बिल्ला यानी बैज बहादुरी का तमगा है, वफादारी का इनाम है, हर्ष का प्रतीक है, व्यक्ति की पद-प्रतिष्ठा और संगठन की पहचान है। यह बैज जब सेना और पुलिस के नुमाइंदों की वर्दी पर सजता है, तो अपने विभिन्न आकार, रंग और विशेषता के साथ व्यक्ति और उसकी उपलब्धियों का मान बढ़ाता है। फिर जब यह किसी संगठन का संग-साथ पकड़ता है, तो उसके कार्य, उद्देश्यों को प्रदर्शित करता प्रतीक चिह्न बन जाता है। हालांकि आज के समय में इनका उपयोग विज्ञापन, प्रचार और ब्रांडिंग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी किया जा रहा है। वहीं अब यह किसी स्कूल, संस्था के प्रतीक के रूप में भी यूनिफॉर्म पर लगा दिखता है, तो कहीं स्वतंत्रता के जश्न जैसे अवसरों पर हर्ष का प्रतीक बन युवाओं में लोकप्रिय हो रहा है। कहीं इससे पहचान, पद, प्रतिष्ठा जुड़ी है, तो कहीं यह भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

परंपरा वैसे बैज का रिवाज नया नहीं है। मध्ययुग से ही बैज चलन में हैं। यूरोप में ये गहनों के तौर पर लोकप्रिय थे, जो सोने, चांदी जैसी किसी धातु या कपड़े से बने होते थे। हालांकि चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में बैज का उपयोग तीर्थयात्रियों की पहचान के तौर पर भी किया जाने लगा था। उसी समय कुछ ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जब इन्हें निराश्रितों, बेघरों में इसलिए वितरित किया जाता था, ताकि असहाय लोगों की आसानी से पहचान कर उनकी सहायता की जा सके। मगर समय ने करवट ली और बैज किसी व्यक्ति विशेष, परिवार और राजनीतिक व्यक्तियों के प्रति सम्मान के संकेत के रूप में लोकप्रिय होने लगे। सत्रहवीं शताब्दी में ब्रिटिश सेना की वर्दी में कैप बैज यानी टोपी में लगने वाले बैज को जगह मिली। इसके बाद यूरोपीय सेनाओं में इन बैज को लगाने का चलन पूरी तरह हो गया और उन्नीसवीं शताब्दी तक बैज स्कूलों आदि की यूनिफॉर्म में लगना लगभग आम हो गए।

भारत में बैज के चलन ने उस समय जोर पकड़ा जब यहां अंग्रेजों का शासन था। तब पूरे देश में सुरक्षा बलों के कंधों और उनकी टोपी पर सजने वाले बैज का निर्माण वाराणसी में होता था। यहां तक कि उस समय विश्व में जहां कहीं भी ब्रिटिश शासन था, वहां भी सेना और सुरक्षा बलों के लिए बैज वाराणसी से ही बन कर जाते थे। उस समय यहां के रेशम एवं जरी के सुई धागे से बनने वाले बैज इतने लोकप्रिय हो गए थे कि भारत में अंग्रेजी शासन समाप्त होने के बाद भी न सिर्फ इंग्लैंड, बल्कि अन्य देशों में भी वाराणसी के बने बैज का निर्यात किया जाता रहा। ऐसे में वाराणसी में बैज उद्योग निर्यात के उद्देश्य से हस्त निर्मित किए जाने वाले बैज के लिए जाना जाने लगा। यही कारण है कि वाराणसी के हस्तशिल्प बैज की जर्मनी, यूरोप, इंग्लैंड, आॅस्ट्रेलिया, वेटिकन सिटी आदि देशों में जबरदस्त मांग है। खास बात यह है कि इन देशों के राष्ट्राध्यक्षों, सेना, पुलिस के साथ महत्त्वपूर्ण स्कूलों के बैज भी वाराणसी से ही बन कर जाते हैं। वहीं पड़ोसी देश चीन में भी वाराणसी के बैज का निर्यात किया जाता है। इन देशों में भारत निर्मित बैज को बेहद अहमियत के साथ पहना जाता है। यही वजह है कि आज वाराणसी में बैज निर्माण करने वाले कारीगरों की बड़ी संख्या है। एक बैज को बनाने में करीब तीन-चार कारीगर लगते हैं, तब यह कई दिन में तैयार हो पाता है।

