जीएसटी विधेयक यानी वस्तु एवं सेवा कर विधेयक का पहला दौर समाप्त हो गया। इसमें हर कोई जीता। अगला दौर नवंबर 2016 में संसद के शीतकालीन सत्र में आरंभ होगा। अहम मसले अब भी विचारणीय हैं, और मैं चाहता हूं कि उन पर बहस शुरू हो। इस आम धारणा के विपरीत कि केंद्र सरकार ने राज्यों के वित्तमंत्रियों को राजी कर लिया होगा, सच तो यह है कि विवादों का निपटारा कैसे होगा यह उस विधेयक से तय नहीं हो पाया है जिसे पिछले दिनों राज्यसभा ने पारित किया। संविधान का अनुच्छेद 131 राज्यों को यह इजाजत देता है कि राज्यों के बीच, या केंद्र और किसी एक राज्य के बीच, या केंद्र और एक से अधिक राज्यों के बीच, विवाद की सूरत में वे सर्वोच्च अदालत की शरण में जा सकते हैं। इसके अलावा, अनुच्छेद 32, 226 और 227 जैसे ज्यादा जाने-पहचाने प्रावधान भी हैं।
मेरे खयाल से, जीएसटी परिषद द्वारा विवाद निपटारा तंत्र गठित करने का प्रावधान संवैधानिक तौर पर संदेहास्पद है। यह मान कर चला गया है कि यह तंत्र दो राज्यों के बीच के झगड़े को सुलझा सकता है। लेकिन अगर एक राज्य फैसले से असंतुष्ट रहता है, तो उसे उस फैसले के खिलाफ याचिका दाखिल करने से कोई रोक नहीं सकता। यह मान लेना कि यह तंत्र, विवाद निपटारे का अंतिम प्राधिकार होगा, संवैधानिक प्रावधानों तथा ‘न्यायिक सत्ता’ के स्वरूप के बारे में कमसमझी को जाहिर करता है।
मानक दर
और भी अहम मसला जीएसटी की ‘मानक दर’ का है। कर की दर किसी भी कर-कानून की सबसे खास बात होती है। किसी भी कर कानून को बताना चाहिए कि दर क्या होगी (जैसे सेवा कर कानून), या अधिकतम दर की सीमा बांधनी चाहिए जिसका उल्लंघन कोई सरकार न कर सके (जैसे उत्पाद शुल्क कानून)। मानक दर (मान लें एक्स) ज्यादातर वस्तुओं व सेवाओं पर लागू होगी। कुछ वस्तुओं तथा सेवाओं पर शून्य दर होगी; कुछ वस्तुओं व सेवाओं पर कर की दर कम होगी (एक्स-); और कुछ ऐसी भी वस्तुएं तथा सेवाएं होंगी जिन पर कर की दर अधिक हो (एक्स+)।
देश के सामने यह सवाल है कि मानक दर क्या हो। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार की अध्यक्षता वाली समिति ने गंभीर आर्थिक तर्कों पर आधारित एक बढ़िया रिपोर्ट सौंपी है। (देखें बॉक्स) वित्तमंत्री ने इस रिपोर्ट को खारिज नहीं किया है, उन्होंने केवल दो बातों को लेकर सचेत किया है:
* एक यह कि रिपोर्ट ने 2013-14 के बाद लगाए गए उप-करों को हिसाब में नहीं लिया है।
* दूसरे, इसने राज्यों को पांच साल तक संभावित नुकसान की भरपाई को भी हिसाब में नहीं लिया है, जिस पर केंद्र सरकार रजामंदी दे चुकी है।
मेरे खयाल से, दोनों में से कोई भी मुद््दा रिपोर्ट के निष्कर्षों को प्रभावित नहीं करता। उप-कर राजस्व-तटस्थ-दर (रेवेन्यू न्यूट्रल रेट- आरएनआर) में एक फीसद का इजाफा कर सकते हैं, लेकिन रिपोर्ट ने जो मानक दर सुझाया है वह आरएनआर से ढाई से तीन फीसद अधिक है। संभावित नुकसान की भरपाई की बाबत रिपोर्ट साफ-साफ कहती है, ‘‘कुल मिलाकर, राज्यों को राजस्व का कोई नुकसान होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि यह आरएनआर के हिसाब की एक मूलभूत बात है। अर्थात राज्यों के लिए आरएनआर ठीक से तय हो, तो राज्यों को कुल मिलाकर उतना ही राजस्व प्राप्त होगा जितना पहले हासिल होता था (पैरा 5.94)।’’
