क्यों हो उदास तुम?
-संजय स्वतंत्र
आओ सहला दूं
तुम्हारे गालों को
चमकीली धूप से,
जरा सा और बिखेर दूं
तुम्हारे उलझे बाल।
रख दूं सूखे होठों पर
कुछ शब्द मधुरस के,
क्यों हो इतनी उदास?
आओ छुपा दूं तकिए के नीचे
चंद फूल हरसिंगार के
ताकि भर जाए
तुम्हारे सपनों में सुगंध
और गमक उठे मन।
आओ न खोल दूं
तुम्हारे मन की चटकनी,
जरा बहने तो दो
बसंत की बयार।
चलो बुहार देता हूं
वो गलियां भी
जिनसे गुजर कर
जाना है तुम्हें
उस कंटीले मार्ग पर
जहां रखी है बांध कर
तुम्हारे लिए-
एक पोटली सपनों की।
चलो खोल देता हूं उसे भी,
अब तो न रहो उदास!
आओ ले लूं मैं
तुम्हारी तमाम उदासियां,
जरा सा झाड़ दूं
वो बिस्तर और चादर भी,
जहां करवटें बदलती रही
तुम रात भर,
जहां सोई रहती हैं
अतीत की काली परछाइयां,
जिनसे लड़ती रही हो अकसर।
आओ चलो मुक्का मारें
हरदम चिपटते दुर्भाग्य को,
ठोक-पीट कर उसे
क्यों न हम बदल दें
उज्ज्वल भविष्य में।
चलो न फिर हंसते हैं
रंग-बिरंगे फूलों की तरह,
हंसाएं उन लोगों को भी
जो उदास हैं सदियों से
जो मुस्कुराए नहीं बरसों से।
आओ खुरच दूं
तुम्हारी सारी पीड़ाएं
नहला दूं उसे मैं
अपने मन में घुमड़ते बादलों से
ताकि देख सको तुम
अपना नीला आसमान,
छू सको बुलंदियां,
फूंक मार कर उड़ा सको
अपनी सारी उदाासियां।
यूं रहो न उदास तुम..