मनोज मिश्र : आप जद (एकी) से सांसद बने। अभी जो राजनीतिक स्थितियां हैं, उसमें कैसे तालमेल करके आगे बढ़ेंगे?
हरिवंश नारायण सिंह : लोकतंत्र को बेहतर बनाने में सारी पार्टियों की समान भूमिका है। यह बहुत बड़ा देश है। अलग-अलग संस्कृतियों का देश है। अलग-अलग भाषाओं का देश है। अलग-अलग विचारधारा की पार्टियां हैं। हम सबको मिल कर साथ चलना है। इसमें मार्गदर्शक सूक्त क्या हो सकता है? इसके लिए अटल जी का एक कथन उल्लेख करना चाहूंगा। 2004 में जब एनडीए चुनाव हार गया, भाजपा को कामयाबी नहीं मिली, तो अटलजी ने कहा कि हां, मैं हार गया, देश का लोकतंत्र जीत गया। यही देश की ताकत है। तो, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में मैं किसी अलग दल से आया, एनडीए का प्रत्याशी बना, यह सही है कि उसमें एनडीए के सभी घटक दल अधिक संख्या में हैं और संसदीय राजनीति में गणित क्या भूमिका निभाता है, आप सभी जानते हैं। बहुमत बड़ी भूमिका अदा करता है। पर जब एक बार व्यवस्था में आ जाते हैं, तो बाकी सारी चीजें पीछे छूट जाती हैं। अपकी जिम्मेदारी पूरे समाज, पूरे देश, सारी पार्टियों की हो जाती है। इसलिए मेरी जिम्मेदारी उस रूप में है। अब सवाल है कि इसमें हम कैसे सकारात्मक भूमिका निभाएं। मुझे लगता है कि आज यह मुल्क जहां खड़ा है, उसमें कई ऐसी चीजें हैं, जिसके बारे में जब मैं बात करता हूं तो सारे दलों में एक आम सहमति पाता हूं कि यह चिंता का विषय उनके लिए है। जैसे शिक्षा का मामला है। दुनिया बदल रही है, चीजें बदल रही हैं। तो, चीजें अपने ढंग से बनेंगी। संसद के लोगों को, पार्टियों को सोचना होगा कि इन स्थितियों में किधर जाएं। और इसे समझने का रास्ता गांधी का रास्ता है।

मुकेश भारद्वाज : आपने कई बिंदुओं की तरफ एक साथ इशारा कर दिया। आपको क्या लगता है कि इन सबका हल कहां से निकलेगा? राजनीतिक पार्टियां निकालेंगी या कोई और जरिया है? राजनीतिक पार्टियों से लोगों को उम्मीद अब बहुत रही नहीं।
’यह सिर्फ कुछ वर्षों का हाल नहीं है संसद में। देश के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकार बीजी वर्गीज ने लिखा है कि जब वे संसद की रिपोर्टिंग किया करते थे, तब संसद में सांसदों की बहसें सुनना एक प्रकार की शिक्षा होती थी। नेता मुद्दों पर कानूनी और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन करके आते थे और समस्याओं का समाधान भी बताया करते थे। राज्यसभा में सभापति और सदस्यों के बीच वैसे ही बातें होती थीं, जैसे गुरु-शिष्य में होती हैं। उनमें परस्पर सम्मान का भाव होता था। यह तबकी बात है, जब हमारे देश में शिक्षा का स्तर आज की तरह ऊंचा नहीं था। ये चीजें धीरे-धीरे, खासकर तिहत्तर-चौहत्तर के बाद से बदलनी शुरू हो गर्इं। अब आज यह स्थिति हो गई है। संसद में राज्यसभा की कल्पना की गई थी कि वहां वे लोग आएंगे, जो चुनाव नहीं लड़ सकते, वे अपने क्षेत्र में विशिष्ट सोचने वाले होंगे, और जो कानून आएंगे, उन्हें बेहतर बनाएंगे। तो पुरानी राजनीति, जिसमें गरिमा थी, समझ थी, आपसी सद्भाव था, परस्पर सम्मान था, उसके खत्म होने की प्रक्रिया शुरू हो गई। तो, उस प्रक्रिया पर सबको मिल-बैठ कर सोचने की जरूरत है। मेरा सभी पार्टियों के नेताओं से संपर्क है और मैं पाता हूं कि सब इसे लेकर संजीदा हैं। पर कैसे माहौल बने, कौन सामने आए, कौन पहल करे, यह जरूर एक चुनौती है। कहीं न कहीं इसके लिए लोगों को तैयार करना होगा कि देश के सामने शिक्षा, जनसंख्या आदि संबंधी जो चुनौतियां हैं, उनसे पार पाने का क्या तरीका हो सकता है। हम सबको मिल कर सोचना पड़ेगा कि आगामी भारत हम कैसा बनाना चाहते हैं। हमने दुनिया में पूंजीवाद का रूप देखा, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का रूप देखा, जिसे कैपटलिज्म विथ ह्यूमन फेस कहा जाता है, उसका रूप देखा, लेकिन वे दुनिया में मुक्ति का रास्ता नहीं ला पाए। इसमें गांधीवाद और गांधी के आर्थिक विषयों पर सोच एकमात्र रास्ता है। इस पर दुनिया में कहीं चर्चा नहीं हुई। इस पर सभी दलों को सहमत होना पड़ेगा। हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ कर जाएंगे, इस पर विचार का एकमात्र रास्ता गांधी हैं। इस पर सभी दलों को आम सहमति बनानी चाहिए।

