समझ में नहीं आ रहा कि आज यह हो क्या रहा है? काफी देर से मैं इसी में उलझा हुआ इधर से उधर टहल रहा हूं। कभी अपने आप को देखता हूं तो कभी आसपास के लोगों को। कहीं भी कोई हलचल महसूस नहीं हो रही। सब कुछ वैसे का वैसा है, मानो बर्फ-सा जमा हुआ। तो फिर मेरे ही मन में इतनी बेचैनी क्यों है?  मैंने गहरी सांस ली और खुद को सामान्य करने की कोशिश करने लगा। पर अगर अपने हाथ में यह सब होता तो हर आदमी ऐसा कर लेता, क्यों परेशान घूमता, जैसे अभी मैं घूम रहा हूं।  तभी हवा का झोंका आया और अपने साथ बहा ले गया। पेड़ की सूखी पत्तियां उसके साथ उड़ती हुई आर्इं और यहां-वहां छितरा गर्इं। उन पत्तियों को देख कर सोचने लगा, इनका भी क्या है, जब तक हरी रहती हैं पेड़ से चिपकी रहती हैं। जब सूख जाती हैं, डाली से बिछड़ जाती हैं और फिर हवा के थपेड़े उड़ाए फिरते हैं- यहां से वहां। रिश्ते भी क्या हैं? ठीक पेड़ और पत्तियों का नाता ही तो है। जब तक वह हरा और रसीला रहता है, चिपका रहता है, जैसे ही सूखने लगता है, उसमें टूटन पैदा हो जाती है। इस विचार के आते ही थोड़ी तसल्ली हुई। क्योंकि जिसके लिए इतना बेचैन हो रहा हूं, हमारे बीच का हरापन अभी बरकरार है। इसलिए हमारे बीच लचक बनी हुई है। अभी तो…!

नीला को क्या हो गया है? आज तीन दिन हो गए, न तो वह मिली है और न कोई खबर है उसकी। बगैर बताए न जाने कहां गायब हो जाती है। कहीं उसकी मां ने मौसी के यहां तो नहीं भेज दिया उसे। यह विचार फिर से मन को विचलित कर गया। तभी एक और विचार आ गया- पर अभी तो हमारा रिजल्ट आया ही नहीं है! रिजल्ट आने के बाद ही वहां जाने की बात कह रही थी न नीला! इस बीच एक और खयाल विचलित करने लगा- पर उसकी मां का कोई भरोसा नहीं। वह तो कभी भी, कुछ भी कर सकती है। शायद इसीलिए नीला हर समय परेशान रहती है। हमेशा उसके मन में मां को लेकर खौफ बना रहता है। फिर सोचने लगा- अगर नीला को अभी उसकी मौसी के यहां भेज दिया हो तो?… अगर नीला को परीक्षा के तुरंत बाद मौसी के यहां भेजा जा रहा था तो भी वहां जाने से पहले मिल सकती थी न वह…! पर वह तो पिछले तीन-चार दिनों से मिली ही नहीं है। चलो, यह भी मान लेते हैं कि उसको मिलने का मौका न मिला हो, पर किसी तरह सूचना तो भिजवा सकती थी।… उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उसकी कोई खबर ही नहीं है, गायब है इतने दिनों से। एक मैं ही मूर्ख हूं जो उसके लिए चिंता कर रहा हूं।… अंदर का गुस्सा न जाने किस-किस रूप में फूटने लगा।

मैं अपने आसपास देखने लगा। गरमी अपने चरम पर है। सांझ की इस बेला में भी हवा जैसे खुद को बचाते हुए न जाने कहां छिप कर बैठ गई है। पास खड़े नीम को देखा, उसकी डालियां निर्जीव-सी दिखीं। उनमें कहीं कोई हलचल नहीं। हां उन पर पक्षी जरूर बैठे हुए थे। घर के बाहर खड़े हुए काफी देर से न जाने क्या-क्या सोच रहा हूं। ऐसा करते हुए आश्चर्य होने लगा। अब इस सोच का कोई सिर-पैर नजर नहीं आ रहा, जिसके चलते असमंजस की स्थिति में आ गया हूं।  यार, नीला कितनी तो अजीब हो गई है…। इतने दिनों से उसका कोई पता नहीं है। कहां है, क्या कर रही है?… क्या किया जाए? सोचते हुए दिल की धड़कन तेज हो गई। सोचने लगा, नीला का विचार आते ही दिल की धड़कनें क्यों आसमान छूने लगती हैं? … क्या नीला के साथ भी ऐसा ही होता होगा, जब वह मुझे याद करती होगी? … वह मुझे याद करती भी होगी क्या?

