ओडिशा के कालाहांडी जिले में कंधे पर अपनी बीवी की लाश को लेकर पैदल जाते एक आदिवासी शख्स की तस्वीर और वीडियो वायरल हो गया है। बुधवार सुबह टीबी से दाना माझी की पत्नी अमंगादेई की मौत हो गई थी। माझी ने अस्पताल वालों से लाश को घर तक पहुंचाने के लिए गाड़ी मुहैया कराने को कहा, तो उसे मना कर दिया गया। पत्नी की मौत के गम को सीने में दबाए माझी ने उसकी लाश को एक चादर में लपेटा और अस्पताल के बाहर ले आया। जेब में इतने पैसे नहीं थे कि कोई गाड़ी कर सके। कुछ देर वहीं खड़ा रहा। उसकी 12 साल की बेटी अपनी मां को खोने के गम में जार-जार रोए जा रही थी। फिर माझी ने पत्नी की लाश को कंधों पर उठाया और 60 किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर पैदल ही चल पड़ा। 12 किलोमीटर तक वह चलता रहा, मगर रास्ते में किसी की इंसानियत को यह नजारा देखकर चोट नहीं पहुंची। आखिरकार कुछ लड़कों ने माझी को देखा तो अधिकारियों को खबर की। एक एम्बुलेंस की व्यवस्था कराकर माझी की पत्नी की लाश उसके गांव पहुंचाई गई।
ये घटना यह दिखाती है कि हमारी जिंदगी से संवेदनशीलता कहीं खोकर रह गई है। गुरुवार को जब यह खबर मीडिया और सोशल साइट्स पर आई तो लोगों ने ऐसी स्थिति पर बेहद गुस्से का इजहार किया। जनसत्ता डॉट कॉम के फेसबुक पेज पर ही सैकड़ों लोगों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। फेसबुक पर आईं कुछ प्रतिकियाएं:
फैज़ हसन
मैं तभी भारत को एक विकसित देश मानूंगा जब हमारे पास मानवता में विश्वास करने वाले लोग और नेता होंगे। इस व्यक्ति (माझी) के लिए मेरे पास आंखों में आंसुओं के सिवा कहने को कुछ नहीं है। ऐसी सरकार और अधिकारियों को शर्म आनी चाहिए।
इमरान खान
आज वो लोग दिखाई नहीं दे रहे जो हिंदू-मुस्लिम के बीच दरार डालने की बात करते हैं और अपनी-अपनी पार्टियों के गुणगान के चक्कर में एक-दूसरे को गालियां देते हैं। कहां हैं वो लाेग जो कहते हैं कि हमने देश का विकास कर दिया, और कहां है वो जो कहते हैं कि हम देश को बदलेंगे। हम लोग पहले भी गुलाम थे और आज भी गुलाम है। कुछ बदला है तो वो है इंसानियत। आज उन पार्टी के अंधभक्त कहां है जो एम्बुलेंस के आगे अपने नेताओं के सेल्फी वाली फोटो शेयर करते हैं। आज ये तस्वीर हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है।
https://www.youtube.com/watch?v=ADzBio4EB3A
गोपी कबीर
जब सत्ता में भ्रष्टाचार का घुन लग जाता है, तब सत्ता पर काबिज नेताओं को राजनीति का कैंसर हो जाता है। ऐसे में आम जनता के साथ ऐसी घटनाएं आम हो जाती हैं।
अजय यादव
शर्म आनी चाहिय राज्य की सरकार और हॉस्पिटल को। पैसे न होने पर क्या किसी को इस तरह की पीड़ा झेलनी पड़ेगी। वहां पर इंसानियत मर गई है।
बदरू कथत
बड़ी ताज्जुब की बात है जहां एक ओर हिंंदुस्तान अमीर देशों की सूची में इतना ऊपर है, वहीं दूसरी ओर यह चेहरा। काश यह फर्क कोई नेता समझ पाता। क्योंकि कथनी और करनी में अंतर है।
निगम ज्वाला
ये हमारे सामाजिक उत्तरदायित्व की विफलता है। सरकार से पहले ये सोचिये लोग सिर्फ तमाशबीन क्यों बने हुए थे। बारह साल की उस बेटी का हृदय विदारक विलाप कोई देख-सुन नहीं रहा था क्या?
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