एक दिन की मजदूरी चार सौ से पांच सौ रुपए तक आती है, लेकिन प्रोत्साहन न मिलने से इस हस्तशिल्प को करने वाले पुश्तैनी कारीगरों का इससे मोहभंग भी हो रहा है। भारत में बैज निर्माण का कार्य वाराणसी के अलावा बिहार के कई क्षेत्रों में भी होने लगा है। हालांकि गुणवत्ता के लिहाज से आज भी वाराणसी के बैज को ही सबसे उत्तम माना जाता रहा है। इसलिए यहां के बैज की मांग अब भी अधिक है। दरअसल, वाराणसी के बैज का निर्माण आज भी मशीन के बजाय हस्त निर्मित होता है, इसलिए इनकी अलग पहचान है। लोग हैंड मेड बैज ही अधिक पसंद करते हैं। इनके निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सभी वस्तुओं में करीब नब्बे फीसद से अधिक सामग्री हाथ से निर्मित होती है। यहां तक कि इसमें इस्तेमाल किए जाने वाले धागों को भी प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है, जिससे इनकी चमक वर्षों तक फीकी नहीं पड़ती। वहीं फ्रांस से भी भारत के कारोबारी संबंध बहुत पुराने समय से हैं। वहां वाराणसी के हस्तशिल्प, हथकरघा उत्पादों को बहुत पसंद किया जाता है। यही वजह है कि वहां के विभिन्न क्लबों में इस्तेमाल होने वाले बैज भी वाराणसी से ही बन कर जाते हैं।

स्काउट-गाइड बिल्ला
स्काउटिंग और गाइडिंग समूह सदस्यता, पुरस्कार और रैंक दिखाने के लिए बैज का उपयोग करते रहे हैं। देश पे्रम और राष्ट्रीय एकता की भावना ही स्काउट्स और गाइड का उद्देश्य है। इन उद्देश्यों को पूरा करने और कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए ये बैज दिए जाते हैं, जो कि काफी परिश्रम के बाद हासिल होते हैं। स्काउट एंड गाइड में बैज विभिन्न उपलब्धियों पर इसके उन सदस्यों को सम्मान स्वरूप दिए जाते हैं, जो सदस्य अपने मजबूत इरादों और हौसलों के दम पर इनके हकदार बनते हैं। इसमें हर बैज का अलग अर्थ होता है और हर बैज को पाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। इसके तहत कई तरह के बैज दिए जाते हैं। जैसे- हाइकर बैज को पाने के लिए स्काउट को घने जंगलों में अपने लिए सुविधाएं बनानी होती हैं। लिटरेसी बैज को पाने का हकदार वह होता है जो ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर अशिक्षित लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक करते हैं। इसी तरह कुक बैज को पाने के लिए बिना व्यवस्थाओं के खाना पकाना होता है।

वहीं न्यूट्रीशियन बैज के लिए ग्रामीण और दूर-दराज के क्षेत्रों में जाकर लोगों को पोषक तत्वों की जानकारी इन सदस्यों को देनी होती है। पायनियरिंग बैज के लिए स्काउट एंड गाइड को आपदा जैसी स्थितियों से निपटने के लिए प्रवीणता लानी होती है। सैनिटेश बैज ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर लोगों को साफ-सफाई के प्रति जागरूक रहने और बीमारियों से बचाव की जानकारी दी जाती है। वहीं कैंपर बैज के लिए जंगल में पांच दिन बिताने होते हैं। लैप्रोसी बैज कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों के प्रति जागरूकता लाने के लिए दिया जाता है। रूलर वर्क बैज के लिए गांव-देहात में नदियों और तालाबों की सफाई आदि का काम करना होता है। सिटीजन बैज को पाने के लिए कैंडिडेट को भारत के संविधान की जानकारी और अपने अधिकारों की जानकारी होनी चाहिए। फॉरेस्टर बैज के लिए जंगल की जानकारी होनी जरूरी है। इनमें एंबुलेंस मैन बैज सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। इसको पाने के लिए फर्स्ट एड की जानकारी होना बहुत जरूरी होता है। इस तरह देखें तो इसमें पुरस्कार स्वरूप मिलने वाला हर बैज समाज हित में किए जाने वाले कार्यों के लिए दिया जाता है।

