राजनीति अगर लोकतंत्र की देह है, तो शिक्षा उस देह में निहित आत्मा। शिक्षा का अर्थ हमारे समय में केवल स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, संस्थान और तरह-तरह की संस्थाओं से प्राप्त शिक्षा हो गया है। वह अब न परिवार, समाज, प्रकृति, पर्यावरण और आत्मार्जित अनुभवों से कट कर पाठ्यक्रमों और परीक्षाओं से प्राप्त प्रमाणपत्रों में समा गई है। अगर शिक्षा से एक सभ्य नागरिक समाज, एक शालीन और जिम्मेदार समाज का निर्माण होता है, तो प्रश्न है कि क्या ऐसा समाज हमारी शिक्षा ने रचा है? शिक्षा से राजनीति की जाती है, राजनीतिक और कभी-कभी हिंसक विवाद रचे जाते हैं, न कि संविधान की मर्यादा और लोकतंत्र में उदार विचार और संस्कार का समाज। यह कैसी शिक्षा है, जो उच्च से उच्च स्तर की उपाधि के बावजूद राजनीति में शालीनता खो देती है? किस पाठ्यक्रम या पाठ्यपुस्तक में ऐसा पाठ है, जो गुंडागर्दी, गाली गलौच, अश्लील शब्दावली, असंयमित बयान और हिंसा सिखाता हो?
लोकतंत्र दलगत राजनीति से रची जाने वाली श्रेष्ठ व्यवस्था है। राजनीति शास्त्र की शिक्षा में लोकतंत्र के आदर्श, नीतियां, जन-प्रतिनिधित्व, सत्ताओं के दायित्व तो पढ़ाए जाते हैं, लेकिन आदर्श और नीति के आधार पर कर्म और दायित्व के प्रति आस्था नहीं पढ़ाई जाती। सामान्य जन शिक्षा से इतना निडर क्यों नहीं बना कि वह पुलिस से डरने के बजाय पुलिस को अपना मददगार समझे, प्रशासन के दफ्तरों में फाइलों, अफसरों, कर्मचारियों से डरने के बजाय उनसे कह सके कि वे लोग सेवक हैं, शासक नहीं। क्या शिक्षा से जिस शक्तिकरण का दावा किया जाता है, वह शक्ति केवल कुछ राजनीतिक या समर्थ शासकों-प्रशासकों का सशक्तिकरण करती है, नागरिक या सामान्य जन का नहीं?
कुछ वर्षों से हमारे देश में एक नया राजनीतिक वातावरण जन्मा है। अब राजनीतिक संवाद की जगह ऐसा विवाद रचा जाता है, जिसमें शब्द-हिंसा से लेकर शारीरिक हिंसा हो जाती है। बहुत आश्चर्य और दुख तो तब होता है जब राष्ट्रीय स्तर के अत्यंत बौद्धिक और उच्च शिक्षा प्राप्त बड़े पदों पर रहे नेता तक ऐसे बयान देते हैं जो उनकी प्रतिष्ठा, शिक्षा के संस्कार, विचार और लोकतंत्र की मर्यादा के विपरीत होते हैं। राजनीति का यह कैसा खेल, जिसमें व्यक्ति के विरुद्ध तो हर दल या नेता उग्र और अमर्यादित भाषण दे देता है, लेकिन नीति और जनता के पक्ष में कोई नहीं बोलता। राजनीति अब व्यक्ति केंद्रित है, विचार केंद्रित नहीं।
विश्व के लगभग सभी बड़े शिक्षाविदों ने शिक्षा से चरित्र निर्माण की बात कही, गांधी ने तो हमारे अंदर के श्रेष्ठतम गुणों को प्रकाशित करने का मंत्र दिया, लेकिन हमारे अंदर शिक्षा से आखिर आए कौन से गुण? संविधान कहता है कि हमें समानता का मौलिक अधिकार है, जबकि समानता हमारे आचरण में न राजनीति ने पैदा की, न शिक्षा ने। संविधान कहता है कि हमारा लोकतंत्र धर्मनिरपेक्ष है। कैसी धर्मनिरपेक्षता? शिक्षा से क्या सचमुच धर्मनिरपेक्षता का समाज बना? शिक्षा ने किस क्रियाशील धर्म का आचरण दिया? धर्म तो राजनीति में अधर्म हो गया है और शिक्षा, अशिक्षा।
पाठ्यक्रम में अर्थशास्त्र भी है। अर्थ का तो शिक्षा ने ऐसा अनर्थ कर दिया कि सरकारी विद्यालय दुर्भिक्ष-पीड़ित हो गए, उपेक्षाओं और अनदेखी से अपनी शैक्षिक चमक ही खो बैठे और एक अमीरतंत्र का अर्थशास्त्र आ गया, जिसने सिर्फ मालदारों की शिक्षा को ऊंची फीस के ठेके पर ले लिया और गरीबों को गरीबी में जीते रह कर मालदारों के मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया। हम इतिहास पढ़ाते हैं। क्या इतिहास से युद्धों की हार-जीत के अलावा किसी प्रकार के प्रेम, सद्भाव और एकता का नया इतिहास बना? विज्ञान अब केवल उच्च संस्थानों का प्रयोग-विषय कम और पद विषय ज्यादा हो गया है। कामर्स का अर्थ अब बाजारवाद, भूमंडलवाद, उपभोक्तावाद, मॉल और बिग बाजारों, ऑनलाइन व्यापार तो हो गया, लेकिन इस कारण प्याज जैसा गरीब-नवाज खाद्य अब अमीरों की कोठी में कैद हो गया। क्या अक्षर-गिनती ज्ञान ही शिक्षा है, क्या अच्छे नागरिक का निर्माण शिक्षा नहीं?
