारों को समय रहते चिह्नित करने के लिए सतत ट्रैक सर्किटिंग (सीटीसी) की भी जरूरत है। अगर उचित सीटीसी हुई होती तो इंदौर-पटना एक्सप्रेस हादसे को टाला जा सकता था।
निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि हमें भारतीय रेलवे में पीढ़ीगत बदलाव करने होंगे और इसे पूरी तरह अत्याधुनिक बनाना होगा। इसके लिए सरकार को रेलवे से होने वाली आय का भरोसा किए बिना भारी पैमाने पर निवेश करना होगा। इस निवेश से न केवल आम नागरिकों की कीमती जानें बचेंगी बल्कि इससे हमारी जीडीपी में भी काफी लाभ होगा। वक्त आ गया है कि हम रेलवे की परिभाषा को बदलें और इसे “कारोबारी संगठन” समझने के बजाय “बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराने वाली” संस्था के तौर पर देखें।
(लेखक तृणमूल कांग्रेस के नेता हैं और रेल मंत्री रहे हैं।)