और इनके भी बैज
बटन बैज, मेटल पिन बैज या सेफ्टी पिन की तरह का बैज होता है। इस तरह के बैज का इस्तेमाल अधिकतर राजनीतिक प्रचार के लिए किया जाता है। अभी तक संस्थाओं, संगठनों की पहचान, पद, शक्ति को दर्शाने वाले बैज देशभक्ति की भावनाएं दर्शाने के साथ ही फैशन के प्रतीक बन कर भी युवाओं को लुभा रहे हैं। वहीं कुछ बैज इन बैज से इस मायने में अलग होते हैं कि उनका उपयोग कुछ ग्राहक सेवा कंपनियों द्वारा ग्राहक की सुविधा के लिए और कर्मचारियों की पहचान के तौर पर किया जाता है। जैसे, फास्ट फूड रेस्तरां आदि में वहां के कर्मचारियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बैज। इससे ग्राहक कर्मचारियों को उनके नाम से आसानी से पहचान सकते हैं। इसके अलावा कुछ बैंक या अन्य कंपनियां भी अपने कर्मचारियों को इसी तरह के बैज उपलब्ध कराती हैं। ऐसे ही नर्सें भी एक विशेष प्रकार का बैज लगाती हैं, जिससे कि उनकी पहचान आसानी से की जा सके। कभी सम्मान, पहचान के तौर पर दिए जाने वाले बैज का इस्तेमाल आज वृहद रूप में होने लगा है। जो बैज कभी वीरता, वफादारी का प्रतिनिधित्व करने वाली एक पहचान तक सीमित थे, वे अब खेलों, किसी पेशे से जुड़े लोगों, संस्थाओं के द्वारा न सिर्फ इस्तेमाल किए जाते हैं, बल्कि इन्हें पुरस्कार स्वरूप भी दिया जाने लगा है।

इसी तरह ‘ब्लू पीटर बैज’ टेलीविजन पर प्रसारित छह से पंद्रह वर्ष तक के नन्हे दर्शकों को सम्मान के तौर पर दिया जाता है। वहीं आज कल बच्चों के लिए क्रिसमस आदि त्योहारों के लिए भी कई तरह के पिन बैज बाजार में नजर आने लगे हैं, जो बच्चों की रुचि, उनकी उम्र के मुताबिक रंगों, आकारों में और उनकी पसंद के कार्टूनों के साथ उपलब्ध हैं। विश्व की कुछ संस्थाएं भी अपने काम के साथ अपने कुछ खास प्रतीक चिह्नों, बैज के जरिए पूरी दुनिया में पहचानी जाती हैं। जैसे-एचआईवी के प्रति जागरूक करने के लिए रेड रिबन बैज पहन कर इसके प्रति जागरूक किया जाता है। वहीं एमनेस्टी इंटरनेशनल मानव अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था का भी अपना अलग बैज है।

सेना और पुलिस के बिल्ले
सेना में सैनिकों और अधिकारियों को विभिन्न रेजिमेंट में बांटा गया है। हर रेजीमेंट के बैज भी अलग-अलग होते हैं। जैसे-राजपूत रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, डोगरा रेजिमेंट, मराठा, बिहार रेजिमेंट आदि। दरअसल, सेना में बैज का उपयोग यूनिट को दर्शाने के लिए किया जाता है। इन अलग-अलग बैजों के अर्थ भी भिन्न होते हैं। भारतीय सेना रेजिमेंट एक विशेष प्रतीक चिह्न का उपयोग खुद का प्रतिनिधित्व करने के लिए करती है। इनके बैज न सिर्फ सैनिकों को पहचान देते हैं, बल्कि उनकी रेजिमेंट में गहरे विश्वास और समझदारी का एहसास भी कराते हैं। भारतीय सेना में हर अधिकारी को उसके पद के अनुरूप एक बैज दिया जाता है। इसमें बैज का उपयोग सैन्य प्रशिक्षण, रैंक आदि को दर्शाने के लिए किया जाता है।

