उसके सामने नीला का चेहरा झिलमिलाने लगा। दो चमकती आंखें उसकी आंखों में झांक रही थीं। मानो कोई फूल धीरे-धीरे घुल रहा हो अपनी खुशबू बिखेरता हुआ। इसके साथ ही उसके मन में बसी पिता के प्रति कड़वाहट धीरे-धीरे घुलने लगी।

नीला उसे छोड़ कर दरवाजे के अंदर चली गई। वह सड़क पर अकेला रह गया। हालांकि उस समय भी काफी लोग आ-जा रहे थे। दुकानों से रिस कर आती रोशनी सड़क पर पसरी हुई थी। पर इसके बावजूद वह अकेला हो गया था। उसने अपने सिर को हल्के से झटका और इस सबको आत्मसात करने के लिए खुद को तैयार करने लगा। उसको एक-एक कदम उठाना भारी लग रहा था। एक बार तो मन हुआ कि ‘इसी सड़क पर बैठ जाए, खुद को तसल्ली देने के लिए!’ वह इधर-उधर देखने लगा। उसके पास से साइकिल, आॅटो रिक्शा और लोगों की आवाजाही वैसे ही जारी थी। सामने ही गुवाड़ी का दरवाजा दिख रहा था, जिसमें नीला रहती है। उस दरवाजे को देख कर वह ठिठक गया और अपना विचार मुल्तवी कर दिया। वह सोचने लगा, मुझे इस तरह किसी ने नीला के घर के सामने बैठा देख लिया तो बेबात ही बंतगड़ खड़ा हो जाएगा। मुझे यहां से तुरंत चले जाना चाहिए। पर उसके पैर तो मानो मन मन भर के हो गए थे। आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहे थे। उसे खुद पर आश्चर्य होने लगा, ‘अचानक यह सब कैसे हो गया? अभी थोड़ी देर पहले जब नीला साथ में चल रही थी, तब तो उसके अंदर न जाने कितने घोड़ों की ताकत थी!

पर अब जब वह गुवाड़ी के दरवाजे के अंदर चली गई है तो उसके अंदर के हिनहिनाते घोड़े रस्सी छुड़ा कर न जाने कहां चले गए। जैसे गुब्बारे की हवा निकल गई हो वैसे ही उसके अंदर का उत्साह हवा हो गया। वह हकबकाई आंखों से कभी खुद को, तो कभी गुवाड़ी के उस दरवाजे को देखने लगा, जिसके अंदर जाते ही नीला गायब हो गई थी। वह विस्फारित आंखों से कुछ देर तक उस दरवाजे को देखता रहा, मानो अभी वह जल कर राख हो जाएगा और सब कुछ आरपार दिखने लगेगा।  थोड़ी देर बाद वह आगे बढ़ गया, अपने अंदर की हताशा को परे धकेलता हुआ। उसने अपनी थकान को किसी उतरन की तरह बाहर फेंका और गहरी सांस ली। सांस के साथ ही उसने हिम्मत को भी अपने अंदर गटका और अंगुलियों को बालों में फिराते हुए खुद से बोला, ‘यार! इस तरह तो तू खुद से ही हार जाएगा।’ वह अपने आसपास देखने लगा, तो उसकी आंखों में उम्मीद की चमक उतरने लगी, ‘यह सही है कि दुनिया बहुत खराब है, यहां किसी के साथ कुछ भी हो सकता है।’ इस विचार के आते ही उसके चहरे पर हंसी आ गई और आंखों में चमक। रात घिर आई थी। दुकानों से आती रोशनी से सड़क पर उजाला पसरा हुआ था। अब वह अपनी सामान्य गति से चलते हुए घर की तरफ बढ़ चला। तभी किसी ने पीछे से आवाज लगाई, ‘अरे यार सुमित! इतनी जल्दी में तू कहां जा रहा है?’
उसने पीछे मुड़ कर देखा- रूपेश खड़ा मुस्कराते हुए उसे बुला रहा था। वह मुड़ कर रूपेश के पास चला आया। रूपेश नीला का छोटा भाई है और उसका दोस्त। जब उसके पास पहुंचा तो वह चहकते हुए बोला, ‘अरे! तू क्या कर रहा है यहां रूपेश?’ ‘अरे यार! यहीं पर तो मेरा घर है न… क्या तुझे नहीं पता?’

