आज बाबूजी का मन बहुत प्रसन्न है। जल्दी उठ कर वे मंदिर जाने की तैयारी में लग गए हैं।
यह सुबह भी न, देर से क्यों होती है? सारा और अमर को उठा देता हूं।
उठेंगे, तैयार होंगे।
नहा-धोकर पूजा की थाली तैयार करेंगे।
घड़ी देखी… अरे अभी नहीं।
अभी साढ़े तीन ही बजे हैं। रात को देर से सोए हैं, छह बजे से पहले उठाना ठीक नहीं।
भगवान का लाख शुक्रिया, प्लॉट भी मौके का है, कीमत अधिक जरूर है, लेकिन ऐसे मौके का प्लॉट फिर नहीं मिलता। हां, अब तो पैसे की भी व्यवस्था हो गई है। मेरी पेंशन और अमर का लोन ठीक समय पर पूरा हो जाएगा। बाबूजी सोचने लगे।
बाबूजी इतनी जल्दी उठ गए। सारा ने उठते ही देखा कि बाबूजी के कमरे की बत्ती जल रही थी। बाबूजी कुछ हिसाब-किताब में लगे हुए हैं।
सारा चिंता करती हुई बोली- बाबूजी, आपकी तबीयत तो ठीक है न, रात को दवाई नहीं ली थी क्या? आप इतनी जल्दी उठ कर नहा-धोकर…
‘नहीं! कोई चिंता की बात नहीं है सारा…। बेटी मंदिर चलना है, भगवान की पूजा के लिए मैंने पंडितजी को भी बुलाया हुआ है, फिर रजिस्ट्री के लिए भी रजिस्ट्रार आॅफिस चलना होगा।’
सारा बोली- ‘वह तो सही है बाबूजी, पर अभी तो पांच भी नहीं बजा, आपके लिए चाय बना देती हूं, आप बगीचे में घूम आइए।’
‘आज नहीं बेटी, अगर देर करेंगे तो फिर तुम्हें और अमर को आॅफिस भी तो जाना है।’
बाबूजी आज प्लॉट की रजिस्ट्री जल्दी से जल्दी करवाना चाहते हैं, क्योंकि दलाल को दस लाख रुपए अग्रिम भी दे चुके हैं। प्लॉट लोकेशन को देखते हुए इतनी कम कीमत में हुए सौदे में कोई गड़बड़ी न हो, मालिक का विचार बदल न जाए। फिर दस लाख की कोई रसीद भी तो ली नहीं है। दस बज चुके थे।
बाबूजी के माथे की लकीरें खुद से बातें करने लगीं। चिंता बढ़ती जा रही थी। कहीं दलाल के कुछ हो गया तो… दलाल ने प्लॉट मालिक को अग्रिम राशि दी या नहीं। किसी अन्य खरीदार ने मकान मालिक को भड़का दिया तो, हमसे अधिक कीमत देने वाला कोई ग्राहक आ गया तो!
चाय का कप टेबल पर रखते हुए सारा बोली- ‘बाबूजी, आप किस चिंता में डूबे हैं? आप चिंता न करें, अमर की बात उस दलाल से हो चुकी है। साढ़े ग्यारह बजे दलाल और प्लॉट मालिक हमारे घर ही आ रहे हैं। यहीं से हम सभी साथ-साथ चलेंगे।’
‘इतनी देर! इतनी देर क्यों?’ बाबूजी चिंतित होते हुए बोले।
‘तुम्हें तो पता है, इस शहर में हमने कितने मकान और प्लॉट देखे’, बाबूजी जोर देकर कहने लगे- ‘अमर को इस प्लॉट के अलावा अन्य कोई जगह पसंद भी तो नहीं आई।… सारा, यह प्लॉट हाथ से निकल न जाए। तुम तो जानती हो एक करोड़ रुपये की व्यवस्था हम लोगों ने कितनी मुश्किल से की है। फिर हमको इस प्लॉट पर मकान, मार्केट, आॅफिस और कॉम्पलेक्स भी तो बनवाना होगा, एक वर्ष की कार्य योजना में लगभग कितना पैसा और खर्च होगा क्या पता? तुम जल्दी करो।’
इस बीच अमर ने घोषणा की, ‘दलाल अभी नहीं आएगा।’
अमर की घोषणा से घर में सन्नाटा छा गया।
बाबूजी और सारा ने एक साथ कारण पूछा।