ऐसा नहीं कि शिक्षा ने कुछ नहीं दिया और स्कूल कॉलेज-विश्वविद्यालय सब बेकार हैं, मगर जितना और जैसा होना चाहिए था वैसा और उतना नहीं हुआ। हमने जितना युद्धों और हथियारों पर खर्च किया, उतना शिक्षा पर किया होता तो सारी दुनिया नि:शस्त्र होकर शांति में सांस लेती। एक बंदूक की कीमत अगर एक ग्रामीण प्राइमरी स्कूल के भवन के बराबर है, एक टैंक, बख्तरबंद गाड़ी, एक तोप और उनके गोलाबारूद की कीमत अगर अनेक हायर सेकंडरी स्कूलों के निर्माण के बराबर है और एक जलपोत और युद्धक विमान की कीमत अगर दो-चार विश्वविद्यालयों की स्थापना के बराबर है, तो कई देशों की तीस-चालीस प्रतिशत पूंजी केवल हथियारों और युद्धों के डर पर खर्च की जाती है, वह शिक्षा पर खर्च करके क्या सारी दुनिया को युद्धोन्माद से बचाया नहीं जा सकता था?
शिक्षा हो, धर्म हो, संत-महापुरुष हों, शिक्षाविद और वैज्ञानिक हों, देश का चरित्र-निर्माण शायद ये नहीं करते।
सच पूछा जाए तो देश का चरित्र राजनीति और नेता बनाते हैं। अगर वे पवित्र मन से और पूर्ण निष्ठा से अपने शिक्षा का जनतंत्र बनाना चाहते हैं तो उनकी पवित्रता से प्रशासन पवित्र होगा, शासन पवित्र होगा और जनता के मन में ऐसी राजनीति और नेताओं के प्रति सम्मान बढ़ेगा और एक शिक्षित लोकतंत्र, सभ्य, शालीन और सक्रिय जन का लोकतंत्र होगा। शिक्षा का इक्कीसवीं सदी के दो दशक बाद यह क्या हश्र है कि आग कमाने का पाठ पढ़ कर आग लगाने का प्रयोग हो रहा है, राष्ट्रीय संपति की सुरक्षा के बजाय, उसका विनाश किया जा रहा है। विरोध की राजनीति जरूरी है, मगर विनाश की राजनीति से क्या सत्ता निरंकुश नहीं हो जाएगी? भ्रष्टाचार तो न शिक्षा से मिटा, न नेताओ से। दंड के तमाम प्रावधानों के बावजूद अपराध बढ़े हैं, यहां तक कि शिक्षा-परिसरों में भी हिंसक अपराध हो रहे हैं।
शैक्षिक भ्रष्टाचार को देखते हुए सोचना पड़ता है कि शिक्षा क्या भ्रष्ट जीवन जीने की प्रणाली बन कर रह गई है। कहा तो यह भी जाने लगा है कि रिश्वत लेते पकड़े जाओ और रिश्वत देकर छूट जाओ। चाहिए इतना कि रिश्वत की यह दफ्तरी तहजीब बदले। भ्रष्टाचार के प्रति दिन अनेक दोषी पकड़े जाते हैं वर्षों मुकदमे चलते हैं। क्या मोबाइल कोर्ट अपराधी को त्वरित सुनवाई से सजा नहीं दे सकती? कानून हैं तो उन्हें सख्ती से पालन भी कराना जरूरी है। अगर शिक्षा से नियम, कानून, संविधान, लोकतंत्र, सत्ता सभी को प्रभावशाली न बनाया गया तो शिक्षा और शैक्षिक संस्थाएं राजनीति के कंधों पर सवार होकर शिक्षा का अपराधीकरण कर देंगी।
भारत में शिक्षा की दुर्दशा देख कर यह अवश्य लगता है कि अवतारी महापुरुषों और महान गं्रथों के देश की शिक्षा में कोई न कोई कमी जरूर है। ऐसी क्या कमी है, इस पर शिक्षा नीति निर्माताओं, सत्ताओं और संगठनों को गंभीर विचार करना होगा, वरना कमियों की शिक्षा एक दिन केवल हिंसा और अपराधों का पाठयक्रम बन कर रह जाएगी।