संवत्सर एक तरह से समय को कालखंड में विभाजित करने की पद्धति है यानी बारह महीने का एक पूरा काल-चक्र। यह पद्धति सबसे पहले भारत में ही प्रारंभ की गई। वास्तव में यह विभिन्न ऋतुओं का वह हिसाब-किताब है जो सूर्य और पृथ्वी के अंर्तसंबंधों के कारण घटित होता है। संवत्सर असाधारण है। धार्मिक मान्यता है कि ब्रह्माजी ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया था। इस दिन विशेष रूप से ब्रह्माजी, उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवता, यक्ष-राक्षस, गंधर्व, ऋषि-मुनि, नदी-पर्वत, पशु-पक्षियों, मनुष्यों, रोगों, कीटाणुओं और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। ऋषि याज्ञवल्क्य वाजसनेय द्वारा रचित ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रजापति ने अपने शरीर से जो प्रतिमा उत्पन्न की उसको संवत्सर कहा गया है।

इस प्रकार संवत्सर की उपासना, प्रजापति की उपासना है। वेदों में भी नव-संवत्सर का वर्णन है। यजुर्वेद के 27वें और 30वें अध्याय में क्रमश: 45वें और 16वें मंत्र में इसे विस्तार से बताया गया है। इसकी पुष्टि ऋगवेद के ऋत सूक्त से भी होती है जिसमें कहा गया है ‘समुदादर्णवादाधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्रीणि विद्यत विश्वस्य मिषतो वशी।’ यानी प्रजापति ने सूर्य,चंद्र, नक्षत्र, स्वर्ग, पृथ्वी, अंतरिक्ष को रचा और तभी से नव-संवत्सर का आरंभ हुआ। सृष्टि संवत् के प्रारंभ का भी यही समय माना जाता है। इसी से सृष्टि की आयु का भी आकलन किया जाता है।

नवंबर 1952 में भारतीय वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद द्वारा एक पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई थी। जिसने 1955 में रिपोर्ट सौंपकर शक संवत् को राष्ट्रीय सिविल कैलेंडर के रूप में भी स्वीकारने की सिफारिश की थी। तब सरकार के अनुरोध पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानते हुए भी 22 मार्च 1957 को शक संवत् आधारित पंचांग राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप स्वीकारा गया था। चैत्र भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का प्रथम मास होता है।

यों तो नव-संवत्सर से जुड़ी कई बातें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। विक्रम संवत् का भी यह पहला दिन माना जाता है। यह हिंदू पंचांग में गणना प्रणाली भी है। जिसकी धारणा है कि यह एक ऐसे राजा के नाम पर प्रारंभ होता है जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो न ही भिखारी। उज्जयिनी (उज्जैन) के सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपने राज्य की स्थापना की थी। मार्च से ही दुनिया भर में पुराने कामों को समेटकर नए कार्यों की रूपरेखा तैयार की जाती है। 21 मार्च को पृथ्वी भी सूर्य का एक चक्कर पूरा कर लेती है और रात-दिन बराबर होते हैं। 12 माह का एक वर्ष, 7 दिन का एक सप्ताह रखने की परंपरा भी विक्रम संवत् से ही शुरू हुई है। इसमें महीने का हिसाब सूर्य-चंद्रमा की गति के आधार पर किया जाता है। विक्रम कैलेंडर की इसी पद्धति का बाद में अंग्रेजों और अरबियों ने भी अनुसरण किया और भारत के विभिन्न प्रांतों ने इसी आधार पर अपने कैलेंडर तैयार किए।

हिंदू नववर्ष का आरंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को शक्ति-भक्ति की उपासना, चैत्र नवरात्रि के साथ प्रारंभ से होता है। पंचाग रचना का भी यही दिन माना जाता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना कर पंचाग की रचना की थी। भारत सरकार का पंचांग शक संवत् भी इसी दिन से शुरू होता है। भारत के लगभग सभी प्रांतों में यह नववर्ष अलग-अलग नामों से मनाया जाता है जो दिशा और स्थान के अनुसार मार्च-अप्रैल में लगभग इसी समय पड़ते हैं। विभिन्न प्रांतों में यह पर्व गुड़ी पड़वा, उगडी, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी नवरेहु, चेटीचंड, तिरुविजा, चित्रैय आदि के नाम से मनाए जाते हैं।

भारत में नव-संवत्सर पर पूजा पाठ का विधान है। पुरानी उपलब्धियों को याद करके नई योजनाओं की रूपरेखा भी तैयार की जाती है। इस दिन अच्छे व्यंजन और पकवान भी बनाए जाते हैं। इस पर्व पर विभिन्न प्रांतों में अलग परंपराएं अब भी हैं जिनमें कहीं स्नेह, प्रेम और मधुरता के प्रतीक शमी वृक्ष की पत्तियों का आपस में लोग विनिमय कर एक दूसरे के सुख और सौभाग्य की कामना करते हैं। कहीं काली मिर्च, नीम की पत्ती, गुड़ या मिसरी, आजवायइन, जीरा का चूर्ण बनाकर मिश्रण खाने और बांटने की परंपरा है।

भारत के लिए यह भी एक गौरव की बात है कि विक्रम संवत् का संबंध किसी धर्म विशेष से न होकर संपूर्ण धरा की प्रकृति, खगोल सिद्धांतों और ग्रह-नक्षत्रों से है जो कि वैज्ञानिक आधार और वैश्विक स्वीकार्यता के संभावित कारण तो है ही। साथ ही भारत की गौरवशाली परंपरा भी माना जाता है। विश्व में सौरमंडल के ग्रहों और नक्षत्रों की चाल और गति निरंतर बदलती रहती है। इन्हीं स्थितियों में ही दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इन सबकी गणना का एक प्राचीनतम और लगभग प्रमाणित सा आधार संवत्सर ही है।

जहां तक विक्रम संवत् की बात है भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सबसे लोकप्रिय और प्राचीन संवत् माना जाता है। किसी नवीन संवत् को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि संवत् चलाने के दिन से पहले उस राज्य की जितनी भी प्रजा हो ऋणी न हो, ऋणी होने पर महाराजा द्वारा इसे चुकाया जाएगा। हालांकि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन होने के प्रमाण नहीं है लेकिन यहां महापुरुषों के संवत् उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाए हैं जिनमें सर्वमान्य और विक्रम संवत् ही है क्योंकि महाराजा विक्रमादित्य ही ऐसे महाराजा थे जिन्होंने संपूर्ण देश यहां तक कि प्रजा के ऋण को भी चुकाकर इसे चलाया