हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि चारों ओर आवाजें बहुत हैं, मगर सुनने वाले बहुत कम लोग है। ये शोर हर जगह है- परिवारों में, दफ्तरों में, सड़कों पर, रिश्तेदारों में, सोशल मीडिया आदि। हम लगातार कुछ न कुछ कह रहे होते हैं, लेकिन आपाधापी में किसी और की बात सुनने का धैर्य खो चुके हैं। हम सबके पास समय का अभाव है। हाल के वर्षों में हुए कुछ मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययनों ने इस चिंता को वैज्ञानिक रूप से भी रेखांकित किया है।
येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 2025 में बताया कि मानव मस्तिष्क में ‘सुनने’ की प्रक्रिया केवल ध्वनि ग्रहण करने की क्रिया नहीं है, बल्कि इसमें जटिल मानसिक और भावनात्मक प्रक्रियाएं शामिल होती हैं- ध्यान, सहानुभूति और अर्थ-निर्माण। यह दर्शाता है कि जब हमारा ध्यान बंटा हुआ हो या मन थका हुआ हो, तो हम भले ही आवाज सुन लें, अर्थ नहीं पकड़ पाते हैं।
वहीं एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि सक्रिय सुनने का अभ्यास, यानी जब कोई व्यक्ति सचेत रूप से सामने वाले के भावों, शब्दों और मौन को ग्रहण करता है, तो संवाद की गुणवत्ता को गहराई से प्रभावित करता है। दिलचस्प बात यह है कि यह ‘सुनने की क्षमता’ कोई जन्मजात गुण नहीं, बल्कि एक सीखी जाने वाली दक्षता है। यानी अगर हम चाहें, तो सुनने का कौशल दोबारा सीख सकते हैं।
हमने शायद गौर किया होगा कि जब कोई बच्चा गुस्से में खिलौना फेंक देता है, कोई दोस्त अचानक चुप हो जाता है, या कोई सहकर्मी मीटिंग में बेरुखा बैठा रहता है, तो हम अक्सर जल्दबाजी में निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि वह गुस्सैल है… अभिमानी है या ‘उससे बात करना ही बेकार है।’ लेकिन क्या हमने कभी ठहरकर यह सोचा कि उसके भीतर उस क्षण क्या चल रहा था? शायद उसने अपनी बात कई बार कहने की कोशिश की होगी, पर कोई सच में सुनने वाला नहीं था।
‘सुनना’ केवल कानों का काम नहीं, दिल का भी है
‘सुनना’ केवल कानों का काम नहीं, दिल का भी है। जब हम किसी को ध्यान से सुनते हैं, तो हम उसके लिए भीतर जगह बनाते हैं- उसकी तकलीफ, उलझन या अनुभव के लिए। यही जगह आगे चलकर भरोसे में बदलती है। जब लोगों को ‘गुणवत्तापूर्ण रूप से सुना’ जाता है, तो न केवल बोलने वाला, बल्कि श्रोता भी भावनात्मक रूप से संतुलित महसूस करता है। यानी सुनना सिर्फ सामने वाले के लिए नहीं, अपने भीतर शांति पैदा करने की क्रिया भी है।
घर में जब बच्चे की बात सुनी जाती है, तो वह खुलकर अपनी राय रखता है। दफ्तर में किसी सहयोगी की राय को ध्यान से सुना जाए, तो वह अपने काम के प्रति जिम्मेदारी महसूस करता है। रिश्तों में भी यही सच है। जहां सुनने की जगह है, वहां शिकायतें कम और अपनापन ज्यादा होता है।
