सात चरणों में हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। 403 सदस्यों वाले विधान सभा में 312 सीटों के साथ भाजपा न सिर्फ बड़ी पार्टी बनकर उभरी है बल्कि 325 सीटों के साथ भाजपा गठबंधन ने यूपी में जीत की अभूतपूर्व कहानी लिखी है। इसके साथ ही 15 सालों के वनवास के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा अब सरकार बनाने जा रही है लेकिन एक्सप्रेस-वे बनाने, समाजवादी एंबुलेंस दौड़ाने, 100 नंबर हेल्पलाइन स्थापना करने सरीखे अन्य विकास की बातें करने वाले अखिलेश यादव को 47 सीटों पर ही सिमटना पड़ा। उनके युवा साथी राहुल गांधी को भी सिर्फ सात सीटें मिलीं। ईवीएम में छेड़खानी की बात करने वाली मायावती का हाथी 19 सीटों पर ही कब्जा कर सका। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि घर-परिवार से दो-दो हाथ करने के बाद भी यूपी के बबुआ यानी अखिलेश यादव को सूबे की जनता ने क्यों नकार दिया? क्या राहुल से दोस्ती करना उन्हें महंगा पड़ गया?
समाजवादी पार्टी में पारिवारिक घमासान: अखिलेश की हार की वजहें उनके घर में ही छिपी है। अखिलेश विधान सभा चुनाव हार रहे हैं इसका स्पष्ट संकेत भी चुनाव के आखिरी चरण से ठीक एक दिन पहले उनके घर से ही निकला जब उनकी मां साधना गुप्ता ने मीडिया को ये बयान दिया कि नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव और उनका अपमान हुआ है। साधना गुप्ता ने शिवपाल के प्रति भी हमदर्दी दिखाते हुए कहा कि अखिलेश के मन में किसी ने जहर भरा है। चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी का शुरू हुआ घमासान चुनावी क्षेत्र तक जा पहुंचा। खासकर इटावा-सैफई में शिवपाल समर्थकों ने खुले तौर पर अखिलेश के उम्मीदवारों को हराने के लिए कड़ी मेहनत की। अखिलेश ने कई शिवपाल समर्थकों का टिकट काट दिया था। मतदाताओं के बीच असमंजस की स्थिति बनी रही।
मुलायम का चुनाव प्रचार से अलग रहना: मुलायम सिंह यादव भी सपा के हार के कारणों की एक बड़ी वजह हैं। पार्टी अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद उन्होंने हमेशा अपने बयान बदले। कभी अखिलेश के समर्थन में तो कभी उनके विरोध में बयान दिया। इसके बाद उन्होंने चुनाव प्रचार से अपने को करीब-करीब दूर ही रखा। उन्होंने सिर्फ शिवपाल यादव और छोटी बहू अर्पणा यादव के समर्थन में ही चुनावी सभा की। इसके अलावा उन्होंने अपने को चुनावी मैदान से अलग रखा, जबकि जमीनी स्तर पर न केवल पार्टी को खड़ा करने में बल्कि सामाजिक संगठन, और यादव-मुस्लिम समीकरण बनाने में भी मुलायम ने अपनी जिंदगी लगा दी लेकिन ऐन वक्त पर उनका चुनाव प्रचार से मुंह मोड़ना लोगों को खल गया। खासकर मुस्लिम समुदाय को। ऐसे में जनता में यह संदेश गया कि मुलायम नहीं चाहते कि अखिलेश की जीत हो।
सरकार का एंटी इन्कमबेंशी फैक्टर: उत्तर प्रदेश में साढ़े चार साल तक साढ़े चार मुख्यमंत्री का शासन रहा। पांचवें साल के आखिरी दौर में अखिलेश ने सत्ता अपने हाथों में की लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और लोगों में कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, नौकरियों में भाई-भतीजावाद और जातिवाद को लेकर अखिलेश यादव के खिलाफ संदेश जा चुका था। मथुरा के जवाहर बाग कांड में शिवपाल यादव की भूमिका, गायत्री प्रजापति पर अवैध खनन के आरोप कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिसने अखिलेश की छवि को धूमिल करने में अहम भूमिका निभाई और चुनाव के वक्त लोगों का भाजपा की ओर ध्रुवीकरण करने में मदद किया।
मुस्लिम वोटों का विभाजन: राज्य में करीब 16 फीसदी वोट बैंक पर कब्जा रखने वाले मुस्लिम मतदाताओं का विखराव हुआ। मुलायम का खुले तौर पर अखिलेश के समर्थन में खड़ा नहीं होने से अल्पसंख्यक मतदाताओं में गलत संदेश गया। लिहाजा, सपा का पारंपरिक मुस्लिम वोट तितर-बितर हो गया। इसके साथ ही कुछ प्रमुख मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा सपा का विरोध करना और मायावती के समर्थन में प्रचार करने से भी मुस्लिम वोट को सपा-बसपा में बिखराव हुआ। बसपा ने 100 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर वोट अपनी ओर खींचने की कोशिश की। ओवैसी भी कूद पड़े, उनसे भी कुछ नुकसान हुआ। भाजपा ने भी कुछ इलाकों में मुस्लिमों को अपने पक्ष में लामबंद किया।
चुनाव प्रचार की रणनीति का अभाव: भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी का चुनाव प्रचार अभियान थकाऊ और उबाऊ सा रहा। भाजपा की तरफ से जहां खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ताबड़तोड़ करीब दो दर्जन रैलियां कीं। सभी मंत्रियों और सांसदों ने करीब 500 से ज्यादा सभाएं की। प्रधानमंत्री का काशी में खुद तीन दिनों तक रुकना। भाजपा अध्यक्ष का पूरी टीम के साथ राज्य का दौरा करना और चुनावी सभाएं करना। इन सभाओं में मोदी सरकार की योजनाओं का बखान करना और उसे जनता से जोड़ना अहम रहा। पीएम मोदी का जनता से सीधे संवाद का तरीका लोगों को पसंद आया। जबकि सपा की तरफ से अखिलेश और उनकी पत्नी डिंपल यादव के अलाव कोई स्टार प्रचारक जमीन पर नहीं उतरा। न तो उनके भाषणों में मोदी जैसी धार थी और न ही जनता को जोड़ने वाले संवाद। तकनीकि तौर पर भी भाजपा ने सपा से कई कदम आगे चलकर चुनावी प्रचार किया।
कांग्रेस के साथ काफी विलंब से गठबंधन करना, कांग्रेस के खिलाफ बयानबाजी, राहुल की खाट सभाओं और किसान सम्मेलनों, पद यात्रा में सपा के खिलाफ लगातार राहुल गांधी का बयान, रीता बहुगुणा जैसे कांग्रेसी नेताओं का भाजपा में जाना और अंत समय में दोनों युवा नेताओं के मिलन के बावजूद जनता की नब्ज का सही समय पर सही आकलन न करना भी अखिलेश यादव के हार के कारणों में शामिल है।