इन दिनों गुलदाऊदी की बहार छाई हुई है। ‘दादा आपके हाथों में ना जरूर कोई जादू है। गुलदाऊदी के फूल ऐसे खिल रहे हैं मानो अभी हंसने खिलखिलाने लगेंगे।’ पार्क में आते-जाते हर कोई अपना मोबाइल निकालता। फोटो लेता। सभी सूरज दादा की मेहनत की सराहना करने लगते।
अपनी तारीफ सुनकर वह भी अपने परिश्रम को सार्थक होता हुआ महसूस करते। हंसकर अपनी गरदन हिला देते।

आज, लगभग पैंसठ बरस के हो गए हैं सूरज दादा। इस पार्क के फूलों को संवारते-निखारते हुए अपना पूरा जीवन ही दे दिया है उन्होंने। सूरज दादा भी बार-बार नजर भरकर सभी फूलों को आशीर्वाद की दृष्टि से देख रहे हैं। यह पार्क हमेशा ऐसा नहीं था। आज से बीस- बाइस साल पहले। यह केवल एक मैदान भर हुआ करता था। दूर-दराज से लोग इस मैदान में टहलने आते थे।

यहां पर रहने वालों की ‘सौभाग्य सोसाइटी’ तो बन गई थी। ‘सौभाग्य सोसाइटी’ के अध्यक्ष भानु जी ने सूरज दादा को इस मैदान में दिन भर देखभाल का काम दे दिया था। तब एक तरफ घास थी। एक तरफ केवल बंजर। रोज छह से सात घंटे काम करते हुए सूरज दादा ने इसे बगीचा बना दिया। उसके बाद यहां एक बेंच लगी। फिर तीन हो गई।

मगर बीस-बाईस साल पहले शुरुआत में एक भी बेंच नहीं थी। तब वह अनजान सी एक युवती आती थी। वह अपने साथ बैठने का आसन लाती थी। कुछ किताबें लाती थी। बस गरदन को झुकाकर कुछ न कुछ लिखती और पढती रहती थी। फिर एक दिन उसने मोबाइल भी खरीदा था। तब इतने अधिक मोबाइल नहीं थे। वह युवती सूरज दादा से भी अक्सर बात करती रहती थी। धीरे-धीरे सूरज दादा को भी उसका इंतजार रहने लगा।

जब कभी वह नहीं आती तो वह बैचेन हो जाते थे। और, उनको रह-रहकर उसकी याद आने लगती थी। और, फिर जब अगले दिन वह आती तो सूरज दादा सवालों की बरसात कर देते थे। वह उनको बताती कि इस शहर से अस्सी मील दूर उसके माता-पिता का घर है। वह उनसे मिलने जाती है। यहां पर वह एक नौकरी के लिए तैयारी कर रही है। वगैरह-वगैरह। एक दिन उसने सूरज दादा से भी बहुत सारी बातें पूछ लीं। सबसे पहले उसने पूछा, ‘आप बीड़ी, सिगरेट तो नही पीते? खैनी, सुपारी तो नही खाते?’ जब सूरज दादा ने सच बताया कि एक मीठी चाय के सिवा उनका कोई शौक नहीं है, तो सुनकर वह बहुत ही खुश हुई। फिर तो आए दिन कुछ न कुछ बातें होती रहती थी।

सूरज दादा ने बताया कि उनके दो बेटे हैं। और वे चीनी मिल में नौकरी कर रहे थे। ‘अरे, बेटे और नौकरी भी। अच्छा, मगर आप तो खुद ही जवान लगते हो।’ वह उनकी तारीफ करते हुए कहती। बहुत दिन बाद उसका नाम पता लगा। गुलाबो। कितना प्यारा नाम था। तकरीबन एक साल तक उसकी ओर सूरज दादा की खूब बात-मुलाकात होती रहती थी। फिर वह नौकरी करने कहीं दूर चली गई। किस जगह गई, यह सूरज दादा को कुछ पता नहीं था। सूरज दादा भी बेटों की सगाई और विवाह में व्यस्त हो गए।

