आधुनिक भारत का इतिहास इस लिहाज से विलक्षण माना जाएगा कि यहां समाज के विभिन्न हिस्सों ने अपने कृतित्व और जागरूकता के सुलेख लिखने के लिए स्वाधीनता प्राप्ति का इंतजार नहीं किया। दिलचस्प है कि इस दौरान कीर्ति, यश और नायकत्व के तारीखी पन्ने महिलाओं के हिस्से भी खूब आए। आलम तो यह है कि इस गौरवशाली इतिहास के पन्नों में खोए कई बड़े किरदारों के नए सिरे से जिक्र के साथ देश में आज सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श के नए तर्क गढ़े जा रहे हैं। हिंदुस्तानी तारीख का एक ऐसा ही सुनहरा नाम है झलकारी बाई, जिनके बारे में कहा जाता है कि उनकी वीरता और तार्किक प्रतिबद्धता को लेकर उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए थी।
झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी के पास भोजला गांव में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सडोबा सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। दलित समुदाय की यह विलक्षण बेटी बचपन से ही घुड़सवारी और हथियार चलाने में कुशल थी। परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण झलकारी प्रारंभिक शिक्षा हासिल नहीं कर पाई थी। झलकारी जब बहुत छोटी थी तभी उनकी मां का निधन हो गया था, पर पिता ने एक बेटे की तरह उनका पालन पोषण किया। झलकारी बाई ने 1857 में झांसी के युद्ध में हिंदुस्तानी बगावत का दिलेरी के साथ झंडा बुलंद किया था।
दिलचस्प है कि लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के कारण रानी लक्ष्मीबाई अपने उत्तराधिकारी को गोद नहीं ले सकती थीं। इसी के विरोध में रानी और उनकी सेना ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का निर्णय लिया। परंतु महारानी लक्ष्मीबाई के ही सेनापतियों में से एक दूल्हेराव ने अंग्रेजो के लिए किले का द्वार खोल दिया, जिसके बाद ब्रितानी सेना ने किले पर हमला कर दिया। इस लड़ाई में जब रानी लक्ष्मीबाई की हार तकरीबन निश्चित हो रही थी तो झलकारी और अन्य सेनापतियों ने रानी को किले से सुरक्षित निकलने की सलाह दी। सलाह मानते हुए रानी अपने कुछ विश्वासपात्र सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं और उधर झलकारी ने रानी की तरह वेशभूषा धारण कर झांसी की सेना का नेतृत्व किया।
झलकारी बाई की मृत्यु को लेकर आज भी संशय बरकरार है। 
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई को सुरक्षित किले से बाहर निकालने के दौरान उन्हें अंग्रेजों ने बंदी बना लिया पर बाद में छोड़ दिया। अलबत्ता कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि झलकारी झांसी के किले में ही अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई थीं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को नमन करते हुए लिखा है- ‘जाकर रण में ललकारी थी, वह तो झांसी की झलकारी थी, गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी!’ झलकारी बाई के बारे में इतिहास के इतर भी कई तरह के किस्से प्रचलित हैं।
इनमें से एक किस्से के मुताबिक एक बार गांव में जब डकैतों ने हमला किया तो गांव ने अपने बूते डकैतों से लोहा लिया। इसी तरह एक किस्सा या मान्यता के अनुसार झलकारी ने एक बार गांव के लोगों की जंगल से भटकर कर आए बाघ से रक्षा की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि झलकारी ने बहादुरी के साथ न सिर्फ बाघ का सामना किया बल्कि उसे मार गिराया। उम्र के बहुत कम वसंत देखने के बावजूद झलकारी का शौर्य भारतीय महिलाओं के हिस्से आया ऐसा गौरव है, जिसकी चमक आज भी बरकरार है।
