अभय नाम था उसका। जितना सुंदर नाम, उतना ही प्यारा व्यक्तित्व। चेहरा फूल-सा कोमल, आंखें रसलीन के दोहे को चरितार्थ करती हुई- अमिय हालाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार…। होंठ हल्के सांवले, पर खूब भरे-भरे और नाजुक। छरहरा बदन, ऊंचा कद। सब कुछ अच्छा-अच्छा-सा लगने वाला। उसमें मर्दाने लुक के साथ-साथ गंभीरता, शालीनता और कोमलता भी थी। ऐसा नहीं कि वह बहुत सुंदर था, फिर भी उसमें कुछ ऐसा जरूर था, जो नजरों के साथ मन को भी बांध लेता था। तभी तो जब वह उसकी तरफ बढ़ा तो वह उसे रोक नहीं पाई थी। वह उसकी एक पुरानी तस्वीर देख कर ही अपना दिल दे बैठा है, यह सुन कर उसे अजीब लगा, पर जीवन में कुछ भी अजीब नहीं होता। वे इतनी तेजी के साथ एक-दूसरे के करीब आए कि एक-दूसरे के बारे में जानने की जरूरत ही नहीं पड़ी। न अभय ने अपने बारे में कुछ बताया, न उसके अतीत के बारे में कुछ पूछा। जाने किस आकर्षण में बंधे दोनों एक हो गए। उनके लिए अतीत, वर्तमान, भविष्य से जुड़े प्रश्नों की जैसे कोई अहमियत ही नहीं रह गई थी। क्या वह प्यार था? पहली दृष्टि का प्यार या फिर कुछ और। पर कुछ तो था, जो नया-नया-सा था।
पहली बार जब वह उससे मिला था, वह अस्वस्थ थी। उसकी महिला मित्र शांति के साथ उसे देखने आया था। आने से पहले शांति ने उससे फोन पर बात कराई थी। बातचीत से वह उसे एक लंपट युवक लगा था। एक अनजान स्त्री से वह जिस अंदाज में बात कर रहा था, उसकी अभ्यस्त न होने के कारण उसने उसे डांट दिया था। उसने उसकी डांट का बिल्कुल बुरा नहीं माना था और उसे देखने चला आया था। सामने से वह बिल्कुल अलग लगा। शालीन, सुंदर और अपना-अपना-सा और यही तो उसका जादू था, जिसने उसके भीतर की कामिनी को झकझोर कर जगा दिया। अब वह खिलने को बेचैन एक कली थी, जो खुद भौरे को आमंत्रित करती है, उसे रिझाती है ताकि अपने होने का सुख पा ले। उस मुलाकात में दोनों ने एक-दूसरे से कुछ न कहा। पर क्या सच ही। अपने आकर्षण को छिपाना दोनों के लिए संभव कहां हुआ? उसकी पुरानी मित्र शांति ने इस आकर्षण को भांप लिया था, इसीलिए वापस जाने के लिए जल्दी मचाने लगी। अभय ने जाते-जाते ‘फिर मिलेंगे’ का वादा आंखों ही आंखों में कर दिया और उसे निभाया भी। वापस जाने के थोड़ी ही देर बाद उसने उसे फोन किया और फिर दिन में कई-कई बार फोन करने लगा। उसे भी उसकी बातें अच्छी लगतीं। धीरे-धीरे वह उसके करीब होता गया। एक दिन भी फोन नहीं करता तो वह बेचैन हो जाती।
हां, वह उसकी इस बात को टालती रही कि अकेले में मिलेंगे या साथ फिल्में देखेंगे। पर वह रोज फोन पर अपने इस आग्रह को दुहराता रहा।