समय गुजरता चला गया। सूरज दादा की एक तय सी दिनचर्या हुआ करती थी। इसलिए सुबह से शाम कब हुई, पता ही नहीं चलता था। मगर, एक दिन सूरज दादा अपने बेटों से मिलने रामपुर जा रहे थे। रामपुर की चीनी मिल में दोनों काम करते थे। रामपुर बस अड्डे पर ही गुलाबो मिल गई। ‘अरे, सूरज दादा। आप यहां। सब ठीक-ठाक है ना।’ कहती हुई वह सूरज दादा से बतियाने लगी। उसने बताया कि वह यहां पर सर्वे करने आई है। किसी ‘भोजन पकाओ’ संस्थान में नौकरी कर रही है। सूरज दादा ने उससे कुछ देर बातचीत की। फिर वह सर्वे का काम करने के लिए चली गई। मगर, सूरज दादा को उससे और बात करने का मन था।

खैर, इस समय उनको बेटों से मुलाकात करनी थी। इस घटना के एक महीने बाद वह अचानक सूरज दादा के सामने आ खड़ी हुई। उस समय सूरज दादा पार्क में काम कर रहे थे। अब वह मैदान जरा-जरा सा पार्क लगने लगा था। ओह, गुलाबो, उसे देखकर सूरज दादा काफी खुश हुए। वह यहां एक दिन के लिए सर्वे करने आई थी। आज रात ही वापस जाने वाली थी। बस सूरज दादा से मिलने इधर आ गई थी।

कुछ देर गपशप करने के बाद गुलाबो ने अपना बैग टटोला। सूरज दादा उसी को टकटकी लगाकर देख रहे थे। बैग टटोलते हुए वह रुआंसी हो गई।सूरज दादा ने वजह पूछी तो उसने बताया, ‘शायद किसी ने उसके बैग से रुपए निकाल लिए हैं। सूरज दादा दो-तीन हजार रुपए दे दो ना। मैं यहां किसी से नहीं मांग सकती।’ वह दोनों हाथ जोड़कर याचना करने लगी। सूरज दादा भावुक हो गए। उसी समय अपने बटुआ में रुपए टटोलने लगे। ढाई हजार ही थे। ‘अभी तो यही हैं, रख लो।’

‘धन्यवाद, मैं वापस कर दूंगी।’ वह खुश होकर बोली और चली गई। उसके बाद एक दिन बीता। एक महीना और एक साल गुजर गया। मगर गुलाबो जो गई, सो लौटकर ही नहीं आई। उसका कोई अता-पता न था। सूरज दादा ने रुपयों के बारे में किसी को भी नहीं बताया। वह समझ गए कि उनके साथ धोखा हो गया है।

एक महीना और गुजर गया। एक दिन वह अचानक आई। ‘सूरज दादा मैं आ गई।’ कहकर उसने अभिवादन किया। उसके हाथ में नोट थे। सबसे पहले उसने रुपए वापस किए। उसके दूसरे हाथ में एक बैग था। आपके लिए है। कहकर उसने बैग थमा दिया। उस बैग में तरह-तरह के दस्ताने थे। ‘आप इनको पहनकर मिट्टी का काम करना। हाथ खराब नहीं होंगे।’ उसने उनको सलाह दी। साथ ही वह कोई महंगी मिठाई भी लाई थी। सूरज दादा से कुछ देर गपशप करके वह फिर लौट गई।

उसके बाद साल दर साल गुजर गए। सूरज दादा के बेटे भी यहीं लौटकर आ गए हैं। एक ने पान की दुकान खोल ली है। दूसरा बेटा किराने की दुकान चलाता है। सूरज दादा अब भी अपने शौक के लिए रोज काम करते हैं। गुलाबो उनको खूब याद आती है। इस पार्क की अनगिनत बेंच हैं। कोई न कोई आकर बैठ जाता है। बस गुलाबो नहीं आती। इन दिनों फूल गजब खिल रहे हैं। लैपटाप और पिज्जा लेकर एक युवती अचानक ही आ गई। आज से पहले उसे सूरज दादा ने नहीं देखा था।

वह आई और पार्क की बेंच पर बैठ गई। सूरज दादा ने उसे गौर से देखा। नहीं, नहीं गुलाबो नहीं। वह तो अब इतनी बच्ची नहीं रही होगी। दादा ने आह भर कर सोचा, पता नहीं अब कैसी होगी गुलाबो। तभी वह युवती जोर से बोली। ‘दादा, आपका नाम क्या है?’ ‘सूरज है मेरा नाम।’ वह हंसकर बोले। ‘अपना नाम बताओ बेटी।’ ‘दादा, मेरा नाम तो पिंकी है पिंकी।’ वह भी हंसकर बोली।