वैसे तो शास्त्र से लेकर लोक तक सब आलस्य की निंदा करते हैं। आमतौर पर आलस्य को गर्हित माना जाता है।आलस्य की भर्त्सना करना उपदेशकों का प्रिय विषय है। मैंने आलस्य की भर्त्सना करते हुए दो ढाई क्विंटल के ऐसे उपदेशकों को भी देखा है जो स्वयं हिलना भी गवारा नहीं करते। किस्सा कोताह यह कि आलस्य के पीछे हर आदमी लट्ठ लेकर पडा रहता है। यहां तक कि परम आलसी भी या तो आलस्य की निंदा करते पाए जाते हैं या फिर चुप रहते हैं। इस तरह आलस्य और आलसी निरे अकेले और हाशिए पर पड़े हैं। सारी दुनिया से असहमत होते हुए मैं आलस्य के पक्ष में कुछ कहना चाहता हूं।

इस भूमिका से ही आपको यह अंदाज तो लग गया होगा कि मैं परले दरजे का आलसी हूं। जी हूं, और इसे स्वीकार करने में फख्र का अनुभव करता हूं। मुझे पहली बार अपने आलसी होने की अनुभूति तब हुई जब पहले पहल मेरी दाढ़ी निकल रही थी। मेरी उम्र के बहुतेरे साथी यह इंतजार कर रहे थे कि कब दाढ़ी निकले और वे बनाना शुरू करें। बहुतों ने दाढ़ी बनाने का सामान पहले ही खरीद कर रख लिया था और रोज आइने के सामने खड़े होकर दाढ़ी की प्रगति का बारीकी से जायजा ले रहे होते। ऐसे माहौल में भी इस कार्य की ओर मेरा उत्साह बिल्कुल नहीं था। मैने दाढ़ी को अपनी जगह कायम रहने दिया। मेरी दाढ़ी के पीछे लोग अपने मन से कारण खोज लेते कि शायद कम्युनिस्ट है, इसलिए दाढ़ी रखी होगी या इंटेलेक्चुअल है इसलिए रखी होगी। कुछ कुछ यह भी मान लेते कि साधु तबीयत का होगा इसलिए रखी होगी।

किस्सा कोताह यह कि मुझे मुफ्त में ऐसे तमगे मिलते रहे जिसका मैं कत्तई हकदार नहीं था। मैं भी मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है, के अंदाज में मगन रहता। मित्रों, मेरी दाढ़ी न बनाने या उसे बढ़ा लेने के मूल में शुद्ध आलस्य ही है। इस तरह आज मैंने अपने जीवन के एक ऐसे सच का स्वीकार किया जो बिना महान हुए किया ही नहीं जा सकता। रूसो की आत्मस्वीकृतियां या अपने गांधीजी की जीवनी इसका प्रमाण है। वैसे इस मामले में मैं कोई पहला व्यक्ति नहीं हूं। मुझसे पहले हिंदी के महाकवि त्रिलोचन ने इस सच को स्वीकार किया है। वर्ष छानबे संतानबे में वे मेरे मेहमान थे। एक दिन मैंने सहज ही पूछ लिया कि आप दाढ़ी क्यों रखते हैं। त्रिलोचनजी के चेहरे पर बच्चों जैसी निश्छल मुस्कान तैरी और उन्होंने कहा, ‘शुद्ध आलस्य।’ यह उत्तर सुनते ही मैं गद्गद् हो गया और मेरे आत्मविश्वास का सूचकांक यक-ब-यक बढ़ गया, तभी से मैंने अपने आलस्य को गौरव की तरह धारण करना शुरू कर दिया।

सुबह के बहुत सारे कामों में बेवजह दाढ़ी बनाने का एक और काम जोड़ लेना मुझे निहायत बेवकूफाना हरकत लगती है। लिहाजा जिस समय साथी लोग दाढ़ी बनाने में वक्त जाया कर रहे होते हैं उस समय अपने राम बिस्तर पर लेटे लेटे मन के पुए पकाया करते हैं या फिर कल्पना के घोड़े दौड़ाया करते हैं। बिस्तर पर पड़े पड़े कल्पना के घोड़े दौड़ाने का जो मजा है उसे कोई धुरंधर कर्मठ इंसान क्या खाक जानेगा।

तो भाइयों ! और बहनों ! मुझे आलस्य का मजा मिलने लगा। हर्रे लगे न फिटकरी रंग चोखा। चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहो और इंटेलेक्चुअल या साधु होने का खिताब पाते रहो । हालांकि इस मनोसुख में कबीरदास पलीता लगाते रहे-दढ़िया बढ़ाय जोगी भए बन बकरा। लेकिन यहां तक ध्यान ही किसका जा रहा है। सो अपन मगन होकर आलस्य के झूले में झूलते रहे।