जनता पर मार
अगर सरकार यह मानती है कि जीएसटी एक ज्यादा कारगर टैक्स है, जिससे राजस्व बढ़ेगा और टैक्स-चोरी कम होगी, तो उसे कुछ जोखिम उठाने के लिए जरूर तैयार होना चाहिए। ये जोखिम उठाने का यह मतलब हरगिज नहीं होना चाहिए कि लोगों पर जीएसटी की ऊंची दर की मार पड़े, जो कि अप्रत्यक्ष कर होने के कारण वैसे भी एक प्रतिगामी कर है। जीएसटी के विचार को जीडीपी वृद्धि में मददगार और जन-हितैषी कह कर बढ़ाया गया है। इसकी मानक दर ऊंची होगी, तो उसे जन-विरोधी कहा जाएगा।
लिहाजा, निस्संदेह सबसे निर्णायक सवाल जीएसटी के क्रियान्वयन का है। दो और विधेयक संसद से पारित होने हैं। हर राज्य को जीएसटी कानून पारित करना होगा। डिजिटल आधार- जीएसटी नेटवर्क- बनाना होगा, जो परखा हुआ और क्रियान्वयन के लायक हो। जीएसटी परिषद को दरों पर सहमति बनानी होगी। उद्योग और व्यापार जगत को नई व्यवस्था के लिए तैयार होना पड़ेगा। ऐसे में, जीएसटी के क्रियान्वयन की तारीख की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
समझदारी और नासमझी
जीएसटी का सुचारु कार्यान्वयन तभी हो सकता है अगर सरकार संवाद और सहमति बनाने के रास्ते पर कायम रहे। विपक्ष से किनारा करने या राज्यसभा की उपेक्षा करने का कोई भी प्रयास जीएसटी के क्रियान्वयन को खतरे में ही डालेगा। सरकार की मंशा की पहली परीक्षा होगी जब केंद्रीय-जीएसटी और इंटीग्रेटेड-जीएसटी विधेयक संसद में आएंगे। क्या वे विधेयक सार्थक बहस और राज्यसभा में मतदान से बचने के लिए धन विधेयक के रूप में पेश किए जाएंगे, या वित्त विधेयक के रूप में, जैसी कि सभी गैर-भाजपा पार्टियों की मांग है?
3 अगस्त 2016 को राजनीतिक बुद्धिमानी की जीत हुई। आर्थिक नासमझी या दंभ से जीएसटी लड़खड़ा सकता है। लेकिन मैं जीएसटी को लेकर आशान्वित हूं।

राजस्व तटस्थ दर (आरएनआर) और दरों के ढांचे पर रिपोर्ट की राय
5.22 इन चीजों को शामिल करने पर आरएनआर की एक ही दर, पंद्रह फीसद बैठती है। हालांकि हम मानते हैं कि हमने जो हिसाब लगाया है उसमें कुछ अनिश्चितता हो सकती है। दूसरी सूरत यह होगी कि हमने जो चीजें इसमें समायोजित की हैं, हो सकता है वे सभी वैध न हों। ऐसी स्थिति में, आरएनआर 15.5 फीसद होगा।
5.23 इसलिए आरएनआर की बाबत हमारी सिफारिश पंद्रह से साढ़े पंद्रह फीसद के बीच है, पर हमारा प्रबल आग्रह पंद्रह फीसद पर है।
6.5 बढ़ते अंतरराष्ट्रीय चलन और क्रियान्वयन तथा प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखते हुए भारत को मध्यावधि लक्ष्य के तौर पर एक-दर के ढांचे की तरफ कदम बढ़ाना चाहिए। तब तक के लिए हमारी सिफारिश तीन दरों के ढांचे की है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मानक दर आरएनआर के करीब रहे, अधिकतम संभव कर-आधार पर मानक दर लागू की जानी चाहिए। समिति चाहेगी कि सत्रह और अठारह फीसद के बीच की मानक दरों के साथ निचली दरें बारह फीसद के आसपास हों (केंद्र और राज्य)।