डॉ. वीर सिंह
स्वर्गीय सुंदरलाल बहुगुणा कहते थे कि मनुष्य ने जब पहली बार हल चलाया था तो उसने उसी दिन अपने विनाश की कहानी लिख दी थी। बात अटपटी-सी लगती है, लेकिन इसमें एक गहरा दर्शन छिपा है, और सुदीर्घ भविष्य का सत्य भी। जब हल नहीं चला था, अर्थात जब खेती पर हमारा जीवन अवलम्बित नहीं था, तब हमारे लिए हजारों पेड़-पौधे थे जिनसे हम अपना भोजन लेते थे। जड़ें, तने, पत्तियां, कलियां, फूल, फल, बीज, शहद और इसी तरह के नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ हमें अपने आस-पास के परिवेश से प्राप्त होते थे, और वह भी बिना हाड-तोड़ परिश्रम के तथा बिलकुल निशुल्क।

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यह वर्ष एक चौंकाने वाला समाचार लाया है। वह यह कि विश्व भर में खाद्य वस्तुएं महंगी हो गईं हैं। बात इतनी-सी साधारण नहीं है। हम शनैः शनैः खाद्य असुरक्षा की ओर बढ़ रहे हैं। और इस असुरक्षा की जड़ें हमारी खेती में हैं, हल चलाकर भोजन पैदा करने वाली खेती में। और जैसे-जैसे खेती का आधुनिकीकरण होता जा रहा है, वैसे-वैसे ही खाद्य असुरक्षा अपने पैर पसार रही है। इस खाद्य असुरक्षा में समाहित हैं कुपोषण, कुपोषण-जनित रोग और भुखमरी। भूख पेटों में नहीं होती, खेतों में बोई जाती है।

धरती पर सभी जीवधारियों को उनका भोजन उनके परिवेश से मिल जाता है। केवल मनुष्य के भोजन का मोल लगा है। खाने-पीने की हर वस्तु का मूल्य है, क्यों कि मानव अपना भोजन स्वयं उगाता है, और वह भी लाखों जीव-जंतुओं के परिवेश को उजाड़ कर, अर्थात वन काट कर, वन्यजीवन उजाड़ कर और नंगी धरती का सीना फाड़ कर। वह फसलों को पानी देने के लिए कुँए खोदता है, भूमिगत जल को बाहर खींचता है या नदियों का पानी मोड़ कर खेतों की और ले आता है। फसलों को कीट-पतंगों और रोगों से बचाने के लिए जीवनाशी रसायन छिड़कता है। उसे उस मिट्टी पर विश्वास नहीं रह गया जिस पर विशाल वृक्ष खड़े रहते थे और उसके आस-पास असंख्य प्रकार के पौधे पनपते थे। अब अनाज बोकर वह पहले मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों से पोषित करता है, फिर मिट्टी फसलों को पोषित करती है। फिर, उसकी फसलों के उत्पाद का मूल्य क्यों नहीं होगा? अगर भोजन का मोल है तो वह सबके लिए सुलभ कैसे हो सकता है? और अगर सुलभ हो गया तो, सबको वे सारे तत्व कैसे मिल सकते हैं जिनकी उनके शारीरिक, बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक, और भावनात्मक विकास के लिए आवश्यकता है? क्यों कि जितने आवश्यक भोजन के तत्त्व, उतना ही अधिक उनका मोल। निष्कर्ष निकलता है कि खाद्य सुरक्षा पैसे का खेल है। पैसे के आगे ही नाचती है खाद्य सुरक्षा। पैसा बाजार का ‘राजा’ है। खाद्य सुरक्षा खेतों-फसलों से नहीं, बाजार से मिलती है। खेत-खेती तो बाजार के विस्तृत अंग हैं।

बाजार में बीज, उर्वरक, जीवनाशी रसायन और कृषि उपकरणों से सम्बंधित बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालित और बाजार में जड़ें जमाए एवं पैसे के बल पर बिकने वाली खाद्य सुरक्षा न तो सम्पोषित है, न सुदीर्घ भविष्य तक साथ देने वाली और न ही सबको बराबर अधिकार देने वाली। कोई भी दुर्भिक्ष, जैसे सूखा-बाढ़, प्रतिकूल जलवायु, अग्निकांड, कीट प्रकोप, फसल रोग आदि कभी भी तथाकथित खाद्य सुरक्षा प्रणाली की गर्दन मरोड़ सकता है। और यदि इनसे भी बच निकली तो वह जनसंख्या के बोझ तले दब जाएगी।

खाद्य सुरक्षा की प्राकृतिक, स्थायी और गहरी जड़ें धरती के पारिस्थितिकी तंत्रों में हैं और विश्व की सारी मानव सभ्यता को उसकी छतरी के नीचे लाने के लिए पारिस्थितिक, आर्थिक और राजनीतिक उपाय हैं। अनाज फसलों और उनमें से भी केवल तीन फसलों – गेहूं, चावल और मक्का – के वर्चस्व वाली खेती टिकाऊ नहीं है। यह प्रदूषण, रोग और जलवायु परिवर्तन पैदा करने वाली खेती है। यह जैव विविधता का हरण करने वाली खेती है। इस पर टिकी खाद्य सुरक्षा अस्थायी है और पर्यावरण विनाश की और ले जाती है। इसके विपरीत वृक्षों से जितने प्रकार के खाद्य पदार्थ मिलते हैं, उतने अनाज फसलों से नहीं।