पुलिस विभाग में भी किसी एक कंपनी की तरह अलग-अलग रैंक के अधिकारी काम करते हैं। इनमें भी पद के अनुसार हर पुलिस कर्मी की अलग पहचान होती है। इसके लिए हर पुलिसकर्मी की वर्दी पर अलग-अलग बैज लगे होते हैं। भारतीय पुलिस सेवा के राजपत्रित अधिकारी और उनके बैज उनके पद, प्रतिष्ठा के प्रतीक होते हैं। हर वर्दी पर लगे बैज का अलग अर्थ, आकार, डिजाइन होता है। जैसे-खुफिया ब्यूरो के निदेशक की वर्दी पर लगे बैज में अशोक स्तंभ के साथ एक स्टार और एक तलवार का चिह्न होता है, वहीं पुलिस आयुक्त और पुलिस महानिदेशक की वर्दी पर अशोक स्तंभ और एक तलवार का चिह्न अंकित होता है। इसी तरह संयुक्त पुलिस आयुक्त या पुलिस महानिरीक्षक की वर्दी पर एक स्टार और एक तलवार का निशान होता है। अतिरिक्त पुलिस आयुक्त या पुलिस उप-महानिरीक्षक की वर्दी पर अशोक स्तंभ और तीन स्टार का निशान होता है। इसी तरह पुलिस उपायुक्त या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की वर्दी पर अशोक स्तंभ और दो स्टार का चिह्न होता है। कहा जाता है कि अधिकारियों, सैनिकों द्वारा पहने जाने वाले बैज से ही अन्य सेवा के विभिन्न बैज विकसित हुए हैं।

बिल्ला संग्रहालय
बिल्ला यों तो पहचान, प्रतीक के तौर पर जाने जाते हैं, लेकिन इनके बहाने इतिहास को समझने, जानने की ललक भी कुछ लोगों को इनके प्रति आकर्षित करती है। इसी तरह के लोगों में फे्रंक सचफील्ड भी शुमार हैं। उन्होंने सदियों पुराने बैज का संग्रह कर एक अलग ही काम को अंजाम दिया है और इसका परिणाम इंग्लैंड के ‘बैज कलेक्टर्स सर्किल’ संग्रहालय के रूप में सामने है। बैज कलेक्टर्स सर्किल की स्थापना फे्रंक सचफील्ड ने 1980 में की थी। उनका मानना था कि बैज सिर्फ किसी संगठन, संस्था का चिह्न ही नहीं होते, बल्कि यह अपने समय का इतिहास भी बताते हैं। यही वजह है कि उन्होंने विभिन्न प्रकार के बैज का संग्रह करना शुरू किया। उनका उद्देश्य ब्रिटिश गैर-वर्दी वाले बैज का संग्रह करना और उसके इतिहास की खोज करना था। फें्रक बचपन से ही बैज की ओर आकर्षित होते रहे हैं। जब वे छोटे थे, तभी से उन्होंने कई चीजों का संग्रह करना शुरू कर दिया था।

1979 में मिडलैंड आर्ट्स ग्रुप के तहत हुई बैज प्रदर्शनी के तौर पर बैज क्लेक्टर्स संग्रहालय की शुरुआत हुई थी। इसके बाद फ्रेंक ने इस प्रदर्शनी में भाग लेने वाले लोगों से संपर्क किया और वह लगातार उन लोगों से संपर्क करते रहे जिनके पास दुर्लभ बैज थे। इस तरह धीरे-धीरे बैज के संग्राहक उनकी ओर आकर्षित हुए और यह संग्रहालय अस्तित्व में आया।