यह बात थोड़ी घिसी-पिटी जरूर हो गई है, लेकिन सही है कि हमारा समय बढ़ती विस्मृति का समय है। नितांत समसामयिकता की ऐसी चकाचौंध है कि हम अक्सर याद नहीं करते कि पहले क्या हुआ था। कौन लोग थे, उन्होंने क्या किया था? सिर्फ समाज में ऐसा नहीं हो रहा है, साहित्य में भी ऐसा ही हो रहा है, जबकि साहित्य का एक काम समाज को याद दिलाना है। वह सामाजिक स्मृति का संग्रह या कोष भी होता है। भूलने के विरुद्ध याद करना, करते रहना सामाजिक प्रतिरोध है- रेडिकल कार्रवाई है।
साहित्य में स्मृति के बिना कल्पना पूरी तरह से खिल नहीं सकती, न ही कुछ सार्थक नया कर सकती है। कई बार इस पर इसरार करने का मन होता है कि स्मृति सार्थकता का कारक होती है और इसे याद रखना चाहिए। इतिहास, परंपरा, स्मृति की जो भयावह दुर्व्याख्याएं हो रही हैं, जिन्हें सत्ता का गुपचुप समर्थन मिल रहा है, वे हमारी मानसिकता और स्मृति, कल्पना और सृजन, स्वतंत्रता और संवाद सभी को संकीर्ण करने पर उतारू हैं। इससे गाफिल रहना या इसके प्रति उदासीनता बरतना लगभग सांस्कृतिक अपराध में शामिल होने की तरह है: सांस्कृतिक विश्वासघात तो वह निश्चय ही है।
स्मृति की कुछ कठिनाइयां और उलझनें भी हैं। हम चुन कर याद करते हैं, चुन कर भूलते हैं। पिछले दिनों ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार ने अपने एक संपादकीय में एक पश्चिमी इतिहासकार के हवाले से यह बताया कि सन 1700 में, जब भारत पर मुगल शासन था तब, संसार की कुल दौलत का एक चौथाई हिस्सा यानी पच्चीस प्रतिशत भारत के पास था, जो ब्रिटिश शासन में घट कर एकाध प्रतिशत तक पहुंच गया था। चिंतक धर्मपाल ने ब्रिटिश दस्तावेजों के संदर्भ से यह स्थापित किया कि उनके आने के पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भारत में साक्षरता का स्तर यूरोप के स्तर से कहीं ऊपर था। हमारे यहां वाद-विवाद-संवाद की एक लंबी और अटूट परंपरा थी, जो धर्म-दर्शन-महाकाव्य-साहित्य आदि में जीवंत और अनिवार्य थी। अब हम एक ऐसा वयस्क लोकतंत्र हैं, जिसमें प्रश्न पूछना देशद्रोही या धर्मद्रोही होना बताया जा रहा है।
अपने चारों ओर निरंतर बढ़ते अंधेरों में ऐसे उजले पहलुओं को याद करने से हमारा मनोबल बढ़ता है और हमारा संघर्ष, अगर वह बहुत शिथिल नहीं पड़ गया है, उद्दीप्त होता है। हमारी परंपरा में अनेक अवांछनीय तत्त्व रहे हैं: उनकी शिनाख्त और उनसे बचने की कोशिश उजले और उजला बनाने वाले काम हैं। अपने आलोचक विवेक को जगाए रखना चाहिए ताकि हम अपने वर्तमान की सजग जिम्मेदार समीक्षा करते रहें, उसमें अपने कर्म के भूगोल को अवस्थित करते रहें और अपने उत्तराधिकार को भी सम्यक ढंग से समझते रहें। हम आकस्मिक घटना नहीं हैं: हमारे पीछे हजारों बरस पुरानी सभ्यता का बल है। सभ्यता के इस उपक्रम को हम स्मृति, कल्पना, प्रश्नाकुलता और आत्मालोचना से ही जारी रख सकते हैं। याद करना जटिल कार्रवाई है, पर भूलना तो अक्षम्य गैरजिम्मेदारी और कदाचरण ही हैं।
साहित्य का अभिलेखन और प्रस्तुति:
चूंकि हिंदी समाज, कुल मिला कर, अपने ही साहित्य के प्रति उदासीन और बेखबर समाज है, इसकी उम्मीद करना भी व्यर्थ है कि उसकी सामाजिक संस्थाएं साहित्य के संवर्द्धन या व्यापक पहुंच के लिए कुछ कोशिश करें। पश्चिम में, जिसकी विवेकहीन नकल इन दिनों हमारा स्वभाव ही बन गई है, साहित्य और कलाएं नागरिक जिम्मेदारी भी मानी जाती हैं। ज्यादातर संग्रहालय, पुस्तकालय आदि नगरपालिकाओं के अंतर्गत होते हैं और ये नागरिक संस्थाएं उनके प्रसार-प्रचार के लिए विशेष प्रयत्न लगातार करती रहती हैं: धारणा यह है कि अपने नागरिकों को सांस्कृतिक रूप से साक्षर और सजग करना नागरिक जिम्मेदारी का अंग है। राजनीतिक स्तर पर भी यूरोपियन संघ हर वर्ष श्रेष्ठ पाठक चुनने की एक बड़ी योजना चलाता है। इस सिलसिले में हिंदी अंचल की सरकारों, नगरपालिकाओं और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की भूमिका नगण्य रही है। हालत यह है कि हमारे पास बीसवीं शताब्दी के कुछ मूर्धन्यों जैसे निराला, प्रेमचंद, मुक्तिबोध आदि की आवाज में कोई रिकार्डिंग तक नहीं बची है!
