पिछले चार दिनों के भीतर घटी अमानवीयता की तीन घटनाओं ने सोचने पर बाध्य कर दिया है कि मृत्यु जैसे अतिसंवेदनशील विषय भी जीवन में संवेदनाएं खोते जा रहे हैं। ओडिशा के कालाहांडी के दाना मांझी की मृत पत्नी या बालासोर जिले की 80 वर्षीया विधवा सलमानी बेहरा का शव या मध्य प्रदेश के दमोह के रामसिंह लोधी की मृत 35 वर्षीय पत्नी मल्लीबाई हो। इन तीनों घटनाओं में समानताएं हैं। तीनों ही घटनाएं भारतीय ग्रामीण इलाकों के भोलेभाले ग्रामीणों के साथ घटी हैं जिनके लिए मृत्यु उनके अपनों के हमेशा के लिए साथ छोड़ जाने की वेदना और उनके मृत शरीर को परम्परागत ढंग से संस्कार किए जाने से अधिक और कुछ अर्थ नहीं रखती। मृत्यु के दस्तावेजीकरण के आधार पर संबंधित नियम कानूनों को न मानने की दलील देकर मांझी मामले में अस्पताल प्रशासन और 80 वर्षीय लाश को अकड़ता देख 1000 रुपये से अधिक खर्च न पाने की बाध्यता के चलते कूल्हे के पास से शव को तोड़ने के विकल्प के अलावा कुछ और इंतजाम न कर पाने की दलील से अधिकारी पाक साफ साबित हो जाते हैं। यहां तथाकथित नियमों और कानूनों ने इंसानियत को पराजित करने में कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ी।

वहीं दमोह की बस में बैठे लोगों के दिए निर्णय ने अचानक मरने पर मल्लीबाई के शव को उसके परिजनों के साथ निर्जन घने जंगल में उतारने में इंसानियत को जितनी निर्लज्जता के साथ निर्वस्त्र कर दिया, कि मानव कहलाना भी शर्मनाक हो गया है। मांझी की 12 वर्षीय और मल्लीबाई की पांच वर्षीय बेटी ने अपनी अपनी मां को खोया है। इससे अधिक वे और कुछ नहीं समझतीं। वे इतनी जागरुक समाज और परिवार की बेटियां नहीं हैं जो आक्रोश, क्रोध और प्रतिशोध के मायने भी जानती हों। वहीं हालत मांझी और रामसिंह लोधी की भी है। वे उन पर बन रहीं सरकारी योजनाओं के प्रति जागरुक नहीं हैं। मृत्यु प्रमाणपत्र, पोस्टमार्टम और परिनिर्वाण योजनाओं जैसे शब्द उनके शब्दकोष में हैं ही नहीं, तो वे उनके अर्थ क्या जानेंगे।

हम चंद्रयानों की उड़ानों और मंगल की सैरों के बाद भी आज से सौ साल पुराने भारत में ही कहीं ठहरे हुए हैं। ये वे ग्रामीण हैं जो मृत्यु का राजनीतिकरण नहीं जानते, अस्पतालों का भ्रष्टाचार नहीं समझते, न ही मानवता का दस्तावेजीकरण समझते हैं और न ही समझते हैं कि जो उनके साथ घटा वो न्यायिक नहीं था। राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग चाहे ऐसी घटनाओं पर स्वतः संज्ञान ले लें या कोई एनजीओ आगे आ जाए या कोई और विकल्प सामने आ जाए। सच तो यह है कि इन सामने आ गई घटनाओं और कितनी ही और ऐसी घट रहीं गैर-उजागर घटनाओं में एक पक्ष विभिन्न दलीलों, दस्तावेजों और तमाम सबूतों के बल पर न्याय अपने पक्ष में करवाकर स्वयं को उस घटना के प्रति उत्तरदायी न होने के बोझ से बाहर निकाल लेता है।

वहीं दूसरा पक्ष पारम्परिक मौन और लाचारी व बेबसी के अपने कवच में स्वयं को सिकोड़ लेता है। इस सबसे आहत वो मानव समाज हो रहा है, जो अपनी बदलती परिभाषाओं में अपने अस्तित्व को धीरे धीरे खोता जा रहा है। ऐसी योजनाओं और नियमों के बनाने के क्या अर्थ, जबकि जिनके लिए उनको बनाया गया है, उनका उपयोग वे ही समय पर न कर सकें। ऐसी अस्वस्थ मानसिकता पर चलकर मानवता, उसकी संवेदना और एक भावी स्वस्थ समाज की कल्पना बेमानी है।

  • डॉ. शुभ्रता मिश्रा स्‍वतंत्र लेखिका हैं। लेख में व्‍य‍क्‍त विचार लेखिका के निजी विचार हैं।