उनकी दूसरी मुलाकात होली के दिन हुई। उसने उसके घर आने की जिद की। उसके मना करने का उस पर कोई असर नहीं था। होली हर वर्ष की तरह उसके लिए बहुत उदास थी। अकेली वह, अकेला उसका घर। सभी अपने-अपने घरों में व्यस्त। सबका अपना घर-परिवार, संसार है। बस एक वही अकेली आंसू बहाने के लिए है? क्यों?उसका मन बागी हो रहा था। नहीं, इस होली वह आंसू नहीं बहाएगी। उदास भी नहीं रहेगी। वह भी रंग खेलेगी, अबीर लगाएगी। पति नहीं, प्रेमी नहीं, दोस्त नहीं तो क्या? वह है न अभय। बार-बार होली खेलने की जिद करता। बसंत है वह, वैसा ही रंगीला, वैसा ही सजीला। मोहक और मादक। वह दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, आना चाहता है… उसे रंग लगाना चाहता है। उसे वह क्यों रोक रही है? किस सतीत्व के लिए? किस मर्यादा के लिए? किस पवित्रता के लिए? जीवन के अनगिनत बसंत इनके नाम करके क्या मिल गया उसे? यही दुख, यही तनाव, यही अकेलापन, अब और नहीं। जो चला गया उसके लिए अब नहीं रोएगी। जो आ रहा है, उसका स्वागत करेगी। अभय, यह नाम ही रोम-रोम में मादकता भर रहा है। सतीत्व, मर्यादा, पवित्रता से ज्यादा मायने रखता है उसका स्त्रीत्व। अभय पुरुष है और वह स्त्री। यही एकमात्र सच है। वह पूर्ण होना चाहती है। खुद को लुटा देना चाहती है, कुछ पाना चाहती है। बहुत राख जमा ली है उसने देह की ज्वालामुखी के ऊपर। अभय उस राख को उड़ा रहा है। वह आ रहा है। उसका कन्हैया आ रहा है अपनी राधा से होली खेलने।
पहली होली… पहला मिलन… क्या पकवान बनाए… क्या पहने… घर को कैसे सजाए। आज पहला अनुभव है किसी पुरुष के साथ होली खेलने का… कैसा लगेगा… नहीं… रंग नहीं खेलेगी वह। सिर्फ अबीर लगा देगी। उसे डांट देगी- बस एक टीका लगाना… वह भी माथे पर, और कहीं नहीं…। आखिर वह पराया है। एक ही बार तो मिली है उससे। न जाने कैसा हो? पर उसका मन अवश क्यों हो रहा है? तड़प क्यों रहा है? जैसे सदियों से बिछुड़ा हुआ प्रेमी आ रहा है। राधा का कृष्ण आ रहा है। उसका मन कृष्ण… कृष्ण नहीं, अभय अभय रट रहा है। नहीं रोक पाएगी खुद को… कहीं कुछ अधिक न हो जाए… हुंह… प्रेम में अधिक क्या होता है? प्रेम में ‘कोई बस’ नहीं होता। पर वह उसका प्रेमी कब हो गया। वह तो किसी और का है, उसकी एक प्रेमिका भी है। कई महिला मित्र भी हैं। वह कौन… बस कुछ दिन की परिचिता। फिर वह क्यों आ रहा है और वह उसे क्यों बुला रही है? पता नहीं। पता नहीं, तो जाने दें… जो आ रहा है उसका स्वागत करें।
अभय आया है। रंगा-पुता। उसने उससे कह दिया है रंग नहीं खेलेगी। उसने उसे मालपुआ और मीट खाने को दिया, पर वह रंग भरे हाथों से कैसे खाए?
– आप खिला दीजिए न। उसने मनुहार किया और वह सच ही उसे अपने हाथों से खिलाने लगी। खाने के बाद उसने अबीर खेलने की जिद की। ना ना करती हुई भी वह आंगन में आकर खड़ी हो गई। उसने उसके चेहरे, गले और पीठ के खुले हिस्से में अबीर लगा दिया। बाकी बचा लाल अबीर उसने उसके सिर के ऊपर डाल दिया, उसके बाल रंग गए, साथ ही मांग भी।
– यह क्या किया?
– क्या हुआ? बस हमारा ब्याह हो गया और क्या! वह बच्चों की तरह हंस दिया।
– गले नहीं मिलोगी?
