तोत्तो चान आम बच्चों से थोड़ी अलग थी। उसका ध्यान किसी एक चीज पर केंद्रित नहीं रह पाता था। वह स्कूल में खिड़की पर बैठ कर राहगीरों से बात करने लगती थी। इन सब वजहों से उसे स्कूल से निकाल दिया गया। लेकिन तोत्तो चान की मां ने अपनी बेटी का पूरा साथ दिया। मां ने अपनी बेटी के लिए एक ऐसा स्कूल खोज लिया जहां हर कुछ उतना ही अलग और अद्भुत था, जैसी अन्य बच्चों के बीच में तोत्तो चान थी। स्कूल का पहला दिन था और तोत्तो चान के नए स्कूल के प्रधानाध्यपाक को चार घंटे तक उसकी बातें सुननी पड़ी। उन्होंने तोत्तो चान की बातें ऐसे सुनी, जैसे इतनी अद्भुत बातें कभी सुनी ही नहीं हो।
इस नए स्कूल में तोत्तो चान पेड़ पर चढ़ सकती है तो उसका दोस्त क्यों नहीं चढ़ सकता है? अपने पोलियो के शिकार दोस्त को वह पेड़ पर चढ़ाने की कोशिश करती है। आम स्कूलों की तरह ऐसा करने पर वह सजा नहीं पाती है। हां, वह अपने दोस्त की शारीरिक स्थिति को अब और बेहतर तरीके से समझ सकती है। स्कूल के प्रिंसिपल बागवानी करने वाले माली को भी बच्चों के शिक्षक की तरह ही देखते हैं। स्कूल में बच्चों के लिए दोपहर का दो तरह का भोजन बनता था-कुछ समुद्र से कुछ पहाड़ से।
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तोत्तो चान, असल जिंदगी की वह अमर किरदार है जो मुक्त शिक्षा व्यवस्था की प्रतिनिधि चेहरा बन चुकी है। एक स्कूल और उसका माहौल क्या ऐसा हो सकता है कि वह स्कूल ही दुनिया भर के स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम सरीखा हो जाए। जापान में तोत्तो चान को पढ़ाने वाला स्कूलतोमोए गाकुएन ने ऐसा ही कर दिखाया।
स्कूल की स्थापना की थी सोसाकू कोबायाशी ने। वे स्कूल के प्रधानाध्यापक भी थे। कोबायाशी द्वारा अपनाई गई शिक्षा पद्धति ने स्कूल की छात्रा तेत्सुको कुरोयानागी को इतना प्रभावित किया कि उसने इस पर एक आत्मकथात्मक किताब लिख डाली। ‘मादोगीवा नो तोत्तो-चान’ के नाम से 1981 में प्रकाशित हुई इस किताब ने सीखने-सिखाने की संवेदनशील दुनिया को काफी प्रभावित किया।
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मूल रूप से जापानी भाषा में लिखी इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद डोरोथी ब्रिटन ने ‘तोत्तो चान द लिटिल गर्ल एट द विंडो’ के नाम से किया। डोरोथी के सहज अनुवाद ने इस किताब को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया।
तोत्तो चान के जरिएकुरोयानागी पाठकों को ऐसे स्कूल में ले जाती है, जहां बच्चे की आंखों से लेकर दिमाग तक पर किसी भी तरह के अनुशासन का पहरा नहीं लगाया जाता। तोत्तो चान की बालसुलभ हरकतें बड़ों की दुनिया को बड़ा संदेश देती हैं कि बच्चों की स्वाभाविक दुनिया में किसी तरह की बंदिशें नहीं लगानी चाहिए।
अपने सोचे को करने की आजादी ही बच्चों को आत्मनिर्भर, संवेदनशील नागरिक बनाती है। आज यह किताब दुनिया भर के भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। खास कर स्कूली शिक्षा से जुड़े लोगों और अभिभावकों के लिए तो इसे अनिवार्य माना जाता है।
