अक्सर बड़ी घटनाओं की शुरुआत इतनी मामूली और चुपचाप होती है कि उसका अहसास तक नहीं हो पाता है। ज्यादा से ज्यादा हम ‘होगा कुछ’ जैसा सोच कर आगे बढ़ जाते हैं। और जब उस घटना का ठीक से अनुभव होता है, तब तक वह लगभग अपना अंतिम आकार ले चुकी होती है। इसलिए यह कहना बहुत मुश्किल है कि मेरे जीवन में भी इस घटना की ठीक शुरुआत कब से हुई, पर इसका अहसास मुझे उस दिन हुआ जिस दिन दोपहर 12.30 बजे दफ्तर से खबर आई कि हमारे एमडी जगत मोहन भटनागर की हार्ट-अटैक से मौत हो गई। हम सभी ने दफ्तर में शोक-सभा की, मुख्यालय दिल्ली में उनके घर जाने की चर्चा भी आधी-अधूरी-सी चली। और फिर दफ्तर की छुट्टी कर सभी अपने-अपने घरों को रवाना हो गए।
मैंने याद किया- बरसों बाद आज मैं समय से पहले घर पहुंचूंगा। शालू घर पर अकेली होगी और मुझे देखकर उसका चेहरा कैसा हो जाएगा! इस विचार से ही मैं रोमांचित हो गया। बीच दिसंबर की दोपहरी में भी रोमांच और उत्तेजना से मुझे गर्मी लगने लगी। घर पहुंच कर घंटी बजाने से दरवाजा खुलने तक का समय बहुत लंबा लगा। लेकिन दरवाजा खुलने पर शालू को देखा तो मेरा उत्साह तुरंत काफूर हो गया। बेहद मैला गाउन पहने, उलझे बाल और कच्ची नींद खुलने की झुंझलाइट भरा चेहरा लिए शालू ने बेहद ठंडे स्वर में कहा- ‘जल्दी आ गए।’ मैं निराश कदमों से बिन बोले अंदर चला गया।
थोड़ी देर बाद जब खुद का हुलिया सुधार कर शायद मेरा मूड ठीक करने के इरादे से शालू अंदर आई, तब मैं पूरी गंभीरता से इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने में डूबा हुआ था कि घर आने की बजाय मैं और कहां-कहां जा सकता था! ताज्जुब की बात कि मुझे ऐसा कोई घर, ऐसी कोई भी जगह सूझ ही नहीं रही थी। शालू को आने के कुछ ही समय बाद इस भारीपन और मेरे विरक्त हुए मन का अहसास हो चुका था, इसलिए वह स्त्री के तमाम हथियारों और अपने कौशल का अद्भुत मेल करते हुए मुझे कुछ ही समय बाद अपनी आगोश में ले गई। मैं सब-कुछ समझते-बूझते हुए अपने-आपको उसके सुपुर्द कर चुका था कि उसी पल वह विचार मेरे मन से होते हुए मेरे पूरे शरीर में पसर गया। शालू की आंखें आनंद से मुंदी हुई थीं। उसकी देह आनंद की प्यास बन इंतजार कर रही थी पर मैं यह सब जानने के बावजूद भी सोच रहा था कि मृत्यु के कारण हुई छुट्टी का मैं यह कैसा उपयोग कर रहा हूं। ग्लानि का गहरा भाव मुझे लगातार जकड़ रहा था। इंतजारती शालू ने झुंझला कर पूछा-‘क्या हुआ?’ उसका सवाल अनसुना करते हुए मैं बाथरूम की ओर बढ़ गया।
ऐसा कतई नहीं था कि मुझमें नैतिकता का कीड़ा अचानक ही आ गया हो पर यह जरूर है कि पिछले कुछ समय से मैं यह बात शिद्दत से महसूस कर रहा था कि लोग पूरी बेशर्मी के साथ बेईमानी करते हैं। कुछ भी गलत करने में किसी को बिल्कुल भी झिझक नहीं होती। हमारी कंपनी धड़ल्ले से अपने ग्राहकों को छल रही थी, सरकारी कारिंदे कंपनी से ब्रीफकेस ले रहे थे। पता नहीं किस बात पर उस दिन लंच-टाइम में हंसते-बतियाते अपने साथियों के बीच मैं अचानक बोल पड़ा था-‘आज कोई ईमानदार अफसर-नेता आ जाए तो हम सभी सलाखों के पीछे होंगे। यहां की हर बेईमानी भले ही किसी के लिए होती हो पर होती तो हमारे हाथों से है। और फिर यह भी तो नहीं है कि उस बेईमानी के फल को पूरी ईमानदारी से हम कंपनी को सौंप देते हैं…।’ मैं जब चुप हुआ तो मेरा ध्यान गया कि सारे साथी मुझे बेहद संदेह के साथ देख रहे थे। उनकी इस नजर के कारण झेंपने की बजाय मुझे क्रोध आ गया।
बात यहीं खत्म नहीं हुई। अब कंपनी के अलावा भी हर जगह मुझे काले धब्बे अधिक साफ दिखाई देने लगे। लोगों की बेतरतीब फूली हुई जेबें, चालाकियों के सूटकेसों के बड़े होते आकार और आत्मीयताओं के कुटिल उपयोगों के बढ़ते चलन से मेरे खून में गुस्से के जीवाणु बहुत तेजी से बढ़ रहे थे।
बहुत दिनों से मैं महसूस कर रहा था कि सुबह उठने पर भी मेरे शरीर और मन में कोई ताजगी नहीं होती, बल्कि चाय के साथ अखबार पढ़ते हुए तो मेरे भीतर क्रोध और निराशा के ज्वार-भाटे उठने-गिरने लगते हैं। टीवी के खबरी चैनलों पर खबरें देखते हुए मैं अनायास ही बड़बड़ाने लगता। दफ्तर और दोस्तों के अलावा अब मैं शालू और बच्चों के सामने ही बड़बड़ाने लगा था-यह कैसी सरकार है जो इंसानों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं समझती!