और फिर जाने कैसे वह उसके आलिंगन में बंध गई। उसने उसका माथा चूम लिया। होंठों तक पहुंचने की हिम्मत नहीं जुटा पाया तो उसने खुद पहल की। आधे घंटे तक वह इसी तरह एक-दूसरे को चूमते आलिंगन में रहे। वह जैसे सच ही उसकी परिणीता बन गई थी। वह भी बहुत खुश था कि जिंदगी में पहली बार उसे इतना कुछ एक साथ मिला है। वह फिर आने के लिए कह कर वापस चला गया। फिर उनके मिलने का एक सिलसिला चल पड़ा। दोनों के बीच की झिझक मिट गई। दूरियां सिमट गर्इं। उसका तो जैसे जीवन ही बदल गया था। वह उसे जब भी बाहों में भर कर चूमता, उसे लगता जैसे किसी ने जीवन भर का तनाव खींच लिया हो। जैसे देह-वीणा पर किसी ने हाथ धर दिया हो। उसके अधरों का कोमल एहसास उसकी देह में शोले भड़का देता। अजीब-सी बेचैनी, अजब-सा खुमार। फिर गजब संतुष्टि, गजब सुख। इस सुख से वह सर्वथा अपरिचित थी।
जल्द ही वे बहुत पास आ गए। एक दिन भी नहीं मिलते, तो तड़पने लगते। कोई पर्दा नहीं रह गया था दोनों के बीच। प्रेम के नए-नए बहाने ढूंढ़ते। घर में कोई उपस्थित हो तो भी उसकी आंखें बचा कर मिल लेते। किचन हो या सीढ़ी या फिर और कोई सुरक्षित कोना, गले लग जाने के लिए पर्याप्त होता। फिर तो जैसे नशा ही छा जाता। पूरे समय जैसे वह नशे में झूमती रहती। दीन-दुनिया की उसे कोई चिंता नहीं रह गई थी। एक दिन वह पूरी तरह मिलने की बात करने लगा कि अब और दूर नहीं रह सकता। वह भी शायद यही चाहती थी, पर वह हर बार उसे रोक देती। उसने कहीं पढ़ा था कि मंजिल तक पहुंचते ही प्यार कम हो जाता है। पहले-सी उत्सुकता, कशिश नहीं रहती। वह आवेग, खुमार नहीं रह जाता। और यही तो उसे अच्छा लगता है। पर नदी को अंतत: समुद्र से मिलना ही होता है… अपना स्वतंत्र अस्तित्व मिटाना ही होता है, तभी तो उसे सार्थकता का आभास होता है। अभय की इच्छा में उसकी भी इच्छा शामिल हो गई थी। क्या यह चाहत गलत थी?दुनिया तो इसे पाप ही कहती, पर वह कहता- यह पाप नहीं प्यार है… वह भी जानती थी कि देह और मन अलग नहीं होते, फिर उनका मिलन कैसे गलत है? उसके जीवन में कोई पुरुष नहीं था। वर्षों से त्याग-तपस्या का जीवन जी रही थी। क्या प्रकृति ने उसे इतना सुगठित रूप-सौंदर्य, यौवन इसलिए दिया था कि वह इसे यों ही खत्म कर लेती। प्याले में लबालब भरा दूध बच जाए, तो उसे नाली में बहा देने से तो अच्छा है कि वह किसी भूखे के पेट में जाए।
पाप-पुण्य की परिभाषाएं सबके साथ एक-सी नहीं हो सकतीं। उसे भी सुख पाने का अधिकार है। वह सुख ढूंढ़ने कहीं बाहर तो नहीं गई थी, सुख खुद उसके घर आया था, फिर वह उसे क्यों दुत्कार देती? शायद ईश्वर को उसके अकेलेपन पर तरस आ गया हो। शायद ईश्वर खुद अभय के रूप में उसे सार्थक करने आया हो? कितना अजीब था जब दस वर्ष पूर्व उसका पति अपनी पूर्व प्रेमिका से विवाह कर उसे छोड़ गया था, तो उसके खिलाफ कोई खड़ा नहीं हुआ था। पर अब अभय के उसके घर आने-जाने पर लोग पीठ पीछे टिप्पणी शुरू कर चुके थे। स्त्री के लिए यह समाज आज भी कितना कू्रर है? उसे या तो पत्थर की देवी समझता है या फिर कुलटा। पर वह इन दोनों छवियों से अलग थी। वह एक जीती-जागती हाड़-मांस की इंसान थी, जिसमें इच्छाएं होती हैं, जज्बात होते हैं। वह जीना चाहती थी अपनी मर्जी से… वह किसी को धोखा नहीं दे रही थी… किसी का कुछ छीन नहीं रही थी।
वह दुविधा में थी तो बस इसलिए कि अभय की जिंदगी में एक और लड़की थी, जिसका पता उसे बहुत बाद में चला था। वरना वह अभय के साथ इतना आगे नहीं बढ़ी होती। अब पीछे लौटना मुश्किल था। पर किसी का हक छीनना उसने कभी नहीं सीखा था। वह लड़की अभय की मंगेतर थी। पांच वर्षों से उससे जुड़ी थी और उसे बहुत प्यार करती थी। पता नहीं अभय उसे कितना प्यार करता था, पर वह उससे ही विवाह करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था।
