मैं साक्षी हूं-
तुम्हारे उन पदचिह्नों का
जिनमें संघर्षों को
उपजते हुए देखा है बार-बार,
तुम काटती रही
जिंदगी की फसल
लड़ती रही गमों से हर पल।
और एक दिन-
अपनी स्निग्ध मुस्कान से
उसे भी हरा दिया
तुमने आखिरकार।
मैं साक्षी हूं-
तुम्हारी निस्तेज होती
अविरल आंखों का,
जिनमें रचती रही तुम
नित नया भविष्य,
स्वप्नद्रष्टा बनते हुए
मैंने देखा है तुम्हें कई बार।
और एक दिन-
तुमने बुरे सपनों को भी
अपनी जिजीविषा से
हरा दिया आखिरकार…..।
मैं साक्षी हूं-
तुम्हारे सूखे अधरों का,
जिन पर पड़ती रहीं
समय की सलवटें,
फिर भी उगाती रही
तुम उन पर गुलाब
अपने आंसुओं से सींचते हुए।
सच कहूं तो
तुमने कांटों को भी
सहेज लिया आखिरकार।
देखो न-
फिर लौट आई है पूर्णिमा
तुम्हारे उन्नत ललाट पर,
उसने दिया है चुंबन
उज्ज्वलता और शीतलता का।
लो अब तुमने
अंधकार को भी
जीत लिया आखिरकार।
सुनो-
तुम्हारी लटों में उलझी थीं
जो चिंताएं बेशुमार,
एक-एक कर तुमने
सुलझा ही लिया आखिरकार….।
झील के उस पार
मैं देखता रहा तुम्हारे
सजल नयनों को अपलक,
मुग्ध होता रहा तुम्हारे
संदली सौंदर्य पर,
और कुछ नहीं
बस उन भंवों के बीच
बैठी स्थिरप्रज्ञ नायिका को
निहारता रहा मैं,
जिसने अकसर कहा-
मैं अंतयार्मी हूं,
चिंता न कीजिए आप,
समय करेगा मेरा इंसाफ।
हां… साक्षी हूं आखिरकार
तुम्हारे सतत संघर्ष का,
तुम्हारे अलिखित वचनों का,
तुम्हारी अटल मुस्कान का,
जो टूट कर बिखरती है
तुम्हारे कोमल चेहरे पर
और निरंतर पीड़ा में भी
खिली रहती है।
साक्षी हूं मैं-
तुम्हारी डबडबाई आंखों का,
जिनमें बनती रही गहरी झील
और डूबती रही खुद में तुम,
मेरे मन की डोंगी भी
पलटी कई बार।
पीता रहा मैं काल का विष,
और छलकाता रहा
अपने शब्द-अमृत,
ताकि तुम रच सको
जिंदगी के नए प्रतिमान,
आखिरकार……
मैं भी रहूंगा साक्षी
उस क्षण का
जिसे विराट बनाने के लिए
चलती रही तुम अनथक।
संजय स्वतंत्र की कविताः साक्षी हूं मैं आखिरकार..
संजय स्वतंत्र की कविता
Written by संजय स्वतंत्र

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First published on: 05-09-2018 at 07:23 IST