देश में धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ और उसमें भी खास पहचान लिए बिलासपुर, 23 मई को एकाएक पचास डिग्री सेल्सियस को छूते तापमान के चलते चर्चा में आ गया। सहसा विश्वास भी करें तो कैसे, लेकिन सारे के सारे थर्मामीटर चढ़ते सारे वीडियो रिकॉर्ड दगा थोड़े दे जाएंगे! तापमान का रिकॉर्ड केवल सौ सालों का उपलब्ध है। इसे छत्तीसगढ़ की धरती पर अब तक का सबसे अधिकतम तापमान कहना बेजा न होगा, लेकिन कमोबेश तपन के ऐसे हालात देश के दूसरे भागों में भी हैं। देश तप रहा था और गांधीनगर में अफ्रीकी विकास बैंक की सालाना बैठक चल रही थी। उसका मुख्य एजेंडा दक्षिण अफ्रीका में हरित क्रांति लाने में भारतीय सहयोग का था। विडंबना यह कि यहां पारा कीर्तिमान बनाने पर आमादा है और हम अफ्रीका की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। हरित क्रांति की आस में किसान सूखा, अतिवर्षा, बदहाल अर्थव्यवस्था के चलते हर रोज कहीं न कहीं आत्महत्या को मजबूर है।

पेरिस के जलवायु समझौते में धरती का तापमान दो डिग्री से ज्यादा न बढ़ने देने पर सहमति हुई थी। अभी बर्लिन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने जलवायु परिवर्तन रोकने में विश्व समुदाय के साझा प्रयासों पर जोर दिया और अमेरिका के अलगाववादी रवैये पर चिंता भी जताई, जो वाकई गंभीर है। भारत और चीन द्वारा किए जा रहे प्रयासों की सराहना हुई, लेकिन भारत के लगभग एक तिहाई भूभाग के सच ने इसको आईना दिखा दिया। पर्यावरण के सामने गंभीर चुनौतियां हैं। वायुमंडल में घुली कार्बन डाई आॅक्साइड पराबैंगनी विकिरण के सोखने और छोड़ने से हवा, धरती और पानी गरम होते हैं। पिछली आधी सदी में कोयला-पेट्रोलियम के धुएं ने वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा खतरनाक हद तक पहुंचा दिया। सामान्यतया सूर्य की किरणों से आने वाली ऊष्मा का एक हिस्सा वायुमंडल को जरूरी ऊर्जा देकर, अतिरिक्त विकिरण धरती की सतह से टकरा कर वापस अंतरिक्ष को लौटता है। लेकिन यहां मौजूद ग्रीनहाउस गैसें, लौटने वाली अतिरिक्त ऊष्मा को भी सोख लेती हैं, जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है। इससे पर्यावरण प्रभावित होता है और धरती तपती है, जो जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण है। संयुक्त राष्ट्र से जुड़े छह सौ से ज्यादा वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन ही इसका मूल कारण है।

वर्षा जल की अधिकता वाले जंगलों की अंधाधुंध कटाई से परा बैंगनी विकरण को सोखने और छोड़ने का संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है। अनुमानत: प्रतिवर्ष लगभग तिहत्तर लाख हेक्टेयर जंगल उजड़ रहे हैं। उधर ज्यादा रासायनिक खादों के उपयोग, अत्यधिक चारा कटने से मिट्टी की सेहत बिगड़ रही है। वहीं जंगली और समुद्री जीवों का अंधाधुंध शिकार भी संतुलन बिगाड़ता है। बाकी कसर जनसंख्या विस्फोट ने पूरी कर दी। बीसवीं सदी में दुनिया की जनसंख्या लगभग 1.7 अरब थी, अब छह गुना ज्यादा 7.5 अरब है। जल्द काबू नहीं पाया गया तो यह आंकड़ा 2050 तक 10 अरब पार कर जाएगा। धरती का क्षेत्रफल बढ़ेगा नहीं, उपलब्ध संसाधनों के लिए होड़ बढ़ेगी, जिससे झगड़े होंगे, इससे पर्यावरण की सेहत पर चोट स्वाभाविक है।
जुलाई, 2016 सबसे अधिक गरम महीना माना गया था, वहीं 2017 की शुरूआत कम सर्दी से हुई। जबकि फरवरी में अप्रैल जैसी तपन और अप्रैल में कई जगह पारे का चालीस डिग्री से ऊपर रिकॉर्ड चिंतनीय है। जहां 18 अप्रैल, 2017 को दौसा के छियालीस डिग्री तापमान ने मई की तपन के लिए खतरनाक संकेत दिए, वहीं छत्तीसगढ़ सहित देश के कई इलाकों में नवतपा के दो दिन पूर्व रिकॉर्ड तोड़ गर्मी ने मौसम विशेषज्ञों और पर्यावरण विदों की चिंता बढ़ा दी। यह बारिश को प्रभावित करता है, जिससे अतिवृष्टि, अनावृष्टि दोनों का खतरा रहता है।

वर्षा जल संचय के लिए ठोस प्रबंधन और जनजागरूकता की कमी से देश में पहले ही पेयजल की स्थिति विकारल है। नए हिमखंडों के लिए उचित वातावरण नहीं है। जो हैं, वे पर्यावरण असंतुलन से पिघल रहे हैं। पृथ्वी पर डेढ़ सौ लाख वर्ग किमी में करीब दस प्रतिशत हिमखंड बचे हैं। कभी बत्तीस प्रतिशत भूभाग और तीस प्रतिशत समुद्री क्षेत्रों में हिमखंड था, जो हिमयुग कहलाता था। सबसे बड़े ग्लेशियर सियाचिन के अलावा गंगोत्री, पिंडारी, जेमु, मिलम, नमीक, काफनी, रोहतांग, ब्यास कुंड, चंद्रा, पंचचुली, सोनापानी, ढाका, भागा, पार्वती, शीरवाली, चीता काठा, कांगतो, नंदा देवी शृंखला, दरांग, जैका आदि अनेक हिमखंड हैं। इनके प्रभाव से गरमी में जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, उत्तराखंड, हिमाचल, अरुणाचल, में सुहाने मौसम का आनंद मिलता है। लेकिन वहां भी पर्यावरण-विरोधी मानवीय गतिविधियों ने जबर्दस्त असर दिखाया। अब भी वक्त है, बदलते मौसम के मिजाज को समझें। सरकार-समाज, हम सबको तुरंत चेतना होगा। हर शहर, गांव, मुहल्ले और घर-घर पर्यावरण की अहमियत और जल संग्रहण की अलख जगानी होगी।
बीमार धरती को सेहतमंद बनाने और स्वस्थ जीवन के लिए पहाड़, जंगल, नदी, तालाब, पोखरों को बनाने, बचाने, जिंदा रखने के जतन करने होंगे, वरना खुद के बनाए क्रंक्रीट के जंगल, कल-कारखानों, पावर प्लांट की चिमनियों और धुंए के गुबार के बीच मानव निर्मित हिरोशिमा-नागासाकी से भी बड़ा सच चुपचाप बिना आवाज सभी के सामने मुंह बाए तैयार खड़ा है। ०

 
धरती की चेतावनी को समझें