वह कुछ नहीं बोला, बस रूपेश को देखता रहा। अपनी अंगुली के इशारे से उस दरवाजे को दिखाते हुए रूपेश बोला, ‘वो दरवाजा दिख रहा है न, वहीं हमारा घर है। आओ न घर चलें।’
‘नहीं यार, अभी नहीं।’ बोलते हुए उसने रूपेश को गौर से देखा। इस बात की तस्दीक करने के लिए कि ‘कहीं उसने उसे नीला के साथ आते हुए तो नहीं देखा। क्योंकि दरगाह वाले जिस मैदान में वह अभी अपने दोस्तों के साथ खड़ा है यहां से वह सड़क साफ दिखती है, जिससे अभी हम आए थे।’ इस विचार के मन में आते ही उसके मन में धुकधुकी होने लगी। वह इधर-उधर देखने लगा। उसने रूपेश से पूछा, ‘इस समय तुम यहां क्या कर रहे हो?’ ‘बस ऐसे ही, दोस्तों से बातें कर रहा था, तभी तुम दिख गए।’ रूपेश के चेहरे पर अपनेपन की चमक थी। रूपेश उसके चेहरे की तरफ देखते हुए बोला, ‘तुम इतनी गरमी में कहां से आ रहे हो?’
उसे लगा जैसे रूपेश धीरे-धीरे उस बिंदु पर आ रहा है, जिसे वह किसी को भी नहीं बताना चाहता। कुछ देर तक वह कुछ नहीं बोला, रूपेश का चेहरा देखता रहा और यह अनुमान लगाने की कोशिश करता रहा कि उसने यह सवाल यों ही पूछ लिया है या कि इसका कोई गहरा अर्थ है। इसी बीच रूपेश ने पूछा, ‘यार सुमित तुमने बताया नहीं कि इस समय कहां से आ रहे हो?’ ‘कुछ नहीं यार, ऐसे ही एक दोस्त के साथ हवाबाजी कर रहा था…।’ बोलते हुए वह मुस्करा दिया। रूपेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर बारी-बारी से अपने दोस्तों को देखने लगा। और फिर सब एक साथ ठहाका लगा कर हंस पड़े। वह भी उनके साथ हंस पड़ा।
अब तक रात घिर आई थी। वे

चारों अंधेरे में खड़े थे। बस उनकी आंखें चमक रही थीं। अंधेरे में हर एक की हल्की-सी आकृति भर नजर आ रही थी। अंधेरे ने सबके ऊपर गहरे रंग का परदा डाल दिया था। बस उनकी आवाजें सुनाई दे रही थीं।
वहां खड़े हुए बोरियत महसूस होने लगी, तो उसने कहा, ‘अच्छा रूपेश अब चलता हूं।’ दरअसल, वह इस समय भी नीला के साथ बगीचे और फिर वहां से यहां तक आते हुए रास्ते के सारे दृश्यों को रिवाइव करके फिर जीना चाहता था। वह इन चार घंटों के एक-एक पल को फिर से जीना चाहता था। ‘ठीक है सुमित, तो फिर मिलते हैं यार।’ बोलते हुए उसने रूपेश की कमर पर हल्के से धौल लगाई, ‘अब मैं भी घर जाता हूं, काफी देर हो गई है। घर पर मां इंतजार कर रही होगी।’ चारों उस अंधेरे मैदान से सड़क पर चले आए। सड़क पर अब भी दुकानों की रोशनी पसरी हुई थी। लैंपपोस्ट टिमटिमा रहे थे। सुमित ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘अच्छा दोस्तो! फिर मिलते हैं।’ चेहरे पर मुस्कान की परत चढ़ी हुई थी। वह घर की तरफ चल दिया। रूपेश भी गुवाड़ी के दरवाजे के अंदर प्रविष्ट हो गया और उसके दोनों साथी अपनी-अपनी राह चले गए।
घर पहुंचते ही सुमित का सामना मां से हो गया। दरवाजे के अंदर घुसते ही उन्होंने पूछा, ‘अरे बेटा, इतनी देर हो गई, कहां चला गया था?’ बोलते हुए मां स्नेह से उसे देख रही थी। तब उसने इधर-उधर नजर घुमाते हुए कहा, ‘कहीं नहीं गया था मां… यहीं पर तो था।’ कहते हुए उसके मन में फिर से संदेह की नदी बहने लगी, ‘कहीं मां को भी वह सब तो पता नहीं चल गया।’ यह विचार मन में आते ही वह मां को संदेह से देखने लगा।
मां बोली, ‘मैं काफी देर से तेरी ही राह देख रही थी बेटा, मेरा तो मन बैठा जा रहा था, तुमने आने में कितनी देर कर दी?’

