‘देवता बरसाते हैं फूल’
सूर्य को अर्घ्य देते हुए
जब भी करता हूं कोई
मंगलकामना तुम्हारे लिए,
देवता बरसाते हैं फूल
मेरी इस शुभेच्छा पर।
मेरी बंद पलकों की
लालिमा में अक्सर दिखती है
एक नीली चिड़िया
जो मीलों दूर उड़ते हुए
तुम तक पहुंचती होगी
यह संदेश लेकर
कि-
धूमिल नहीं हुई है
तुम्हारी मीठी स्मृतियां।
सूर्य को अर्घ्य देते हुए
बंद आंखों से देखता हूं
एक देवलोक;
वहां से उतरती देवियां
गाती हैं गीत युद्ध और प्रेम का,
साग्रह सौंपती हैं मुझे
मुकुट-पुष्प और तलवार।
वे चाहती हैं कि
बन जाऊं मैं
सद्भावना का राजदूत।
बंद पलकों की लालिमा में
जब भी बिखरते हैं
लाल-पीले-नीले पुष्प,
मैं सायास भर लेता हूं
उन्हें अपनी अंजुरियों में
और उछाल देता हूं
नीले आसमान की ओर।
चटकते हुए लाल पुष्प
गिरेंगे तुम पर भी,
उसमें मेरी शुभकामना
पढ़ लेना मित्र।
झिलमिल जलधारा में
बार-बार उभरता है
तुम्हारा इंद्रधनुषी चेहरा,
जिसे छू नहीं पाता मैं
सूर्य को अर्घ्य देते हुए
तो दौड़ पड़ती हैं लहरें
कुछ कहने के लिए।
क्या सुन सकोगी तुम
उस नीली चिड़िया के
पंखों की फरफराहट?
देवियों का वह वृंदगान,
चटकते लाल पुष्पों का अर्थ
समझ सकोगी तुम?
या फिर-
शुभकामनाओं में धड़कते
मेरे असंख्य शब्दों को
पढ़ सकोगी तुम?
सच कहूं तो
सूरज को अर्घ्य देते हुए
शीतल कर देना चाहता हूं
तुम्हारा धधकता हृदय तल।
तुम्हारे सपनों को
देना चाहता हूं अग्निपंख
ताकि-
ग्रीक के उस मिथकीय
पक्षी की तरह
सब कुछ हार कर भी
कर सको एक नई शुरुआत
लिख सको नया आख्यान
रच सको नया इतिहास।
– संजय स्वतंत्र