सूर्यनाथ सिंह : आज राज्यसभा की स्थिति यह हो गई है कि बौद्धिक लोगों की कमी होने की वजह से संवेदनशील मसलों पर बहसें वहां होने के बजाय उन पर फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय या मंत्रिमंडल की बैठक में किए जाने लगे हैं। क्या यह लोकतंत्र के लिए सही है?
’पहली बात तो यह कि संसद में लोग आते कहां से हैं? इसी समाज से। हम-आप ही उन्हें चुन रहे हैं। जिस प्रक्रिया की बात आप कर रहे हैं, वह पचहत्तर-अठहत्तर से ही शुरू हो गई थी। जो लक्षण आप बता रहे हैं, वे इकहत्तर से ही से दिखने लगे थे। मेरी रुचि उसका लक्षण गिनाने में नहीं, इस बात में है कि हम इसमें से रास्ता कैसे निकाल सकते हैं। गांधी के बाद इस देश का सामान्य आदमी कैसा हो, कैसे रहे, इसके लिए जो सारे राजनीतिक दल काम करते थे, वह बंद हो गया। हमारा देश और लोग कैसे हैं? सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों के अध्यापकों की तनख्वाहें आज लाखों में पहुंच गई हैं, पर उनके बच्चे नौवीं में पहुंच गए हैं, पर कक्षा तीन का गणित हल नहीं कर पा रहे हैं। इस बात पर बहस नहीं होती इस देश में। हम अपने घर में बैठे अपेक्षा करते हैं कि सरकार सड़क स्वर्ग-सा बना दे, सारी सुविधाएं अच्छी कर दे। पर देश के पास आमद कहां से आएगा। एक सौ तीस करोड़ की आबादी में लगभग अठहत्तर हजार लोग कहते हैं कि उनकी आमद एक करोड़ के आसपास है। चौंतीस लाख लोग कहते हैं कि उनकी आमदनी दस लाख से अधिक है। कोई टैक्स देने के लिए स्वयं आगे नहीं आता। मैंने पता किया कि इस देश का मोटे तौर पर खर्च क्या है, तो पता चला कि लगभग चौदह लाख करोड़ हमारी आमदनी है यानी राजस्व आता है और खर्च लगभग उन्नीस-बीस लाख करोड़ रुपए है। अब तक हमारे लिए गए कर्ज पर ब्याज लगभग पांच लाख करोड़ है। अब जरा सोचिए कि हमारी आमदनी हो चौदह रुपए और खर्च हो चौबीस-पच्चीस रुपए, तो कैसे गुजारा चलेगा! तो हमारे मध्यवर्ग का चरित्र यही है। हम सांसद लोग भी इसी वर्ग से आते हैं। पहले कहा जाता था कि जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा भी होती है। पर वह नियम बदल गया है- जैसी प्रजा होती है, राजा भी वैसा ही हो जाता है। आप देखेंगे कि इकहत्तर-बहत्तर के बाद जो देश की चुनौतीपूर्ण समस्याओं पर आम सहमति का वातावरण बनाने की कोशिश होती थी, वह खत्म होती गई और अब राजनीति अहम होती गई है।

