इन दिनों-
देखता है कनखियों से
दूसरों को वह और
निकल जाता है कतरा कर
डरा हुआ आदमी।
इन दिनों-
नहीं खाता वह
किसी के भी साथ
घर या दफ्तर में,
निगलता है रोटियां
कोने में अलग-थलग,
हाथ पोंछ खिसक लेता है
डरा हुआ आदमी।
खत्म हुईं यारियां
बंद हुईं चायबाजी भी,
बुरे दिनों की घूंट पीते हुए
याद करता है ‘अच्छे दिनों’ को
डरा हुआ आदमी।
इन दिनों-
ढके हुए हैं चेहरे सभी के,
दिखते नहीं किसी के
कोई भी हाव-भाव,
दुखों की गठरी और
उदासियों को खुद ढोता है
डरा हुआ आदमी।
इन दिनों –
प्यार पर छा गया पतझड़,
किसी बहाने अब
नहीं होती मुलाकातें,
मिल भी गए
किसी बस स्टॉप पर तो
प्रेमिका की हथेलियां थामने से
बहुत घबराता है वह
डरा हुआ आदमी।
इन दिनों-
बच्चों की कक्षाएं
लगती हैं ऑनलाइन,
वे पढ़ रहे या गेम खेल रहे,
पिता को नहीं पता,
उन्हें डांटने से बचता है
डरा हुआ आदमी।
इन दिनों-
मौत के मंजर के बीच
सहमी सी है जिंदगी,
बेटे की लाश को
देखता है वह दूर से
और पिता के शव को
भी हाथ लगाने से
डरता है आदमी।
इन दिनों-
घर में कभी होते हैं बीमार
तो सामने से गुजर रहे
पड़ोसी को देख कर
सब ठीक है कहते हुए
घर के दरवाजे-खिड़कियां
बंद कर लेता है
डरा हुआ आदमी।