अब तक अंधेरा पूरी तरह घिर आया था। सड़क की बत्तियां जल गई थीं और आसपास की दुकानों में झकाझक रोशनी की नदी बह रही थी। दुकानों पर लोगों की भीड़ थी।
नीला का विचार एक नई दुनिया में घसीट ले गया। उसका हंसता हुआ चेहरा जेहन में झिलमिलाने लगा, जिसकी लहरों में डूबते हुए अजीब तरह का अनुभव होने लगा। … जब नीला के साथ होता हूं तो एक नई तरह की ऊर्जा से भरा होता हूं, पर अभी तो उसका अहसास रगों में एक अलग तरह की उमंग भर रहा है। घर के बाहर खड़े होकर इधर-उधर देखने लगा। पर कहीं भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया, जिससे मन को तसल्ली मिले। उद्विग्नता और बढ़ गई थी। एक बार तो मन में आया कि क्यों न सीधे नीला के घर चला जाऊं। इस खयाल के साथ ही अच्छा महसूस होने लगा। पर दूसरे ही पल एक दूसरे विचार ने अपने आगोश में ले लिया- जब नीला की अड़ियल मां आने का कारण पूछ लिया तो क्या जवाब दंूगा? इस विचार ने फिर से अंदर की हवा निकाल दी। फिर अपने में ही सिमट गया। तभी यह भी खयाल आया कि अगर ऐसी स्थिति बनी तो कह दंूगा कि रूपेश से मिलने आया हूं। हालांकि इस विचार से कुछ संतोष जरूर मिला, पर नीला के घर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
अजीब-सी कशमकश में डूब गया। तभी मां ने आवाज लगाई- ‘सुमित, कहां हो बेटा?’
पहली बार तो मां की पुकार को नजरअंदाज कर दिया। पर दुबारा पुकारा, ‘सुमित बेटा! सुन रहे हो न… कहां हो तुम?’
‘जी, बोलो न…!’
‘बेटा, जरा अंदर तो आना।’
और बेमन से घर के अंदर चला गया। ‘बोलो न… क्यों बुला रही हो?’
मेरे रूखे जवाब से वह समझ गई कि जरूर मेरे मन में कुछ उथल-पुथल चल रही है। वह बोली, ‘बेटा! तुम कहां खोए हुए हो? आखिर बात क्या है?’
वैसे ही अनमनेपन से बोला, ‘कुछ तो नहीं मां! बस ऐसे ही…!’ बोलते हुए मां के चेहरे को गौर से देखने लगा। ममता पसरी हुई थी, जो आंखों से झर रही थी। कुछ देर मां को वैसे ही देखता रहा।
मां बोली, ‘बेटा! इतना उदास होने से काम थोड़े चलता है, रिजल्ट जब आएगा तब आएगा। उसके लिए इतना उतावलापन भी ठीक नहीं है।’
मैं कुछ नहीं बोला, उनके चेहरे की तरफ देखता रहा। वह फिर मुस्कुराते हुए बोली, ‘इस तरह तू टुकुर-टुकुर क्या देख रहा है? कुछ बोलता क्यों नहीं बेटा?’
‘क्या बोलूं मां…?’
‘देख बेटा, रिजल्ट तो तुम्हारी मेहनत का ही नतीजा होता है। तुमने जितनी मेहनत की होगी, रिजल्ट के रूप में उसी का तो नतीजा आएगा। फिर इसके लिए इतना उदास और परेशान होने की क्या जरूरत है?’ बोलते हुए वह मुझे देखने लगी, ‘अब जो भी रिजल्ट आएगा, सो तो आएगा ही, उसमें तुम राई-रत्ती भी हेर-फेर करने से रहे। तो फिर क्यों अपने मन पर बोझ लिए घूम रहे हो?’