अनिल बंसल : राजनीति अहम होती गई है या सत्ता?
’राजनीति और सत्ता तो एक-दूसरे के पर्याय ही हैं। राजनीति ही चीजों को बदलेगी, पर राजनीति में जो चीजें इकहत्तर-बहत्तर से चल रही हैं, उसको कहीं न कहीं बदलने की जरूरत है। उसे बदलने में मुझे लगता है कि हमारे बौद्धिकों, हमारे अखबारों की बड़ी भूमिका है। मगर हालत यह है कि हम धर्म और जाति से राजनीति निकालने की कोशिश करते हैं। देश की अर्थव्यवस्था पर अपनी भाषा में बात नहीं करना चाहते। जबकि दुनिया के तमाम बड़े चिंतकों ने अपनी भाषा में अर्थव्यवस्था के बारे में बात की है। आज हमारे यहां कितने लोग हैं, जो आम बोलचाल की भाषा में अर्थव्यवस्था के बारे में बताने का प्रयास करते हैं? यह हमें सोचना चाहिए। मुझे लगता है कि समाज में भी इन बातों पर गौर करना बंद कर दिया गया है, उसी का असर है कि आज राजनीति में भी इन मुद्दों पर गौर नहीं किया जाता।

अजय पांडेय : आज की स्थिति में गांधी की प्रासंगिकता कैसे स्थापित की जा सकती है?
’मैं सिर्फ एक निवेदन करना चाहता हूं। हम गांधी की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं और उनकी प्रासंगिकता दुनिया के तमाम आर्थिक विशेषज्ञ स्वीकार कर चुके हैं, तो आज देश के लोगों को गांधी के बारे में बताया जाए। समस्याओं से परेशान हमारा समाज निदान चाहता है, वह विवशता में गांधी की तरफ लौटेगा।

दीपक रस्तोगी : आज स्थिति ऐसी कैसे हो गई कि अर्थव्यवस्था क्रोनी पूंजीवाद की तरफ चली गई?
’पूरा देश जानता है कि यह अर्थनीति कबसे शुरू हुई है। 1991 से शुरू हुई है। चंद्रशेखर ने संसद में कहा था कि बाजार दो विश्वयुद्धों का दोषी है। बाजार और करुणा साथ नहीं रह सकते। भारत करुणा का देश है। यह भी सब जानते हैं कि बाजार भविष्य का रास्ता नहीं दिखा सकता। आज दुनिया में व्यापार-युद्ध शुरू हो चुका है।

अनिल बंसल : राज्यसभा में अक्सर सदस्यों की उपस्थिति बहुत कम देखी जाती है। आप किस तरह लोगों को प्रेरित करेंगे कि वे सदन में उपस्थित रहें?
’जिन समस्याओं के बारे में मैं बात कर रहा हूं, वह कोई निजी समस्या नहीं है। पूरे देश की समस्या है। पर इन समस्याओं में लोगों की रुचि पैदा हो, यह प्रयास जरूरी है। गांधी ने लोगों को किस तरह जागरूक किया? उन्होंने मुद्दों से जोड़ कर बातें उन्हें समझार्इं। उस समय गांधी या दूसरे लोग जो बातें सोचते थे, उन्हें सार्वजनिक एजंडे में रखा। अगर हम भी सार्वजनिक एजंडे में इन सारी बातों को लाने की कोशिश करें, तो जो संसद में सीमा दिखाई देती है, पार्टियों के भीतर जो सीमा दिखाई देती है, उन्हें दूर करने का काम ये मुद्दे करेंगे। पहले दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में इस तरह की स्थिति दिखाई देती थी, तो जनता खड़ा होकर कहने लगती थी कि हमारे सवाल का उत्तर दीजिए। मगर हमारे यहां सार्वजनिक मंचों पर मुद्दों पर सवाल नहीं उठ रहे।