वह यह बात भी जानती थी कि अभय जीवन भर के लिए उसका नहीं हो सकता। उसे एक दिन जाना ही है। पर वह कल के बारे में नहीं सोचना चाहती थी। वर्तमान का नशा उस पर हावी था। वह तो यह भी नहीं सोच पा रही थी कि अपनी भावी पत्नी को धोखा देकर उसके पास आने वाला उसे कभी भी छल सकता है।
आखिर एक दिन अभय चला गया। जाना ही था, पर इतनी जल्दी और इस तरह चला जाएगा, उसने सोचा तक न था। एक झटके में वह सब हो गया, जो नहीं होना चाहिए था। उसने उसके विश्वास, उसके प्रेम, उसकी भावना की कुर्बानी दे दी, वह भी महज अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए। वह कुछ दिनों के लिए उसके साथ रहने आई उसकी चचेरी छोटी बहन पर आसक्त हो गया। हालांकि इसमें बहन का भी बड़ा हाथ था। उसके मना करने पर वह विरोध पर उतर आया और एक दिन गुस्से में चला गया, तो फिर कभी नहीं लौटा।वह तो उसकी भावी पत्नी के लिए खुद को मना चुकी थी, पर उसकी इस लंपटता को वह नहीं सह पाई।
तो क्या उसका पहला आकलन ही सही था कि अभय एक लंपट पुरुष है। क्या उसे अकेली स्त्री जान कर उसके पास आया था? क्या उसके लिए देह ही एक सच था?शायद हां। शांति ने एक बार उससे कहा भी था- वह स्त्री को करीब से जानना चाहता है। भावी पत्नी विवाह पूर्व इसकी इजाजत नहीं देती, तो इधर-उधर भटकता रहता है। उसने सोचा था, उसे पाकर उसकी भटकन समाप्त हो जाएगी, पर नहीं। उसने साबित कर दिया कि आदतें नहीं बदलतीं। उसके बाद भी वह दूसरी स्त्रियों में रुचि लेता रहा। उन्हें शिकार बनाता रहा। बहन के मामले में तो उसने हद ही कर दी। वह उसके ही घर में उसके ही सामने उससे संबंध बनाना चाहता था। उसने बहन को वापस भेज दिया, तो नाराज हो गया। जाने कैसे उसने सोच लिया था कि वह उसके साथ के लिए कुछ भी कर सकती है, कुछ भी। पर वह इतनी कमजोर नहीं थी। वह कहता था कि वह उसके जैसी बने। क्षणों में जीने वाली। जहां और जिसके साथ रहे उसी के साथ मस्त। पर वह उसके जैसी नहीं हो सकती थी।
कितना प्यार किया था उसने अभय से। उसके लिए सब कुछ छोड़ दिया था। इहलोक..परलोक, दीन-धरम सब। हर जगह बस उसे ही देखती थी, उसी में जीती थी। फिर भी वह चला गया। उसका अपराध था, तो बस इतना कि वह जितनी उसकी थी, उतना ही उसे अपना बनाना चाहती थी। पर वह किसी का नहीं था, न हो सकता था, भविष्य में भी शायद ही हो सके। किसी का होने के लिए जिस समर्पण की जरूरत होती है, वह उसमें नहीं थी। वह सोचता था ‘दे देना’ ही पर्याप्त है। वह नहीं जानता था कि देह में मन आत्मा जैसी चीज भी होती है। प्रेम में धूर्तता, चालाकी, स्वार्थ और दुनियादारी जैसी चीज नहीं होती। उसमें ये चीजें नहीं थीं। तभी तो वह प्रेम कर सकी, पर वह तो सब कुछ साथ लेकर चलता रहा। जब भी वह इन सबसे अलग रहा, वह उसे देव पुरुष लगा… बेहद अपना लगा… प्रेम कर सका… पर जब भी दुनियावी छायाएं उसके साथ रहीं, वह बेहद अश्लील… कामुक और क्षुद्र लगा। वह उसका यह रूप देख कर तड़प उठती थी, अवसाद में चली जाती थी। शायद यही उसका असली रूप था। शायद सभी पुरुष उसके जैसे होते हैं। वे प्रेम नहीं करते, बस प्रेम का खोल चढ़ाए रहते हैं। वे कहते हैं- प्रेम करते हैं, मर कर ही अलग हो सकते हैं, पर सब झूठ होता है। अभय भी एक झूठ था, फिर भी वह उसे प्रेम करती रही। शायद इसे ही मृगतृष्णा कहते हैं। प्रेम रूपी जल का आभास उसे भी दौड़ाता रहा था।आज फिर होली है। वह घर की खिड़की से कॉलोनी में होली खेलते लोगों को देख रही है और सोच रही है कि वह भी उनमें शामिल हो जाए। आखिर कब तक अभय के चले जाने का गम मनाएगी। होली बार-बार हमजोली की तरह नहीं आएगी।
वह उमंग में भर कर बाहर निकली और कुछ ही देर में रंगीन हो गई। ०