एक दशक से अधिक पहले महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय के अंतर्गत लगभग पैंतीस कवियों के काव्यपाठ का विशेष आयोजन कर वीडियो रिकॉर्डिंग कराई गई थी। ऐसा ही बड़े गद्यकारों की रिकार्डिंग करने का इरादा था। पता नहीं आगे इस योजना का क्या हुआ। हमारे कविमित्र नरेश सक्सेना इन दिनों अपने सीमित साधनों से कुछ समवयसी और युवतर कवियों की वीडियो रिकार्डिंग कर रहे हैं। यह बहुत जरूरी काम है और उन्हें इसके लिए सभी का समर्थन मिलना चाहिए। उम्मीद है कि यह मिलेगा।
चूंकि पिछले कुछ दशक साहित्य की अपनी राजनीति की चपेट में भी रहे हैं, जिन संस्थाओं ने जैसे एनसीइआरटी, साहित्य अकादेमी ने जो फिल्में आदि बनाई हैं उनमें अपने विचार की पक्षधरता एक निर्णायक तत्त्व रही है। उदाहरण के लिए नागार्जुन पर फिल्म बनी है, अज्ञेय पर नहीं। लेकिन इस बात को भी स्वीकार करना चाहिए कि कई व्यक्तियों ने निजी पहल कर थोड़ा-बहुत काम इस क्षेत्र में किया है: उनके यहां अधिक खुलापन भी रहा है। हाल ही में एक भारतीय-अमेरिकी दंपति कई हिंदी कवियों के पाठ की वीडियो रिकार्डिंग कर उसे इंटरनेट पर उपलब्ध करा रहा है। सच तो यह है कि अगर ऐसा व्यापक अभिलेखन होता और उसका अध्यापन में कल्पनाशील उपयोग हो सकता, तो हिंदी साहित्य का अध्यापन इतना नीरस और उबाऊ न होता, जितना कि वह ज्यादातर है।
कई बार लगता है कि इसके लिए निजी स्रोतों को एकजुट कर अभिलेखन के लिए एक स्वतंत्र संस्थान ही बना लिया जाए। वह सरकारी सहायता और समर्थन पर कतई निर्भर न हो, बल्कि स्वयं लेखक-प्रकाशक-अध्यापक आदि मिल कर उसके लिए साधन जुटाएं। सौभाग्य से हमारे कई बड़े लेखक दीर्घजीवी हैं और उन सभी का व्यापक अभिलेखन बहुत जल्दी करना जरूरी है। उतना ही जरूरी है युवा लेखकों का अभिलेखन, जिनमें कुछ तो निश्चय ही आगे जाकर मूर्धन्य की कोटि में प्रवेश करेंगे।
साठ के पुरुषोत्तम:
लेखक-आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल साठ बरस के हो गए। अच्छे अध्यापक होने का एक लाभ यह होता है कि आपके छात्र आपको कृतज्ञता और उत्साह से याद करते हैं: पुरुषोत्तम निश्चय ही ऐसे अध्यापक रहे हैं। तभी न उनके छात्रों ने मिल कर उनके लिए एक बड़ा आयोजन हाल में किया! हमारे यहां विद्वत्ता और लोकप्रियता तथा संप्रेषणीयता के बीच दूरी बढ़ती रही है। नतीजा यह है कि इतने विशाल हिंदी क्षेत्र होने के बावजूद सार्वजनिक बुद्धिजीवी बहुत थोड़े हैं।
पुरुषोत्तम ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने खुल कर आज की राजनीतिक और सामाजिक बहसों में हिस्सा लिया है: उनकी हस्तक्षेपकारी भूमिका रही है और राजनेताओं से उनकी निकटता और संवाद ने उनकी प्रखरता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाले हैं। कबीर पर उनकी पुस्तक समकालीन आलोचना का एक अनूठा विचारोत्तेजक ग्रंथ है, जिसमें उनकी देशज आधुनिकता की अवधारणा और उसकी लंबी परंपरा से अपने सांस्कृतिक-वैचारिक इतिहास को नए ढंग से समझने-जानने की विचारोत्तेजना मिलती है।
सांप्रदायिकता, धर्मांधता और जातिवाद की बढ़ती शक्तियों से मोर्चा लेने में पुरुषोत्तम हमेशा सन्नद्ध रहे हैं। वे एक बहसपसंद लेखक हैं, जो खुल कर पूरी तैयारी से शिरकत करते हैं, क्योंकि उनका ‘विचार के अनंत’ में विश्वास रहा है। यह वैचारिक खुलापन उनकी पक्षधरता को शिथिल करने के बजाय उसे अधिक सघन और विचारणीय बनाता रहा है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta