1. दंश नारी देह के

कितने कष्टकारी और त्रासद होते हैं
वे चार-पांच दिन जब-
मेरी देह से अलग हो रहे होते हैं,
मेरी देह के टुकड़े।
कुछ टूट कर बिखरता है,
नूतन को सृजन न
कर पाने के दुख में।
बहुत कुछ खोती हूं
उन दिनों मैं-
मेरे शरीर से मांस के लोथड़े,
मेरे रक्त का अंश,
और अपनों का अपनत्व भी।
सदियों से चली आ रही
पुरानी परंपरा में,
कोने में पड़े रह कर-
अछूत भी कहलाई।
तिमिर जो दूर तक है,
हर मास ही तो यह संघर्ष
स्त्री होने का।
लाल रंग जो तुम्हें देता पौरुष,
तिलक लगा लाल,
कहलाते हो वीर।
मिट्टी होती कीचड़,
होती लाल- फिर सृजन प्रतीक।
तुमने दिया था मुझे श्वेत,
मैंने जब इसे रंगा
अपने लाल रंग से
नौ माह कोख में रख कर,
किया समर्पित तुम्हें।
फिर तुम्हें मिला तुम्हारा ‘लाल’।
हुए तुम-
पूरित, सम्मानित, गर्वित।
फिर भी मेरा लाल रंग
क्यों है अछूत और तिरस्कृत
2. सृजन के चार दिन

उन चार दिनों में
जब खो जाती है
तुम्हारी खिलखिलाहट,
उदासियों की चादर ओढ़
गुम हो जाती हो जब तुम,
मैं वहीं कहीं होता हूं
नीलाभ बन कर,
तुम्हारी लाल क्षिति में
शब्दों का सृजन करते हुए।
देह से टूट कर बिखरना,
सच में कष्टकारी होता है,
उन चार दिनों में।
मगर नूतन सृजन
तुम भी करती हो,
ठीक मेरी तरह
अपने मन में,
जब लिखने बैठ जाती हो
मनुष्यता का पाठ।
खोती हो जब तुम
अंश अपनी देह का,
कतरा-कतरा
संजो लेता हूं उसे
अपने मन की कोख में,
रचता हूं नया संसार मैं भी,
बटोर लेता हूं अपना पुरुषार्थ,
तुमसे ही, तुम्हारे लिए।
लाल रंग-
सृजन का प्रतीक,
सही कहा तुमने,
सृष्टि रचती लाल क्षिति,
नीलाभ की धवलता से,
फिर कैसे कहूं अछूत तुम्हें?
छुआ जब भी
उन चार दिनों में,
तुम मिली हमेशा
स्वप्निल, निर्मल और कोमल।
कुछ रचते हुए
दूर तक उस तिमिर में,
जहां संघर्ष कर रही होती हो तुम,
तिरस्कृत स्त्रियों के लिए।
लड़ रही होती हो तुम
सदियों पुरानी परंपरा से,
मन के किसी कोने में।
मैं अक्सर वहीं चला आता हूं,
तुम्हें बताने कि-
नीलाभ की सिंदूरी सुबह,
तुमसे ही है,
उस विराट पौरुष का
सम्मान भी तुम से ही है,
जब क्षिति बिछा देती है
लाल चादर,
सृजन के लिए
पुलकित होकर।

~डॉ. सांत्वना श्रीकांत