अपने समाज में संवाद अक्सर ‘बोलने’ के इर्द-गिर्द घूमता है। वक्ता की काबिलियत को सराहा जाता है, श्रोता की सजगता को नहीं। पर असल में समाज में समझ और परिवर्तन की शुरुआत सुनने से होती है। 2024 के एक शोध में यह पाया गया कि ‘सुनने का अभिनय’, जैसे सिर हिलाना, बीच में हां-हां करना संवाद को ऊपर-ऊपर जोड़ता है, लेकिन भीतर से अलगाव बढ़ाता है। असली सुनना तब होता है जब हम बिना निर्णय के, पूरे ध्यान से, सामने वाले की स्थिति को समझने की कोशिश करते हैं।
हम ऐसे समाज में बड़े हुए हैं, जहां गलती को शर्म या दंड से जोड़ा जाता है। बच्चा कुछ गिरा दे, कर्मचारी कोई भूल कर दे, तो तुरंत ताना तय है, लेकिन अगर उस गलती को समझने का अवसर माना जाए, तो वही क्षण सीखने का बन सकता है। सुनना उस सीख की पहली सीढ़ी है, जहां हम निर्णय नहीं, समझ के साथ आगे बढ़ते हैं। मान लिया जाए कि कोई व्यक्ति देर से पहुंचा और हमने झुंझलाकर कहा- ‘तुम हमेशा ऐसे ही करते हो!’ जबकि वह कह सकता था ‘आज रास्ते में किसी को मदद करनी पड़ी।’ हमारी अधीरता ने उस संवाद का दरवाजा बंद कर दिया। सुनना दरअसल हर बार दूसरा दरवाजा खोलने जैसा है, जहां दोष नहीं, समझ प्रवेश करती है।
सुनना आसान तब होता है, जब सामने वाला वैसा हो, जैसा हम सोचते हैं
सुनना आसान तब होता है, जब सामने वाला वैसा हो, जैसा हम सोचते हैं। कठिन तब होता है, जब उसकी भाषा, पृष्ठभूमि या सामाजिक स्थिति हमसे अलग हो। 2025 में प्रकाशित एक अध्ययन में यह पाया गया कि लोग अक्सर ‘पूर्वाग्रह के चश्मे’ लगाकर सुनते हैं, जिससे वे सिर्फ वही शब्द ग्रहण करते हैं, जो उनकी राय से मेल खाते हैं। यही कारण है कि सार्वजनिक बहसें या आनलाइन चर्चा आज अक्सर ‘संवाद’ नहीं, बल्कि ‘मुकाबला’ बन जाती हैं।
शब्द केवल ध्वनि नहीं, ऊर्जा हैं। वे सामने वाले के भीतर उम्मीद जगा सकते हैं या उसे भीतर तक तोड़ सकते हैं। इसलिए सुनना और बोलना- दोनों में समान जिम्मेदारी है कि हमारे शब्द और हमारा ध्यान किसी की गरिमा को आहत न करे, बल्कि उसमें आत्मविश्वास का बीज डालें। समय की जरूरत है एक ऐसा समाज, जो सुनने के अभ्यास को जीवन का हिस्सा बनाए। घर में बच्चे की राय, स्कूल में विद्यार्थी का सवाल, दफ्तर में सहयोगी की शंका या किसी मजदूर की शिकायत- ये सब सिर्फ ‘बातें’ नहीं, सामाजिक समझ की परीक्षा हैं।
सुनना एक लोकतांत्रिक संस्कार है
सुनना एक लोकतांत्रिक संस्कार है। जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, तो हम मतभेदों के बावजूद साथ रहने की कला सीखते हैं। यही वह तैयारी है जो समाज को हिंसा, नफरत और असहिष्णुता से बचाती है। शोध बताते हैं कि सुनने की क्षमता अभ्यास से निखर सकती है, लेकिन उसका पहला कदम हमेशा भीतर से शुरू होता है- ठहरने और ध्यान देने से। अगर हम एक-दूसरे को थोड़ा और ध्यान से सुन सकें- अपने घरों, विद्यालयों, समाज में, तो शायद हम उस दुनिया के थोड़ा करीब पहुंचेंगे, जहां समझ और सहानुभूति की जगह है। आखिर समझने की शुरुआत हमेशा एक साधारण क्रिया से होती है- सुनने से।
