कुछ भी कह सकते हो
कुछ भी कह देते हो
कुछ भी कभी भी
सुना देते हो
बिना जाने-समझे
कि कहने-सुनने से ही
नहीं तय होती
आपसी पहचान।
खामोशी भी धीरे-धीरे बोलती है
अपने मंद-मंद धीमे गहरे सुर में।
कहने-सुनने के खेल-धंधे में व्यस्त
हम नहीं देख पाते
कि बहुत कुछ कहा गया
बहुत कुछ सुना गया
फिर भी शेष रह गई
संभावित-अपेक्षित जान-पहचान
ऐसा बहुत कुछ है
जो हमने कहा पर सुना नहीं गया
जो हमने सुना पर कहा नहीं गया
कभी कहने का साहस नहीं था
कभी सुनने का धीरज नहीं था।
दो
मीडिया के मकड़जाल में
खबरों के बहाने
दोषारोपण के कर्कश शोर में
अजीबोगरीब तस्वीरों के मायाजाल में
शुभ-अशुभ, सही-गलत
सत्य-असत्य, तर्क कुतर्क
मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य
भेद-अभेद, आस्था-संदेह
के बीच की सूक्ष्म रेखाएं
लगभग मिट चुकी हैं
अदृश्य-अमूर्त सीमाएं
ध्वस्त हो चुकी हैं
शाम को सत्य
सुबह को असत्य
सुबह का अर्थ
पूरे दिन भर का अनर्थ
शुभ-अशुभ के भीतर
सत्य-असत्य के बाहर
तर्क-कुतर्क से परे
आस्था-संदेह के ऊपर
दृश्य-अदृश्य के बीच
यदि कुछ शेष है
तो वह है
पूंजी का निर्बाध प्रसार
क्या संभव होगा फिर से जीवन
बिना असत्य को सत्य की चाशनी लगाए
बिना अर्थ का अनर्थ किए?