‘मां मैं थक गया हूं’।-होलू ने चलते-चलते मां से कहा। मां बोली-‘थोड़ी दूर ही तो और जाना है होलू।’ ‘पर मां मैं थक गया हूं। मुझसे नहीं चला जा रहा।’ होलू ने अपने मुंह पर ढेर सारी परेशानी लाकर कहा। उसने मां की ओर देखा। मां के सिर पर बड़ा-सा गट्ठर था। माथे से पसीना टपक रहा था। चेहरे पर ढेर सारी थकान थी। उसने कहा-‘मां अब मैं छोटा बच्चा भी तो नहीं रहा कि कहूं गोदी ले लो। आपके सिर पर यह गट्ठर भी तो कितना बड़ा है।’

मां ने होलू का साहस बढ़ाते हुए कहा, ‘कितनी अच्छी बात है न! अब तू बड़ा हो गया। थोड़ी दूर और चल ले बेटे। वहां पहुंच कर मैं तेरे बालों को सहलाऊंगी। तू खूब आराम करना।’ होलू को कुछ नहीं सूझ रहा था। करे भी तो क्या करे वह। थोड़ी झुंझलाहट हुई उसे। सोच रहा था, मां के पास तो हर बात का जवाब होता है। जाने ऐसी क्यों होती है मां। सच बात यह थी कि उसे खुद से ज्यादा मां की फिक्र हो रही थी।

उसे एक तरकीब मिल गई। बोला-‘मां एक बात बताओ। कोई काम करते-करते बहुत थक जाए तो क्या करे?’ इस बार मां ने जवाब दिया। थोड़ा हांफते-हांफते, ‘कुछ देर आराम कर लेना चाहिए।’

होलू विजेता की तरह बोला-‘मां मैंने कहा न! मैं थक गया हूं। कुछ देर आराम करने दे न?’ होलू की मां थोड़ा रुक कर बोली, ‘होलू तू फिर उसी बात पर आ गया। समझता क्यों नहीं? कहा न! गांव बस कुछ दूर ही और है।

जिसे बचपन ने तराशा और किस्मत ने तोड़ दिया | पारिवारिक संघर्ष, प्रेम विवाह और विस्फोट की कथा

वहां पहुंच कर जितना चाहे आराम करना। वहां सब हमारा इंतजार कर रहे होंगे।’ आगे सिर पर रखे गट्ठर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘उन तक समय पर सामान नहीं पहुंचा तो वे हमें पैसे नहीं देंगे।’ इस बार होलू ने सीधे-सीधे कहा-‘मां मुझे तो आप भी बहुत थकी लग रही हो। कितना तो पसीना आ रहा है!’ ‘अरे नहीं होलू! मैं ठीक हूं।’-मां ने एक हाथ से पसीना पोछते हुए कहा।

होलू ने देखा, मां मुश्किल से चल रही थी। लगा कि उसकी मां ऐसे चल रही थी जैसे उसके पांवों में पत्थर बंधे हों। वह बहुत ही चिंतित हो उठा था। तभी उसकी निगाह कुछ दूर पर खड़े एक घने वृक्ष की ओर गई। वह जोर से चीखा-‘ओ चाचा पेड़! हम पहुंचने ही वाले हैं आप तक! क्या आप हमें अपनी छाया में बैठने दोगे?’ मां ने होलू को वैसे बोलते सुना तो बोली-‘होलू तू यह क्या बोल रहा है। पेड़ भला क्या जवाब देगा! तुझे छाया में बैठना हो तो बैठ जाना।’

होलू मन ही मन खुश हुआ। पर खुशी दिखाई नहीं। उसने फिर पेड़ की ओर देखा। पहले की ही तरह चीख कर बोला-‘ओ चाचा पेड़! क्या मेरी मां को भी अपनी छाया में बैठने दोगे? बस थोड़ी देर। हमें समय पर गांव जो पहुंचना है।’

होलू की मां को कुछ अजीब सा लगा। उसने सोचा, ‘कहीं होलू को कुछ हो तो नहीं गया है। वह बोली-‘होलू पेड़ कोई आदमी है? वह क्या तो हमारी सुनेगा और क्या हमें उत्तर देगा। और फिर उसे क्या ऐतराज होगा। वह तो सबको अपनी छाया में बैठने देता है। सबका ख्याल रखता है।’

‘सच मां? तो क्या वह आपको भी बैठने देगा। अपनी छाया में?’-होलू ने तपाक से पूछा।
‘क्यों नहीं’?-मां ने पूछने के लहजे में कहा। ‘तो मां, मेरे साथ आप भी कुछ देर, बस कुछ देर बैठ जाओगी न? पेड़ की छाया में?’ ‘ठीक है।’-मां ने कहा।

अब दोनों पेड़ के पास पहुंच गए थे। मां ने सिर से गट्ठर नीचे उतारा। छाया में बैठी। पास ही होलू भी बैठा था। देख रहा था। मां की थकान उतरते हुए। पसीना सूखते हुए। चेहरे पर भी ताजगी लौटते हुए।

कुछ ही देर बाद मां ने कहा-‘होलू अब तो तेरी थकान उतर गई होगी। चलें?’ ‘हां मां! चलो!’-होलू ने फुर्ती से उठते हुए खुश होकर कहा। होलू सोच रहा था। सच बताए कि न बताए। थोड़ा चुप-चुप था। उसे चुप देख कर मां ने पूछ लिया-‘होलू क्या तेरी थकान उतरी नहीं?’ होलू ने सोचा। लगा कि मां को सच बता दे। बोला-‘मां एक बात सच-सच बताऊं। मैं तो थका ही नहीं था।’

‘क्या? पर तू तो बार-बार कह रहा था। यही कि तू थक गया है।’ मां ने थोड़े बनावटी गुस्से से कहा। कुछ-कुछ आश्चर्य से भी। ‘हां मां! पर मैं इतना नहीं थका था। चल सकता था। अच्छा बताओ। पसीने किसे आ रहे थे?’ होलू ने थोड़ा गंभीर होकर पूछा। ‘मुझे!’-मां ने कहा। ‘पैरों में पत्थर से किसके पांव में बंध गए थे?’-होलू ने दूसरा सवाल दागा।

‘मेरे!’-मां ने जवाब दिया। किस के सिर पर भारी बोझ का गट्ठर रखा हुआ था?-होलू ने अगला सवाल किया। ‘मेरे!’-मां ने बताया। ‘तो थका कौन था?’-आंखें थोड़ा मटकाते हुए होलू ने पूछा। ‘मैं!’ मां ने कहा। ‘तो आराम किसे चाहिए था?’-होलू ने चिंता दिखाते हुए कहा। ‘मुझे!’ मां ने थोड़ी हंसी दबाते हुए कहा। होलू हंसा। मां की आंखों में ढेर सारा प्यार उतर आया था। गीली भी हो आई थीं। बस इतना बोल पाई- ‘होलू, तू इतना प्यारा क्यों है?’

‘क्योंकि मेरी मां आप हैं!’-होलू ने मां को पकड़ते हुए कहा। और पूछा-‘आप मेरे बाल सहलाओगी न?’ गांव आ गया था।