कांग्रेस का एक और साल भूलभुलैया में बीत गया लेकिन हो सकता है कि पार्टी अपने भावी नेता द्वारा दिखाई जा रही नई ऊर्जा से थोड़ी संतुष्ट हो। राहुल गांधी के लिए ये साल काफी व्यस्त रहा। वो प्रधानमंत्री पर हमला करने में अपने पार्टी के नेतृत्व करने में लगे रहे। राजधानी दिल्ली के राजनीतिक रंगमंच पर अपनी जगह बनाने की कोशिश करने के अलावा राहुल ने उत्तर प्रदेश में भी काफी समय दिया। राहुल इस साल लगातार सुर्खियों में रहे। खासकर साल के आखिरी महीनों में।

राहुल द्वारा लगातार नरेंद्र मोदी पर हमला करने से भले ही वो मीडिया की सुर्खियों में आने में सफल हो जाएं लेकिन कांग्रेस को इस वक्त खबरों में रहने से ज्यादा जरूरत अफना जनाधार बढ़ाना है। यूपी में शायद ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को बड़ा नुकसान पहुंचा पाए। मणिपुर और उत्तराखंड से बाहर हो जाए और पंजाब में सत्ता में आने में विफल रहे तो भी उसकी असली परीक्षा 2017 के गुजरात विधान सभा चुनाव में होगी। राहुल का आक्रामक रुख तीन मुद्दों पर उनकी निष्क्रियता के कारण ज्यादा प्रभावित नहीं करती।

परिवारवाद की राजनीति पर बहस में राहुल कभी शिरकत नहीं करते। न वो ये बताते हैं कि वो पार्टी की बागडोर संभालना चाहते हैं न ही वो सरकार चलाने की मंशा जाहिर करते हैं।  राहुल आपातकाल की अधिनायकवादी विरासत से खुद को अलग नहीं करते। वो इंदिरा गांधी की जन्मशती वर्ष मनाने का रचनात्मक तरीका नहीं खोज पाए। राहुल मौजूदा सरकार के कामकाज की नियमित आलोचना को जिम्मा अपने सहयोगियों पर छोड़कर कांग्रेस और बीजेपी के बीच बुनियादी अंतर को उजागर करने पर ध्यान दे सकते हैं।

राहुल की अतिसक्रियता से कांग्रेस की कई खामियां केवल छुप सकती हैं दूर नहीं हो सकतीं। राहुल कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक ढांचे में सुधार लाने में विफल रहे हैं। हो सकता है इसकी वजह ये हो कि वो इस बात को लेकर स्पष्ट न हो कि पार्टी को किस दिशा में ले जाना है। राहुल कांग्रेस के अंदर के दो धड़ों के बीच चलने वाली रस्साकशी को दूर करने में भी विफल रहे हैं। एक धड़ा जो नई कांग्रेस बनाना चाहता और दूसरा धड़ा जो पारिवारिक संरक्षणवाद के साये तले ही जीना चाहता है।

राहुल के अंदर वैचारिक दुविधा दिखती है जिसकी वजह से वो एक सतत संदेश देने में विफल रहते हैं। राहुल सांगठनिक एंकर और किसी वैचारिक बीकन प्रकाशस्तम्भ के बिना ही काम करते प्रतीत होते हैं। ऐसे में मोदी-विरोध का प्रतीक बनने के लिए राहुल रहस्यमयी और खोखले लगते हैं।

राहुल ही की तरह उनकी पार्टी भी अक्षम प्रतीत होती है। किसी भी राजनीतिक दल  में नेतृत्व, संगठन, कार्यकर्ता और समान विचार वालों का नेटवर्क महत्वपूर्ण होते हैं। इन सभी क्षेत्रों में हर दल को अपनी उपस्थिति मौजूद करानी होती है। पिछले ढाई साल में कांग्रेस राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में इनमें से ज्यादातर मोर्चों पर लगभग अदृश्य रही है। कांग्रेस पार्टी इस समय पांच मोर्चों पर जूझ रही है जिस पर राहुल गांधी ने इस साल पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।

एक, वोट पाने के मामले में कांग्रेस लगातार फिसलती जा रही है। किसी भी राज्य में पार्टी ने वापसी को कोई लक्षण नहीं दिखाया है। न ही वो अपने मूल जनाधार को बचाने में सफल दिखी है। केवल 2014 के लोक सभा में मिली ऐतिहासिक हार ही नहीं पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु विधान सभा चुनावों में भी पार्टी ने गठबंधन किया जबकि उसका कोई लाभ नहीं होना था और जब असम में गठबंधन से लाभ हो सकता था तो उसने गठबंधन नहीं किया। बिहार में किया गया गठबंधन पिछले कुछ समय में कांग्रेस द्वारा लिया गया एकमात्र उचित फैसला है। यूपी और पंजाब में पार्टी का चुनाव अभियान भी रणनीति और मतदाताओं तक पहुंचने के मामले में अधूरा प्रतीत होता है।

दो, दिन राज्यो ंमें पार्टी सत्ता में रही है उनमें कांग्रेस का प्रदर्शन।  पिछले तीन सालों में जिन राज्यों में कांग्रेस ने सत्ता खोई वहां उसने खुद को प्रशासन में विफल पार्टी साबित किया है। अगले साल उत्तराखंड, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं और इन राज्यों में भी पार्टी की ऐसी ही छवि है।

तीन, संसद में पार्टी के प्रदर्शन को सकारात्मक मीडिया कवरेज नहीं मिला है। संसद में पार्टी के प्रदर्शन से ऐसा नहीं लगता कि वो नीतिगत मुद्दों पर कोई मानीखेज दखल दे सकती है। पिछले ढाई साल में कृषि संकट, आर्थिक मंदी, भारत-पाकिस्तान संबंध, जम्मू-कश्मीर में हालात बिगने और नोटबंदी जैसे अहम मुद्दे उठे। लेकिन कांग्रेस ने संसद ठप करने के अलावा इन मुद्दों पर कभी ठोस विपक्षी की भूमिका नहीं निभाई।

चार, कांग्रेस अपने जरजर ढांचे की वजह से सड़कों पर प्रदर्शन करने में विफल रही। न तो स्थानीय स्तर पर न ही राष्ट्री स्तर पर। जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में नहीं है वहां किसी मुद्दे को लगातार उठाने का श्रेय उसे नहीं दिया जा सकता।

पांच, पार्टी का संगठनात्मक ढांचा बेहद कमजोर हो गया  है जिससे वो जनता से जुड़कर एक रचनात्मक नेटवर्क बना सके और जनभागीदारी वाले कार्यक्रमों में भूमिका निभा सके। पार्टी और आम जनता के बीच बढ़ती दूरी ज्यादा साफ दिखने लगी है। पार्टी गैर-राजनीतिक मंचों का भी इस्तेमाल करने में विफल रही है। पंजाब में नशे की समस्या को गैर-राजनीतिक मंचों से लगातार उठाया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

ऐसे में राहुल को समझना होगा कि किसी नेता का रिपोर्ट कार्ड बेहतर होने से जरूरी नहीं है कि उसकी पार्टी का प्रदर्शन सुधरेगा। राहुल गांधी पूरे साल मीडिया की सुर्खियों में भले रहे हों लेकिन उन्हें ये समझना होगा कि किसी नेता का रिपोर्ट कार्ड सुधरने से जरूरी नहीं है कि उसकी पार्टी का भी प्रदर्शन सुधरेगा।

(लेखक सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय, पुणे में राजनीतिक विज्ञान पढ़ाते हैं और “स्टडीज इन इंडियन पॉलिटिक्स” के संपादक हैं।)