अमर गुस्से में बोलने लगा, ‘आप दोनों इतनी फिक्र क्यों कर रहे हैं? दलाल की मां सीरियस है, अस्पताल के आईसीयू वार्ड में भर्ती है। किसी व्यक्ति की इतनी बड़ी मजबूरी को हम नजरअंदाज तो नहीं कर सकते, फिर उसने मुझे यहां तक कहा है कि जैसे ही मां को कुछ आराम आएगा, मैं प्लॉट मालिक को साथ लेकर आ जाऊंगा।’
अमर ने नाश्ता किया और हॉस्पीटल के लिए निकल गया, पीछे-पीछे सारा भी तैयार होकर आॅफिस जाने लगी।
बाबूजी का पारा ऊपर-नीचे होने लगा। बाबूजी घर में अकेले क्या करते? ‘सारा, तुम मुझे हमारे प्लॉट पर उतार देना। आते हुए मैं टैक्सी लेकर आ जाऊंगा।’
‘बाबूजी, आप शिवशंकर अंकल को साथ लेकर उनकी गाड़ी में चले जाइए और अंकल आपको वापस घर भी छोड़ देंगे। हां, बाबूजी आपको देर लगे तो मुझे फोन कर देना, मैं आपको अंकल के घर से लेती आऊंगी।’
‘क्या कह रहे हो तुम! हमने तो उस प्लॉट के लिए दलाल को दस लाख रुपए अग्रिम भी दे दिया, शिवशंकर।’ बाबूजी ने शिवशंकर अंकल की बात पर चौंकते हुए कहा।
‘अरे हेमंतदास! सौदा करने से पहले जरा हमसे पूछ तो लेते! वह प्लॉट पिछले पैंतालीस बरसों से वैसे ही पड़ा है, जैसा था। वहां आज तक एक र्इंट तक नहीं लगी। उसके बराबर वाले उस प्लॉट पर कचरा तक नहीं डाल सके। कितनी ही मौतें हो चुकीं उस प्लॉट की खरीद करने वालों की।’
शिवशंकर अपना काम करता रहा और प्लॉट नंबर दो सौ तीन के बारे में विस्तार से बताता रहा।
‘मेरे पिताजी बताते थे कि इस प्लॉट वाली जगह में पहले चलता-फिरता श्मशान होता था। इस शहर में सभी समुदायों के अपने-अपने श्मशान गृह बने हुए हैं, किसी दूसरे के श्मशान में अन्य जाति के लोगों को जलाने का अधिकार नहीं है। ऐसे में लावारिस लाशों को नगर पालिका वाले यहां जलाया करते थे।’
‘हेमंतदास सुन रहे हो!… फिर धीरे-धीरे यह इलाका बस्ती के रूप में विकसित होने लगा। यहां नगर विकास न्यास वालों ने कॉलोनी काट दी। कॉलोनी भी ऐसी कि रईस लोगों के मकान, दुकान, कॉम्पलेक्स बनने लगे, इसलिए यहां श्मशान की जगह नहीं रही और यह क्षेत्र भी यूआईटी का हो गया तो नगर पालिका ने लावारिस लाशों के लिए कहीं और स्थान देख लिया। यूआईटी ने प्लॉट काटे तो शेष सभी प्लॉट बिक गए। दो सौ तीन नंबर वाले प्लॉट के मालिक ने मकान बनाने की तैयारी क्या की, उसके घर में तूफान मच गया। बिना बीमारी के जवान बेटा भगवान को प्यारा हो गया। कुछ समझ नहीं आया। किसी ने कहा मूठ ने मारा, किसी ने कहा प्रेतात्मा का प्रकोप हो गया। बहुत दिनों बाद उसने चारदीवारी बनाने के लिए प्लॉट का नापतोल करवाया तो प्लॉट नंबर दो सौ तीन का साइज कभी बढ़ता, तो फिर कभी कम भी हो जाता। शहर के लगभग सभी गजधरों को बुलाया गया, लेकिन मामला बैठा नहीं।’
हेमंतदास तो जैसे चिरनिद्रा में सो गया हो, ‘सुन रहे हो न हेमंतदास।’ शिवशंकर बोला।
‘हां-हां शिवशंकर, भोलेनाथ, सुन रहा हूं। तुम तो आकाशवाणी की तरह सुनाते रहो, मैं सुन रहा हूं।’
