मदीन किसान ने जल्दी से खेतों का काम खत्म किया। जैसे ही वह घर पहुंचा तो देखा कि घर के बाहर भीड़ जुटी है और वहां खुशी के चिन्ह नजर न आकर चिंतामग्न चेहरे नजर आ रहे हैं। यह देख कर उसका दिल किसी अनचाही आशंका से कांप उठा। हिम्मत कर उसने माथे पर हाथ रखे एक पड़ोसी के कंधे पर हाथ रखा और बोला, ‘क्या हुआ परमू? सब ठीक तो है न।’ परमू ने रामदीन को देखा और खड़ा होते हुए बोला, ‘आ रामू, सब तेरा ही इंतजार कर रहे थे। तू बेटे का पिता बन गया है, लेकिन…।’ रामदीन की आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो गर्इं। वह स्वयं पर काबू न रखते हुए बोला, ‘क्या… जल्दी बताओ… पार्वती ठीक है न।’ तभी वहां पड़ोसन रमैया आई और बोली, ‘भैया, पार्वती तो ठीक है, लेकिन नवजात शिशु आंखें नहीं खोलता… शायद नेत्रहीन है’। ‘क्या…. क्या कह रही हो?’ यह सुनते ही रामदीन जल्दी से पार्वती के पास पहुंचा। बालक सारी चिंताओं से बेखबर मां की गोद में मीठी नींद ले रहा था। पार्वती से नजर मिलते ही वह समझ गया कि पड़ोसी सही कह रहे हैं। कुछ देर बाद पड़ोसी तो अपने अपने घर चले गए, लेकिन रामदीन और पार्वती बच्चे की फिक्र में डूब गए। आर्थिक रूप से कमजोर होते हुए भी रामदीन ने अपने बेटे को महंगे से महंगे डॉक्टर के पास दिखाया। लेकिन सभी ने कहा कि आपका बच्चा कभी देख नहीं पाएगा, क्योंकि इसकी आंखों में रोशनी नहीं है।
वक्त बीतते-बीतते रामदीन और पार्वती को स्वीकार करना पड़ा कि बालक नेत्रहीन है। बालक का नाम श्रीकांत रखा गया। जैसे-जैसे श्रीकांत बड़ा होता गया वैसे-वैसे लोग अपनी अलग-अलग राय देकर पार्वती और रामदीन की चिंता बढ़ाते रहे। श्रीकांत जब पांच साल का हो गया, तो रामदीन उसे अपने साथ खेतों पर ले जाने लगे कि शायद बालक कुछ समझे और महसूस करे। एक दिन श्रीकांत बोला, ‘पिताजी, मैं पढ़ना चाहता हूं। पड़ोस के सब बच्चे स्कूल जाते हैं। आप मेरा भी दाखिला करा दो।’ बेटे की इच्छा सुन कर रामदीन ने सरकारी स्कूल में उसका दाखिला करा दिया। स्कूल के बच्चों ने उसका बहुत मजाक उड़ाया। नन्हे श्रीकांत से किसी ने बात न की। यहां तक कि शिक्षकों ने भी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। श्रीकांत की उदासी माता-पिता से न छिप सकी। रामदीन ने जब बेटे की उदासी के पीछे का कारण जाना तो दंग रह गया कि लोग एक मासूम को किस तरह से प्रताड़ित करते हैं।
किसान पिता ने हार न मानी और श्रीकांत की पढ़ाई के रास्ते ढूंढ़ने आरंभ कर दिए। आखिर उस नेत्रहीन बच्चों के स्कूल के बारे में पता चला। उसने यह बात श्रीकांत को बताई, तो श्रीकांत ने भी सहर्ष उस स्कूल में पढ़ने के लिए सहमति दे दी। नेत्रहीन स्कूल में दाखिला होने के बाद उसके ढेर सारे मित्र बन गए। वहां के शिक्षक हमेशा सभी बच्चों को सामान्य समझते और उन्हें लुई ब्रेल से लेकर होमर तक के बारे में बताते। ये बातें श्रीकांत के मन में अच्छी तरह बैठ गर्इं। उसने उसी दिन निश्चय कर लिया कि वह भी अपनी आंतरिक नजर से एक काबिल इंसान बनेगा। श्रीकांत ने अपने दृढ़निश्चिय से हर कक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। उसकी इस उपलब्धि को देखते हुए उसे तत्कालीन राष्टÑपति एपीजे के लीड इंडिया प्रोजेक्ट से जुड़ने का अवसर मिला। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। ग्यारहवीं कक्षा में श्रीकांत ने विज्ञान विषय लेना चाहा, तो स्कूल वालों ने यह कह कर उसके आवेदन को ठुकरा दिया कि नेत्रहीन विज्ञान नहीं पढ़ सकते। यह सुन कर श्रीकांत ने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो, विज्ञान ही पढ़ना है और उसने चुनौती देते हुए इस बारे में कानूनी लड़ाई लड़ी। आखिर संघर्ष रंग लाया और कानून ने मुहर लगाते हुए श्रीकांत को सहर्ष विज्ञान विषय पढ़ने की अनुमति दे दी। श्रीकांत ने स्वयं को पूरी तरह विज्ञान के लिए समर्पित कर दिया। उसने शिक्षकों और शिक्षा बोर्ड की सभी आशंकाओं को झूठा साबित करते हुए बारहवीं में अठानबे फीसद अंक प्राप्त किए। अब श्रीकांत का सपना आइआइटी कर एक इंजीनियर बनना था। लेकिन यहां फिर नियम आड़े आ गए कि नेत्रहीन को प्रवेश नहीं मिल सकता। यह देखकर श्रीकांत ने विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिले का प्रयास किया। श्रीकांत के जज्बे को देखकर चार अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने उसके आवेदन स्वीकार करते हुए उसे पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। श्रीकांत ने मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी से बीटेक किया। वह पहला ऐसा अंतरराष्ट्रीय नेत्रहीन छात्र था, जो एमआइटी में पढ़ रहा था।
उसने बीटेक पूरी की तो कई अमेरिकी कंपनियों ने उसे आकर्षक तनख्वाह पर आमंत्रित किया, लेकिन अब श्रीकांत की आंखों में नए सपने और रंग भरने लगे थे। उसने निश्चय कर लिया था कि अपने देश जाकर खुद की कंपनी बनानी है और दिव्यांगों को उससे जोड़ना है, ताकि उन्हें अपने जीवन का एक नया आयाम और मंजिल मिल सके। भारत लौट कर श्रीकांत ने बोलेंट कंपनी शुरू की। उनकी यह कंपनी दिव्यांगों को रोजगार देने लगी। पांच सालों में ही इस कंपनी ने तरक्की की नई ऊंचाइयां छू ली। श्रीकांत के जुनून और जज्बे ने उन्हें फोर्ब्स में एशिया के तीस साल से कम उम्र के महान उद्यमियों की सूची में ला खड़ा किया। आज पांच शहरों में उनकी कंपनी की शाखाएं हैं। श्रीकांत ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि वे नेत्रहीन हैं। वे कहते हैं कि कमी हर इंसान में होती है, उस कमी को हम कमी के रूप में देखते हैं या ताकत के रूप में, यह हम पर निर्भर करता है। जब हम कमी को अपनी ताकत बना लेते हैं तो अंतर्मन की रोशनी दिशा दिखाती और हमारे पथ पर अनगिनत दीपक जला देती है।