सूर्यनाथ सिंह : अभी पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और रुपए के अवमूल्यन को लेकर विपक्ष बहुत हमलावर है। इसकी हकीकत क्या है?
’ये दोनों चीजें हमारी अर्थव्यवस्था की सह-उत्पाद हैं। आज कुल आर्थिक स्थिति मोटे तौर पर यह है कि 2018-19 का केंद्रीय बजट है करीब चौबीस लाख करोड़ रुपए, कुल आमद हमारी करीब अठारह लाख करोड़ है। सरकार ने कर वसूली को लेकर कड़े कानून बनाए, तब यह आमद बनी। अगर और पहले कानून बनाए गए होते, तो आमद और बढ़ती। राजस्व घाटा है 2.6 लाख करोड़ रुपए। अब छह मुख्य मद हैं, जिनमें खर्च होना है- कर्ज पर ब्याज का भुगतान, जो 5.7 लाख करोड़ है। सरकार चलाने का खर्च- 5.08 लाख करोड़। रक्षा खर्च- 2.83 लाख करोड़। खाद्य, खाद-रसायन और पेट्रोलियम पर सबसिडी- 2.64 लाख करोड़। अगर आमदनी अधिक होती, तो सबसिडी अधिक कर देते और पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम हो जातीं। यह सबसिडी समाज के नितांत गरीब और कमजोर लोगों के पास जाती है। फिर पेंशन पर खर्च 6.8 लाख करोड़। इन सबको मिला दें तो खर्च 19.6 लाख करोड़ होता है। सिर्फ 5.3 लाख करोड़ रुपए सरकार के पास विकास के मद में खर्च के लिए बचता है। आज बहुत सारे राज्यों के पास विकास के पैसे नहीं हैं। आज जो पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ रही हैं, वह पहले भी बढ़ती रही हैं। मैं बार-बार कहता हूं कि इसका निदान गांधी के अर्थ-दर्शन में है। इस पर सभी दलों को सोचना पड़ेगा। शायद मजबूरी में सारे दलों को इस तरफ लौटना पड़ेगा।

आशीष दुबे : जैसाकि आप कह रहे हैं कि गांधी दर्शन आज की जरूरत है, वह कैसे लागू होगा?
’देश के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री, राजनेता, रणनीतिकार, योजनाकार सब बैठ कर तय करें कि क्या गांधी ने जो कुछ कहा, उसमें अर्थव्यवस्था के लिए कुछ तत्त्व है या नहीं। हमारे देश ने तो उस पर विचार ही नहीं किया। न उस पर चलने की कोशिश हुई। मेरा निवेदन है कि गांधी की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ पर कम से कम इस पर विचार किया जाना चाहिए।

मुकेश भारद्वाज : एक पत्रकार के राजनीति में जाने को आप किस तरह देखते हैं?
’हम लोग आमतौर पर कहते हैं कि एक पेशे के आदमी को दूसरे पेशे में नहीं जाना चाहिए। पर मैं कहता हूं कि क्यों नहीं जाना चाहिए। कई लोग पेशे से इंजीनियर थे, पर राजनीति में गए, अर्थशास्त्र में गए। कई लोग पेशे से वैज्ञानिक थे, पर उन्होंने संगीत, नाटक आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण काम किए। श्रीअरविंद अध्यात्म में थे, पर लोहिया आदि राजनेता जब उनसे राय मांगने जाते थे, तो वे उन्हें राय देते थे। मुझे लगता है कि जो मैंने मुद्दे बताए, उनमें बदलाव तभी आएगा जब राजनीति में दूसरे क्षेत्रों से लोग जाएं। समाज की ओपीनियन बनाने वाले लोग उसमें जाएंगे, तभी बदलाव आएगा। आज जरूरत है कि दुनिया जिस तरह से बदल रही है, तकनीक जिस तरह से बदल रही है, उसमें समाज के हर तबके के लोग आएं और अपना ओपीनियन बनाने का काम करें।

प्रस्तुति: सूर्यनाथ सिंह / मृणाल वल्लरी