‘फिर क्या था, प्लॉट के लिए मालिक ने यूआईटी के अफसरों को लिखा, लेकिन उनके भी समझ न आने के कारण बात को टालमटोल करते रहे। एक भले चपरासी ने चुपचाप समझा दिया कि सेठजी आप तो प्लॉट बेच दीजिए, अभी तो अच्छे ग्राहक मिल रहे हैं।
‘इस तरह हेमंतदास यह प्लॉट पहली बार बिक गया। नए मालिक ने सौदा तो कर लिया। पलट कर प्लॉट की शक्ल तक नहीं देखी। नक्शा देखते-देखते ही एक सड़क हादसे में उसकी मौत हो गई। उसकी पत्नी और बेटों ने एक-दो बार प्रयास क्या किया, पर उससे पहले खरीदार की पत्नी भी अपने पति के पास पहुंच गई। बेटों ने मां के दाह संस्कार के दौरान ही प्लॉट नंबर दो सौ तीन का सौदा कर दिया।
‘इस तरह तीन-चार बार खरीदार अथवा उनके परिवार में छोटे-मोटे हादसे होते गए और प्लॉट बिकता गया।
‘पिछले पांच-छह बार से प्लॉट मालिक और दलाल के कमाई का साधन हो गया यह प्लॉट।’
‘वह कैसे शिवशंकर?’ बंद आंखों से सुनते हुए हेमंतदास ने पूछा।
‘क्या है हेमंतदास कि प्लॉट मौके का बन गया। एक तो पॉश कॉलोनी, दूसरे बार-बार बिकने से प्लॉट की कीमत बढ़ती गई। सारी बातें न तो मालिक किसी को बताता और दलाल को तो अपनी दलाली से मतलब होता है। इस तरह बिना सौदा हुए ही यह प्लॉट कमाई का साधन बना पड़ा है।’
‘वह कैसे?’
‘कैसे क्या हेमंतदास, प्लॉट मालिक और दलाल सौदा जंचाते हैं। सौदा करने वाले को सच्चाई से अवगत नहीं कराते। अग्रिम राशि ले लेते हैं। फिर रकम भी बड़ी है, तो खरीदार शेष राशि का बंदोबस्त करता है, तब तक खरीदार को प्लॉट का इतिहास पता लगने लगता है। खरीदार की रात की नींद उड़ने लगती है। सौदा भारी पड़ने लगता है। दिन-रात अपने तथा परिवार की सलामती की दुआ करने की जुगत करने लगता है। इतना सब कुछ सुनने के बाद कौन अपने परिवार के जवान लोगों को मारना चाहेगा?
इतने बड़े सौदे वाला देखता है कि अब प्लॉट के सौदे के बजाय घर-परिवार की सुरक्षा जरूरी है। पर हेमंत, सौदे को खारिज करने के लिए दलाल के पास खरीदार जाते हैं। दलाल सौदे का नियम बताने लगता है, आपको रजिस्ट्री करानी होगी अन्यथा अग्रिम राशि जब्त होगी। अगर हम रजिस्ट्री से मना करें, तो उतनी राशि हम आपको देंगे, पर खरीदार तो सहमा होता है। इस प्रकार यह प्लॉट नंबर दो सौ तीन कमाई का बड़ा जरिया बन पड़ा है, हेमंतदास…।’
हेमंतदास की तबीयत बिगड़ने लगी। शिवशंकर घबरा गया। हेमंतदास को हिलाने लगा, लेकिन हेमंतदास बेहोशी की हालात में था। सारा को फोन करके बुलाया गया।
शिवशंकर परेशान। 108 पर फोन करने लगा। शिवशंकर के ठीक पीछे बैठी सारा प्लॉट गाथा सुन रही थी।
‘अंकल, आपको किसी को फोन नहीं करना।’ पानी का छिड़काव कर बाबूजी की बेहोशी दूर की गई।
प्लॉट नंबर दो सौ तीन के आगे से गुजरते हुए सारा अपना फैसला सुनाती हुई कहने लगी- ‘बाबूजी आप चिंता न करें, हम वहीं पर अपना प्रोजेक्ट शुरू करेंगे। अब दलाल की कमाई नहीं होगी। हम वहां मम्मी के नाम वेलफेयर चिकित्सालय का निर्माण करेंगे, आप ही हमारे अस्पताल का फीता काटेंगे और मरने वाले मरीजों को बचाने का काम प्लॉट नंबर दो सौ तीन करेगा। बाबूजी हम झोला छाप डॉक्टर नहीं हैं।’