कि मनुष्य को कभी स्त्री की तरह

या पुरुष की तरह
या वर्ग की तरह
या जाति की तरह
कोंच-कोंच कर देखो
तब फिर
खलील जिब्रान ने क्यों कहा था-
‘मैंने एक स्त्री का चेहरा देखा था
और मैं
उन सब बच्चों के बारे में जान गया था
जो अभी जन्मे भी नहीं थे’
क्या तुम्हें याद नहीं-
अजन्मों में कब से
रोप रहा मनुष्य
अपने सपने
अपनी आकांक्षाएं
अपना इच्छित भविष्य
उसकी चाहतों के
बिरवों को तो
सदा से
सींच रहा
सर्वहिताय
रचना-परिसर…

यह कौन-सा राजकुल है

चाहते बहुत रहे
कंठस्थ रहें कविताएँ
गुंजित मन के गलियारे
तहा कर रख दी जाएं
जब हाथों को कहीं जाना हो
आन मिले सांझ ढले
जब आंखों का रिश्ता अक्षरों से धूमिल हो चुके
चाहते बहुत रहे
खिड़की की चौखट पर
टिकी रहें टकटकियां
दीखे आकाश
उड़ान
पेड़ों की फुनगियों से फिसलते
धूप के पांव
सुदूर
संवलाई गोलाई पर
झमाझम बरसात
चाहते बहुत रहे
पक्की दीवारों को लांघकर
गोधूलि में
उठा करें
प्रार्थनाओं के समवेत स्वर
सबके होने के लिए बचा रहे
सबों का
सुखमय होना
चाहते तो इतना तक रहे कि
छिड़काव के बाद तमतमाती छतों और
खरखरी खाटों पर बिछे रहें
दरियों के बिछावन
बेसुरे भोंपू की चीखों के बीच भी
बिखरी रहें
फुसफुसाहटें
तारों के झिपने को देखा करें
उनींदी आंखें
क्या हुआ कि गूंगी हो गई शताब्दी
ठुंस गए झरोखे
गूंजों
टकटकियों
प्रार्थनाओं
फुसफुसाहटों ने त्याग दिए ठिकाने
अभी तक तो
अंधड़ के आने को
देख लिया करते थे सयाने
यह कौन-सा राजकुल है
जो आ रहा है
कि इतना सब जा रहा है।