मैं कुछ नहीं बोला, बस उसे देखता रहा। मैं तो नीला के बारे में सोच कर परेशान हो रहा था और मां समझ रही है कि परीक्षा के रिजल्ट को लेकर चिंतित हूं। अच्छा है, यह भ्रम बने रहना चाहिए। मैं मुस्कराया।
मुझे मुस्कुराता देख मां बोली, ‘अच्छा चल! अब जरा बाजार से ये सामान तो ला दे।’ बोलते हुए उसने मेरे हाथ में सामान की लिस्ट और रुपए पकड़ा दिए।
थैला पक कर घर से बाहर निकल तो आया, पर अब भी मन नीला के आसपास ही भटक रहा था। सोचने लगा, ‘काश! नीला भी इसी तरह घर के बाहर किसी न किसी काम से आ जाए। उसे नजर भर कर देख लूं तो मन को चैन मिले।… सड़क पर चलते हुए यही सब सोच रहा था कि तभी किसी से टकरा गया। ‘ओ भाई, तुम्हारा ध्यान किधर है? तुम ऐसे चलोगे तो जरूर कोई गाड़ीवाला टक्कर मार जाएगा। वह व्यक्ति बोला।
मैं उसे अजीब नजरों से देखते हुए सोचने लगा, आखिर आज हो क्या रहा है? कैसी हालत हो गई है मेरी? राह चलता हुआ अनजान आदमी भी मुझको ज्ञान देने पर तुला है। मैं खुद को धिक्कारने लगा, नीला, तुमने यह मेरी क्या हालत बना दी है यार?…
बाजार से सामान लाते समय भी ध्यान पूरी तरह नीला में लगा रहा। उसके ही बारे में सोचता रहा। घर पहुंचा तो मां इंतजार करती मिली। पता नहीं, मेरा इंतजार कर रही थी या सामान का। पर अच्छा लगा। एक मां ही तो है जो इंतजार कर रही है। वरना कौन करता है इंतजार! एक मां ही है जो मुझे टूट कर प्यार करती है। पता नहीं ऐसा लगाव पिताजी से क्यों नहीं हो पाया? जब छोटा था तब तो वे भी खूब स्नेह करते थे। मेरे साथ खेलते भी थे। मुझे काफी समय देते थे। अपनी वकालत की दुनिया से समय निकाल लेते थे मेरे लिए। पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, पिताजी की व्यस्तता बढ़ती गई और हमारे बीच की दूरी भी। इधर मैं खुद भी बड़ा हो रहा था, तो बहुत-सी बातें छिपाने लगा। फिर न जाने कब हमारे बीच फासला बढ़ता गया। अब तो पिताजी जब भी सामने पड़ते हैं, कुछ न कुछ हिदायतें देने लगते हैं, जो अच्छी नहीं लगतीं। एक उम्र के बाद शायद सबको ऐसा ही महसूस होता होगा।
लंबी सांस ली और सोचा कि अपने मन की सारी उथल-पुथल मां को बता दूं और मुक्त हो जाऊं। पर फिर विचार आया कि बता भर देने से मुक्ति थोड़े मिलेगी। बल्कि हो सकता है परेशानियां और बढ़ जाएं। फिर नीला के बारे क्या और कैसे बताऊंगा! यह सब बताने से तो डांट ही पड़ेगी- इतना-सा तो है और अभी से यह सब क्या करने लगा? तेरी हिम्मत कैसे हुई यह सब करने की? यह करने से पहले कुछ न कुछ कर तो लेता। पहले कुछ बन जाता तब तुम्हें इसके बारे में सोचना था। पिताजी की ताकीद अंदर तक चीर गई। मेरी तो उनके सामने घिग्घी बंध जाती।

