अपने नए प्रयोगों, नवोन्मेषी दृष्टि और अत्याधुनिक रंगीय तकनीकों के इस्तेमाल के साथ भावपूर्ण गायकी को आधार बनाकर अतुल यदुवंशी ने सही अर्थों में नौटंकी को ‘गीति नाट्य’ की उस समृद्ध परंपरा से जोड़ दिया है, जिसे जयशंकर प्रसाद ‘गीति काव्य’ की स्मृति की तरह देखते थे। पिछले लगभग पच्चीस-छब्बीस वर्षों में इस मंडली के माध्यम से अतुल यदुवंशी ने अपने को नौटंकी के ऐसे वास्तुकार के रूप में खड़ा किया है, जिसने उसे नए स्थापत्य में ढाला है और उसमें बड़ी संभावनाओं के बीज बोए हैं।
इस प्रक्रिया में उन्होंने नौटंकी को उन पाठों से बचाया है जिसमें खालिस मनोरंजन और सस्ती भावुकता की अधिकता थी। पाठ के स्तर पर, जिसे स्वयं नाट्यशास्त्र सर्वाधिक महत्त्व देता है, उन्होंने प्रस्तुति के लिए महत्त्वपूर्ण और अर्थगर्भी साहित्यिक पाठों का चयन किया। यह वे ‘पाठ’ थे, जिनमें सामाजिक चिंता तो थी ही, गहरे निहितार्थ भी थे। वे केवल मनोरंजन नहीं करते थे, अपितु सामाजिक यानी दर्शक की चेतना को झंकृत करने के साथ-साथ प्रश्नाकुल भी करते थे।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के ‘अंधेर नगरी’, कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्र’, रामकुमार वर्मा के ‘दीपदान’ जैसे नाटक हों या प्रेमचंद की कहानियां- ‘बूढ़ी काकी’, ‘पंच परमेश्वर’ और ‘कफन’ हों, अतुल यदुवंशी ने उन्हें नए अर्थ स्तरों पर ले जाकर प्रस्तुत किया। अपनी प्राय: सभी प्रस्तुतियों में ‘पाठ’ को भाव, वृत्ति, अवस्था और रस के अवयवों में रखते हुए उन्होंने विशुद्ध रूप से भाव प्रधान गायकी को महत्त्व दिया तथा अभिनय में पात्रों की गतियों पर विशेष रूप से ध्यान दिया। इस तरह जब पाठ अर्थपूर्ण प्रयोगों में निबद्ध हुआ, तो नौटंकी को स्वयं अपने होने का नया अर्थ मिला।
निश्चय ही यह बहुत महत्त्वपूर्ण काम था, जो उस समय घटित हुआ जब नौटंकी अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष कर रही थी। यह वह दौर था जब समस्त भारतीय रंगमंच बाजारवाद तथा भूमंडलीकरण के खतरों के साथ दृश्य पर छा गए इलेक्ट्रानिक माध्यमों से जूझ रहा था। संकट के उस दौर में मरणासन्न नाट्य रूप नौटंकी को नए संस्कारों में ढालकर उसे भविष्य की नौटंकी के रूप में विकसित करना मामूली बात नहीं थी। नौटंकी के प्रदर्शन, पद्धति और शिल्प के स्तर पर काम करते हुए अतुल यदुवंशी ने रंग तकनीक पर भी काम किया। प्रकाश, ध्वनि व्यवस्था, मंच सज्जा और वस्त्र विन्यास में आमूल परिवर्तन लाते हुए उन्होंने जिस तरह नौटंकी में आधुनिक रंग युक्तियों का इस्तेमाल किया है, वह आश्चर्य की बात है, क्योंकि नौटंकी जैसी पारंपरिक मुक्ताकाशी रंगशैली में यह अप्रत्याशित परिवर्तन से कम नहीं है।
इससे हुआ यह है कि नौटंकी के पारंपरिक ग्रामीण दर्शकों के साथ शहरी दर्शक भी आ जुड़ा है, जो आधुनिक रंग संस्कारों में पला-बढ़ा था और अपने लिए नया आस्वाद चाहता था। इस नवाचार के साथ एक महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि व्यावसायिक रूप से पारंपरिक ढर्रे पर काम कर रहीं मंडलियों को अपने काम पर पुनर्विचार करने की जरूरत महसूस हुई है और एक तरह से उनमें अपराधबोध भी उपजा है कि वे परंपरागत दर्शकों के सस्ते मनोरंजन में ही नौटंकी को क्यों गर्क कर रहे हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण संदेश था, जो अतुल यदुवंशी द्वारा आकार पा रही भविष्य की नौटंकी की प्रस्तुतियों से गया और समूचे नौटंकी क्षेत्र में एक आंदोलन-सा खड़ा हो गया।