मेरा मानना है कि दुनिया खूबसूरत और रहने लायक इसलिए है कि इसमें आलसी बहुतायत में पाए जाते हैं। यह ज्ञान मैंने अपने जीवन के लंबे अध्ययन और अनुशीलन से प्राप्त किया है। वैसे तो मेरी बात की पुष्टि बहुत सारे भगवानों और भगवान जैसे लोगों के जीवन से होती है, लेकिन आज के जमाने में किसी भगवान के बारे में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए आप खुद मन ही मन विचार करें तो पाएंगे कि बहुत से भगवान आलस्य के सिरमौर हैं। भगवानों की बात आप पर छोडते हुए मैं कुछ इंसानों की बात करूंगा। न्यूटन के बारे में सुना है कि वह सेब के पेड़ के नीचे बैठा था कि एक सेब टपका। दौड़ कर सेब लपकने के बजाय वह विचारने लगा कि यह ऊपर से नीचे की ओर क्यों गिरा? ऊपर या इधर उधर क्यों नहीं गया।और यही सोचते सोचते न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का नियम खोज निकाला। हम आप जानते हैं कि भौतिकी के अकेले इस नियम से दुनिया में कितनी क्रांति हुई।

कल्पना करें कि न्यूटन महोदय अगर आलसी न होते तो ऐसा कर पाते। बिल्कुल नहीं। वे अगर ‘स्मार्ट’ होते तो वे किसी और की नजर पडेÞ, इसके पेशतर लपक कर सेब उठाते और अपना दांत गड़ा देते। इसी तरह आर्किमिडीज महाशय को देखें। टब में नहाने गए और उसी में पडे हुए हैं। यह तो आलसी होने का ही सुबूत है। वे श्री म या श्री फ की तरह चटक होते तो नहा धोकर फट टाइट हो जाते और चाहे जो या जैसा होता धंधे पर निकल जाते। लेकिन टब में पड़े पड़े प्लवन का सिद्धान्त निकाला। भाप के इंजन से दुनिया में औद्योगिक क्रांति लाने वाले जेम्स वॉट के बारे में तो सब जानते हैं कि वे बेसिकली निकम्मे और कामचोर तबीयत के इंसान थे। तो जमात तो आलसियों की ही हुई।

अब उनका देखिए जो आलसी नहीं हैं। आजकल भ्रष्टाचार की चर्चा राजनीति के एजेंडे पर छाया रहता है। सभी प्रख्यात भ्रष्टाचारियों की सूची बनाइए और देखिए किसी पर आलसी होने का इल्जाम नहीं लग सकता। इसी तरह कुख्यात अपराधियों, दिग्गज चमचों किसी का भी रिकार्ड देख लीजिए उन्हें आलसी नहीं ठहरा सकते। सहाराजी हों माल्या जी हों या आपूजी बापूजी कोई हों उन पर आलसी होने का आरोप नहीं लग सकता। कहने का मतलब यह कि सारी बुराइयां वहीं फलती फूलती हैं जहां आलस्य नहीं हैं।

इसलिए मुझे लगता है कि दुनिया बुराइयों से अटी पड़ी है तो इसलिए कि साजिशन आलसियों को हाशिए पर डाल दिया गया है। जरूरत आलस्य और आलसियों को अपना हक और हकूक हासिल करने के लिए और दुनिया को सुंदर बनाने के आलसियों का एक दल बनाना चाहिए। मैंने तो मन ही मन पार्टी का नाम भी रख लिया था आलसी आदमी पार्टी। उसका घोषणा पत्र भी तैयार कर लिया। मैंने मन ही मन आलसियों का एक दल बना लिया। उसका घोषणा पत्र भी तैयार कर लिया। इसकी प्रेरणा मुझे और राजनीतिक दलों से मिली। मैंने पाया कि घटिया से घटिया व्यक्ति या समूह जब राजनीतिक दल बनते हैं तो वे शानदार घोषणा पत्र लिख मारते हैं। तो फिर हम क्यों न बनाएं। हमारे घोषणा पत्र का सार संक्षेप इस प्रकार है-युगों युगों की निंदा और भर्त्सना से आलसियों को बचा कर उनको गरिमा प्रदान करना। आलसियों को हीनताबोध आदि से दूर करके समाज की मुख्यधारा में शामिल करना। ‘दुनिया के मजदूर एक हों सही है तो दुनिया भर के आलसी भी एक हों।’ सभी राजनीतिक दल सतर्क हो जांय आलसियों का दल बन रहा है।  (सदानंद शाही)