प्राचीन काल से हम हजारों प्रकार के पौधों से अपना भोजन चुनते थे और पर्यावरण संतुलन जैसे मुद्दे कभी नहीं उठते थे। यह सही है कि हम पुनः अरण्य से प्राप्त खाद्य पदार्थों वाली व्यवस्था रातों-रात तैयार नहीं कर सकते। अभी वर्तमान कृषि प्रणाली की ही आवश्यकता होगी, मगर हम धीरे धीरे पर्यावरण संरक्षण-केंद्रित वृक्ष खेती की और बढ़ सकते हैं और इसका श्रीगणेश कृषि वानिकी प्रणाली विकसित कर किया जा सकता है। कृषि वानिकी (एग्रोफोरेस्ट्री) पहले से ही अस्तित्व में है, लेकिन उसे विश्वव्यापी विस्तार देने की आवश्यकता है। इसमें समय लगना स्वाभाविक है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ए ओ) के अनुसार 2050 तक विश्व की जनसंख्या 9.7 बिलियन हो जाएगी जिसे खिलाने के लिए 70 प्रतिशत अतिरिक्त भोजन की आवश्यकता होगी। उस समय गेहूं, चावल और मक्का के वर्चस्व वाली खेती विश्व भर की भोजन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके, संभव-सा नहीं लगता। इस शताब्दी के अंत तक धरती पर 12.2 बिलियन लोगों का वास होगा। तब भी सुदृढ़ कृषि वानिकी सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होगी।

कृषि वानिकी से मिट्टी, जल और जैव विविधता का संरक्षण होगा और साथ में वे सभी भोज्य पदार्थ मिलते रहेंगे जो चलताऊ कृषि तंत्र से भी मिलते हैं, और नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ देने वाले वृक्षों का चयन किया जाए तो आज के दैनंदिन भोजन से कहीं अधिक प्रचुर मात्रा में और कहीं बहुत पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन मिलेगा और समाज की खाद्य सुरक्षा का स्तर बढ़ेगा।

भूतल पर रहने वाले सभी जंतुओं और अधिकांश जलचरों का भोजन जिस प्रक्रिया से बनता है उसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। मनुष्य और अन्य जंतुओं की खाद्य सुरक्षा का आधार प्रकाश संश्लेषण ही है। हरितपर्ण वाले पौधे अपना भोजन सीधे-सीधे प्रकाश संश्लेषण के बल पर लेते हैं, और हम सब उस भोजन पर निर्भर हैं और हमारी खाद्य सुरक्षा भी उस भोजन पर निर्भर है जो पौधे अपने लिए बनाते हैं। इस प्रकार जितनी विराटता प्रकाश संश्लेषण की होगी, उतना ही ऊंचा स्तर हमारी खाद्य सुरक्षा का होगा।

उथली जड़ों वाली और मिट्टी- जल-जैव विविधता का क्षरण करने वाली आधुनिक कृषि भी प्रकश संश्लेषण के माध्यम से ही खाद्योत्पादन करती है। लेकिन कृषि फसलों की प्रकाश संश्लेषण की क्षमताएं प्राकृतिक वनों की अपेक्षा काफी कम है और फसल पकने से समाप्त हुए पर्णहरित के कारण और फसल कटाई के बाद प्रकाश संश्लेषण शून्य हो जाता है। कृषि वानिकी से प्रकाश संश्लेषण की क्षमताओं में तीव्र वृद्धि होगी, और फलस्वरूप खद्योत्पादन में भी अभिवृद्धि होगी।

प्रकाश संश्लेषण और जलवायु नियामन का भी सीधा सम्बन्ध है। प्रकाश संश्लेषण से वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड पौधों के द्रव्यमान और वहां से मिट्टी में समाहित हो जाती है, जिससे वातावरण में प्रमुख ग्रीनहाउस गैस सीमित मात्रा में रहती है और जलवायु चक्र अपने संतुलन में रहता है। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए कृषि का योगदान एक-तिहाई के आस-पास है। कृषि-वानिकी पद्वतियों के विकास से हम उस खाद्योत्पादन प्रणाली को सुदृढ़ कर सकते है जिसे “क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर” कहते हैं।

हमारा भोजन कैसा है, उसके उत्पादन का हमारी पारिस्थितिकी पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इसका सम्बन्ध हमारे भविष्य से है। प्रफुल्लताओं से सराबोर भविष्य आज के पारिस्थितिक आधार के स्वास्थ्य पर निर्भर है। पारिस्थितिक तंत्रों की प्रकाश संश्लेषण क्षमताएं अधिकतम कर हम खाद्य सुरक्षा ही नहीं, खाद्य प्रभुसत्ता के मोर्चे पर सुदृढ़ खड़े होंगे, अपने प्रफुल्लताओं से भरे भविष्य में प्रवेश करने के लिए आतुर।

खाद्य सुरक्षा को बल देने के लिए समाज का आर्थिक सुदृढ़ीकरण बहुत आवश्यक है। आर्थिक सुदृढ़ीकरण को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है। पारिस्थितिक और आर्थिक पहलू भिन्न नहीं हैं। बहुगुणा जी का कथन “पारिस्थितिकी ही स्थाई आर्थिकी है” मानव जीवन का एक सनातन सत्य है। समाजों का आर्थिक सशक्तिकरण पारिस्थितिक विकास की पृष्ठभूमि पर खड़ा हो। मानव जीवन का कोई भी पहलू राजनीति से विलग नहीं है। हमारी खेती में बीज से लेकर रोटी तक राजनीति कई दांव-पेच खेलती है। वानिकी, कृषि वानिकी, वन्यजीव, खाद्य वितरण, खाद्य सुरक्षा कवच सब राजनीति के अधीन हैं। इसलिए अक्षय विकास का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ऐसी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीतियां तैयार हों जिनसे घायल धरती के घावों को भरा जा सके, मानव सभ्यता के लिए हर्षोल्लास से भरपूर भविष्य सृजित किया जा सके।

(लेखक जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक हैं)