देवकीनंदन खत्री भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय तिलिस्मी लेखक हैं। ‘तिलिस्म’, ‘ऐय्यार’ और ‘ऐय्यारी’ जैसे शब्दों को हिंदी भाषियों के बीच लोकप्रिय बनाने में बाबू देवकीनंदन खत्री का ही योगदान है। देवकीनंदन खत्री के चर्चित उपन्यासों में ‘चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता संतति’, ‘काजर की कोठरी’, ‘नरेंद्र मोहिनी’, ‘भूतनाथ’ आदि प्रमुख हैं। अपनी अद्भुत रचनाओं के माध्यम से उन्होंने लोगों के हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ी।
देवकीनंदन खत्री का जन्म बिहार के समस्तीपुर में हुआ था। उनके पिता लाला ईश्वरदास पंजाब के रहने वाले थे और महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासनकाल में लाहौर से काशी में आकर बस गए थे। कहते हैं कि उनके पूर्वज भी मुगलकाल में अच्छे पदों पर तैनात थे। देवकीनंदन खत्री की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू तथा फारसी में हुई थी। इसके साथ ही उन्होंने हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी का गहन अध्ययन किया। आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे गया के ‘टेकारी स्टेट’ में एक राजा के पास काम करने लगे। बाद में वे वहीं व्यवसाय करने लगे।
उन्हें पुराने खंडहर और जंगल तिलिस्मी कहानियों की तरफ आकर्षित करते थे
उन्हें बचपन से ही भ्रमण में रुचि थी। उन्हें पुराने खंडहर और जंगल तिलिस्मी कहानियों की तरफ आकर्षित करते थे। फिर उन्हें काशी नरेश ‘ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह’ से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका मिल गया। उन्हें कई वर्षों तक जंगलों में व्यतीत करना पड़ा। उन्हें घूमने का शौक था ही। इस दौरान वे चकिया और नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, सुनसान खंडहरों और पहाड़ियों के बीच घूमने का मौका मिला। इन प्राचीन वीरान ऐतिहासिक इमारतों और खंडहरों को देख कर ही उनके मन में तिलिस्मी कहानी की प्रेरणा मिली।
बाद में उनका जंगलों का ठेका समाप्त हुआ, तो वे काशी वापस आ गए। फिर उन्होंने लिखना शुरू किया। उनकी कहानी को लोगों ने इतना प्यार दिया कि बाद में उन्होंने लेखन को ही अपना पेशा बना लिया। चकिया और नौगढ़ के वीरान खंडहरों से प्रेरित होकर उन्होंने कई उपन्यासों की रचना की। ‘चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ जैसे तिलस्मी उपन्यासों से उन्हें खूब ख्याति मिली। चंद्रकांता उनका पहला उपन्यास था। यह उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ।
इससे उत्साहित होकर उन्होंने अपना दूसरा उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ की रचना की, जिसमें कुल चौबीस भाग हैं। उनके इस उपन्यास पर हिंदी टीवी धारावाहिक का भी निर्माण हुआ। यह धारावाहिक रामायण और महाभारत के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ था। देवकीनंदन खत्री का अंतिम उपन्यास ‘भूतनाथ’ कहा जा सकता है। हालांकि इस उपन्यास को पूरा करने के पहले ही उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। बाद में उनके बेटे ‘दुर्गाप्रसाद खत्री’ ने इसे पूरा किया था।
जंगलात के ठेके के कुछ वर्षों बाद उन्होंने काशी में एक प्रिंटिंस प्रेस की स्थापना की। वे एक तिलिस्म लेखक ही नहीं, बल्कि अच्छे संपादक भी थे। उन्होंने ‘सुदर्शन’ नामक हिंदी मासिक पत्र की शुरुआत की थी। जब उन्होंने तिलिस्मी उपन्यास लिखना शुरू किया था, तब उर्दू का बोलबाला था। वे उर्दू के अच्छे जानकार थे, मगर उन्होंने हिंदी भाषा को ही अपनाया। उन्होंने बीहड़ जंगलों, प्राचीन इमारतों और खंडहरों की पृष्ठभूमि पर अपनी कल्पना शक्ति से तिलिस्म तथा ऐय्यारी भरी ‘चंद्रकांता’ उपन्यास की रचना की। उनकी रचनाएं इतनी लोकप्रिय हुईं कि जो लोग हिंदी नहीं पढ़ पाते थे, उन्होंने उन्हें पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। इस प्रकार हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार और लोगों को उर्दू से हिंदी की तरफ आकर्षित करने में भी खत्री जी का अहम योगदान माना जा सकता है।