खाने-पीने के सामान में मिलावट को जांचने के लिए सरकार जरूरी पदों को नहीं भर कर मिलावटियों को खुली छूट दे रही है, भू-माफिया लोगों की और सरकारी जमीनें हड़प रहे हैं, पूरे समाज में गुंडागर्दी बढ़ रही है, ईमानदार अफसरों को गुंडे जिंदा जला रहे हैं, अवैध धंधों से पनपे पैसे ने आम आदमी को सहमा दिया है। बचा-खुचा काम ये खबरी चैनल कर रहे हैं जो आए दिन दुनिया खत्म हो जाने की घोषणाएं करते हैं। खबरें पढ़ने के लिए अखबार खरीदने वाला आदमी 75 प्रतिशत विज्ञापन और 25 प्रतिशत प्रायोजित खबरें पढ़ने के लिए मजबूर है। कोई सच्ची खबर गलती से छप भी गई तो उसका फॉलोअप पढ़ने के लिए तरस जाते हैं। ये कैसा समाज है, ये कैसा देश है? और धीरे-धीरे हम खुद कैसे होते जा रहे हैं? … जवाब पाने के लिए मैं शालू और बच्चों की ओर घूमा तो देखा कि उन लोगों के साथ पड़ोसी डॉ..सहाय भी खड़े हैं। आप थोड़ी देर सो जाएंगे तो आराम मिल जाएगा। मैं अभी तक चकित था। उन्होंने मुझे लिटा कर इंजेक्शन लगाया। कुछ दवाइयां लिख कर शालू को दीं और समझाते हुए कहा- रिलैक्स करने का सबसे अच्छा तरीका तो औरतें जानती हैं… आप समझ रही हैं न… डॉ सहाय के शब्द मुझसे दूर होते गए और मैं सो गया।
सुबह नाश्ते के बाद शालू ने लगभग जबरन मुझे कुछ और गोलियां दीं। वह चाहती थी कि मैं आज दफ्तर न जाऊं। लेकिन दिन भर घर में निठल्ले बैठे रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। इसके लिए तो एक रविवार ही बहुत है। दफ्तर पहुंचने पर मैंने महसूस किया कि मैं अपने रोजमर्रा काम को भी कठिनाई से कर पा रहा हूं। चाह कर भी काम की गति नहीं बन पाई है। मेरी बार-बार की कोशिशों के बावजूद काम करने की बजाय सुस्ताने की इच्छा मुझ पर हावी हो रही थी। इससे निजात पाने के लिए लंच से पहले मैंने क्लब पहुंच कर चाय का ऑर्डर दिया। वहां पड़े अखबार को देख कर याद आया कि मैंने आज तो अखबार ही नहीं पढ़ा। ऐसा तो कभी बरसों में नहीं हुआ।
कवर पेज पर ही फोटो सहित लीड-न्यूज थी- अवैध शराब का जखीरा पकड़ने गए पुलिस दल के अधिकारी को गांव वालों ने पीट-पीट कर मार डाला। पुलिस अपने अधिकारी को मरते हुए देखती रही। मेरे शरीर में गर्म खून की एक लहर दौड़ गई। मेरा मन बार-बार मुझसे ही पूछ रहा था। इन अपराधियों के हौसलों को पस्त करने वाला क्या कोई नहीं?
मैं झटके से उठा। अखबार साथ में लेकर अपनी टेबल पर पहुंचा और उसी गुस्से के साथ कलेक्टर के नाम एक ज्ञापन लिखा- हम आम नागरिक एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी की पुलिस की मौजूदगी में अपराधियों द्वारा की गई हत्या की निंदा करते हैं और सरकार से एक सप्ताह के भीतर दोषियों को पकड़ने की गुहार करते हैं। यदि सप्ताह भर में दोषी नहीं पकड़े गए तो इस शहर के समस्त शांतिप्रिय और न्यायप्रिय नागरिक अनिश्चितकालीन धरना देंगे।
मुझे नहीं मालूम मैंने लंच के समय सभी को इकट्ठा कर क्या कहा। लेकिन अनमने मन से ही सही, सभी ने उस ज्ञापन पर न केवल दस्तख्त किए, बल्कि उसकी फोटो कॉपी भी अपने पास-पड़ोस के लोगों के दस्तख्त करवाने साथ ले गए।
शाम घर पहुंचने तक मैं अपने आपको बहुत स्वस्थ महसूस कर रहा था। मेरा चेहरा देखते हुए शालू बोली-ओह्! आप बिल्कुल ठीक लग रहे हैं। डॉ. सहाय ने बहुत अच्छी दवा दी है। मैंने मुस्कराकर इतना भर कहा-अब डॉ. सहाय नहीं, डॉ शालू की दवा से मैं ठीक रहूंगा। बहरहाल तुम इस कागज पर अपने दस्तखत कर दो। वह हैरान-सी कभी कागज को और कभी मुझे देख रही थी।