जब कभी सताए तुम्हें
जीवन-डगर पर ताप,
बन कर गुलमोहर
खिल जाना तुम।
मैं अमलतास के रूप में
वहीं मिलूंगा तुम्हें
शीतल करूंगा तन-मन को,
महकूंगा-लहकूंगा,
गरम थपेड़ों में सहलाऊंगा
तुम्हारे गालों को,
ओढ़ा दूंगा सिर पर
पीली-सुनहली चुनर
अपने फूलों की।
चाहे आग दहकाए सूरज,
काले मेघ बरसाए
कितना भी पानी,
आए कितने भी तूफान,
स्थिर-संयमित रहना,
कभी न डगमगाना।
उफन जाएं कितनी भी नदियां,
कभी न घबराना,
गहरी हैं जड़ें तुम्हारी
माटी से न उखड़ना तुम।
वहीं से लेकर तुम्हारी खुशबू
और कुछ जामुनी रंग,
मैं खिलूंगा बन कर
कागज के फूल-
जैसे कोई बोगनवेलिया
डटा रहता है हरदम
चाहे गरमी हो या सर्दी।
चाहता हूं कि तुम भी
बन जाओ वटवृक्ष,
रहो हमेशा अडिग।
अच्छी लगती हो तुम
गुस्से में दहकती लाल,
छुपा कर रखो आवेश
अपने नारंगी रंग में,
फूट जाना उन सब पर
सुर्ख लाली के साथ
जो उखाड़ देना चाहते हैं
तुम्हारी गहरी जड़ों को,
जो काट देना चाहते हैं
तुम्हारे अनंत विस्तार को,
जो कैद कर देना चाहते हैं
तुम्हें सोने के पिंजड़े में,
जो कतर देना चाहते हैं
तुम्हारे चांदी जैसे पंख
ताकि भर न सको कभी
तुम मनचाही उड़ान।
तो दहको और दहको
लाल होकर / बन कर
गुलमोहर तुम
जीवन की इस तपती दुपहरी में।
कविताः तपती दुपहरी में गुलमोहर तुम
संजय स्वतंत्र की कविता
Written by संजय स्वतंत्र

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First published on: 02-07-2018 at 07:52 IST