वैसे भी कहां बोल पाता हूं उनके सामने, बस नीची नजर किए खड़ा रहता हूं। जब तक वे बोलते हैं, चुपचाप सुनता रहता हूं। कई बार उनकी बातों से कोफ्त होने लगती है, पर फिर सोचता हूं कि पिता हैं, मेरे भविष्य के लिए ही तो चिंतित हो रहे हैं। यही पिता का फर्ज भी होता है। वे अपना फर्ज निभा रहे हैं। तो मुझे भी अपना फर्ज निभाना चाहिए। वैसे भी कहां कमी रखी है उन्होंने मेरी परवरिश में। अच्छे से अच्छे स्कूल में शिक्षा दिलवा रहे हैं। जब भी कहा और जिस भी जगह के लिए कहा, तुरंत ट्यूशन की व्यवस्था कर दी। किसी चीज के लिए एक बार मुंह से निकला नहीं कि वह चीज सामने हाजिर हो जाती है। कुछ भी करके मेरी सारी जरूरतों को पूरा कर ही देते हैं। यह विचार आते ही मेरे अंदर अजीब-सी ऊर्जा का संचार हुआ और पिताजी को इज्जत की नजरों से देखने लगा। इस विचार के पीछे भी नीला की कही हुई बातें ही हैं जो मेरे अतंस को लगातार मथती जाती हैं। वह जब भी मिलती है और पिताजी की बात निकलती है, वह उनको किसी नायक की तरह ही प्रस्तुत करती है। हर बार समझाते हुए कहती है, ‘सुमीत! तुम एक बार खुद को उनकी जगह रख कर देखो, फिर तुम्हें सब कुछ बदला हुआ नजर आएगा। जरा, उनकी तरह सोचो तो सही। वे कहां और किस रूप में गलत हैं? क्या अपने इकलौते बेटे के भविष्य के बारे में सोचना गलत है? वह क्या कर रहा है और आगे क्या करेगा, इसके बारे में सोचना गलत है? या कि उन्होंने तुम्हारी परवरिश में कोई कमी रखी है?’ बोलते हुए वह गंभीर हो जाती, तो मैं एक पल को ठगा-सा उसे देखता रह जाता। बस मुस्कुराते हुए कहता, ‘अब तुम भी मुझे मेरी मां की तरह समझा रही हो, पता नहीं तुम्हें क्या हो जाता है, तुम भी ज्ञान देने लगती हो?’

तभी नीला चिढ़ते हुए कहती, ‘जब तुम किसी भी तरह से सच को मानना ही नहीं चाहते हो तो फिर कोई भी क्या कर सकता है? पर तुम्हारे नहीं मानने से भी सच तो सच ही रहेगा। वह बदलने वाला तो है नहीं। वह आज नहीं तो कल, बाहर जरूर आएगा। और तब तुम खुद उसे अनुभव करते हुए स्वीकार करोगे।’ बोलते हुए अचानक चुप लगा जाती। तब मैं उसको अपलक देखता रह जाता। पर आज जब अचानक पिता के बारे में यह विचार मेरे मन में फुदकने लगा तो आंखों के सामने फिर से नीला का वही मुस्कराता हुआ चेहरा उभर आया तो मन ही मन मुस्कुराने लगा। बस तभी यह भी निश्चय किया कि अब से कभी मैं पिताजी के बारे में कोई भी गलत बात नहीं सोचंूगा। और कोशिश करूंगा कि उनकी कही बातों पर अमल करूं।मां को सामान का थैला पकड़ाते हुए मेरा मन अजीब ऊर्जा से भरा हुआ था। एक बार तो मन हुआ कि मां से लिपट जाऊं और उनको खूब प्यार करूं। मां भी मेरे बालों को सहलाते हुए गालों पर चुंबन की झड़ी लगा दे, जैसा कि वह मेरे छुटपन में किया करती थी। जबसे थोड़ा बड़ा और समझदार हुआ हूं मां ने मुझे इस तरह प्यार करना बंद कर दिया। अब कोई भी मुझे इस तरह प्यार नहीं करता। जबसे मैंने किशोरावस्था में कदम रखा है सबकी नजर भी बदल गई है। काफी अकेला महसूस करने लगा हूं। अब तो हर कोई मुझसे आदेशात्मक लहजे में बात करता है। कोई अपनेपन से बात तक नहीं करता। दरअस्ल, यहीं से मेरे मन में परिवार के लोगों के प्रति अजीब तरह की अनास्था ने जन्म लिया और न चाहते हुए भी धीरे-धीरे सबसे दूर होता चला गया। पर जबसे नीला से नजदीकी बढ़ी है, मैंने उसमें अपनापन पाया है। उससे अपने मन की बात कर लेता हूं, तो हल्का हो जाता हूं। पर आज उसकी याद कुछ ज्यादा ही आ रही है। पता नहीं वह क्यों नहीं दिख रही है इतने दिनों से! उसकी कोई सूचना भी नहीं है। समझ में नहीं आता अब उससे मिलना कैसे होगा? ०