‘बस मां, एक दोस्त के पास चला गया गया था… कुछ ऐसे ही…।’ बोलते हुए वह बीच में ही चुप लगा गया और मां का चेहरा देखने लगा। मगर वह तो लगातार उसे ही देख रही थी। उसे लगा कि वह किसी एक्सरे मशीन से गुजर रहा है। उसे असुविधा होने लगी। उसने कहा, ‘मां! इतनी-सी देर में ऐसा क्या हो गया, जो आज तुम इतनी उतावली हो रही हो?’ ‘कुछ नहीं रे बेटा! तुझे घर से गए चार-पांच घंटे हो गए थे, तो तेरी याद आ रही थी…।’ बोलते हुए मां की आंखें भर आर्इं। वह उनके पास आते हुए बोला, ‘मां तुम भी न… क्यों इतनी चिंता करती हो? अब मैं कोई छोटा बच्चा तो रहा नहीं। बड़ा हो गया हूं! तुम खुद ही देख लो न, कितना तो बड़ा हो गया हूं।’ बोलते हुए वह मां के सामने ही चकरी-सा घूम गया।  हां हां… पता है, अरे तभी तो चिंता हो गई है। कहीं तू रास्ते से भटक न जाए। जब तू छोटा था तब तो पूरी तरह हम पर निर्भर था, पर अब तो…!’ बोलते-बोलते वह रुक गई और उसे देखने लगी।  ‘छोेड़ो न मां… तुम भी क्या बात ले के बैठ गई… अब जब मैं बड़ा हो गया हूं, तो तुम चिंता कर रही हो। जब मैं छोटा था तब भी तो तुम चिंता करती थी। तुम तो बस ऐसे ही…।’
‘बेटा, तू क्या जाने मां का दर्द… जब तेरा बच्चा होगा और वह बड़ा होकर इस तरह घर से गायब हो जाया करेगा चार-पांच घंटे के लिए, तब तुझे इस तकलीफ का पता चलेगा।’ बोलते हुए उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े। ‘तुम भी न मां…!’ वह मां से लिपटते हुए बोला, ‘मैं यहीं पर तो था। ऐसे कहां चला गया था, जो तुम इतनी परेशान हो रही हो? अगर सच में कहीं चला जाऊंगा तो फिर तुम क्या करोगी मां?’ ‘नहीं बेटा, ऐसा मत बोल… मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं।’ बोलते हुए जैसे वह अपने आपको संभालने लगी। और जैसे फिर से याद करते हुए बोली, ‘अब तो तुम बड़े हो गए हो… जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो फिर…!’ बोलते-बोलते वह अचानक रुक गई। वह मां के पास ही खड़ा था कि तभी पिताजी आ गए। अभी तक वे घर में नहीं थे, शायद किसी काम से गए थे। पिताजी को इस तरह सामने देख कर वह सकपका गया। आते ही उन्होंने पूछा, ‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’

एक बार तो मन में आया कि वह कोई जवाब न दे, पर तभी नीला की बात ध्यान में आई, ‘वे भी तो हमारी भलाई के लिए चिंतित रहते हैं न!’ उसने धीरे से कहा, ‘ठीक ही चल रही है।’ उसने अपनी नजरें झुका ली। मानो अपने ही अंदर सिमट रहा हो, कछुए की तरह। ‘देखो बेटा! इस बार तुम अपनी पढ़ाई का विशेष ध्यान रखना, यह तुम्हारा बोर्ड के इम्तहान का साल है। बारहवीं का रिजल्ट ही पूरी जिंदगी देखा जाता है, और इसी से तुम्हारा भविष्य निर्धारित होगा। तो इस बार जरा पढ़ाई पर ध्यान देना…।’ वह कुछ नहीं बोला, बस उनको देखता रहा। ‘और हां, वो तुम्हारी ट्यूशन कैसी चल रही है?’ वे उसे ही देख रहे थे। वे फिर बोले, ‘किसी और चीज की जरूरत तो नहीं है, अगर हो तो बताना…।’ वह पिताजी को देखने लगा। उस समय वे भी उसे ही देख रहे थे। पिताजी फिर बोले, ‘इस साल तुम अपने आपको पढ़ाई में झोंक दो। सारी मटरगश्ती अगले साल कर लेना। तुम अच्छी तरह से कान खोल कर सुन लो, इस बार तुम्हारा अच्छा रिजल्ट आना चाहिए। मैं इसके अलावा कुछ नहीं सुनना चाहता, तुम्हारा अच्छा रिजल्ट चाहिए मुझे, समझे।’ इस बीच उनकी तीखी नजरेंउसका एक्सरे करती रहीं। वह कुछ नहीं बोल पाया। कभी मां को तो कभी जमीन को देखता रहा। यों ही खड़ा रहा देर तक। अब यहां क्यों खड़े हो, जाओ और पढ़ाई करो।’ पिताजी ने लगभग डपटते हुए कहा।
वह सकपका गया। मानो किसी ने उसे बीच बाजार बेइज्जत कर दिया हो। कुछ समय तक तो वह वहीं खड़ा रहा, सकपकाया हुआ। फिर मां को देखने लगा। वे भी उस समय उसे ही देख रही थीं। वह कमरे में चला आया। कमरे में आने के काफी देर बाद तक पिताजी के एक-एक शब्द उसके कानों में गूंजते रहे। उसका मन उद्वेलन से भर गया।

उसने एक पल को किताबों को देखा, फिर दूसरे ही पल उसकी आंखों के सामने नीला का चेहरा झिलमिलाने लगा। नीला का खयाल आते ही उसके मन में कोमल विचारों का दरिया छलछला कर बहने लगा। इसके साथ ही कल्पना की मधुर छुअन उसके अंतस को सहलाने लगी। उसकी धड़कनों में अब नीला धड़क रही थी। उसके साथ बिताया समय साकार होने लगा। उसके कोमल हाथों की छुअन वह अब भी महसूस कर रहा था। उसी छुअन को पकड़े हुए वह आगे बढ़ना चाहता था, कि तभी उसे नीला की कही बातें याद आ गर्इं, ‘वे भी तो आखिर हमारे भविष्य के लिए चिंतित हैं न…!’ उसकी कल्पना के घोड़े जैसे अचानक ठिठक कर रुक गए। फिर उसने अपने अंदर के सभी विरोधी विचारों को वहीं का वहीं विराम दे दिया। बरबस ही उसके मुंह से निकला, ‘नीला, तुमने मुझे भटकन के अंधे कुएं से निकाल लिया… कोई और शायद इस तरह नहीं कह पाता और मैं तो सोच भी नहीं पाता इस तरह से… तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद नीला…।’ इस विचार के आते ही उसके चेहरे पर हंसी पसर गई। उसके सामने नीला का चेहरा झिलमिलाने लगा। दो चमकती आंखें उसकी आंखों में झांक रही थीं। मानो कोई फूल धीरे-धीरे घुल रहा हो अपनी खुशबू बिखेरता हुआ। इसके साथ ही उसके मन में बसी पिता के प्रति कड़वाहट धीरे-धीरे घुलने लगी। वह मुस्करा पड़ा। अब उसकेआसपास अपनेपन की खुशबू फैली हुई थी, जिसमें वह पूरी तरह सराबोर था।