कोई गा रहा है।
कौन?
पता नहीं।
मगर यहीं कहीं गा रहा है। बिल्कुल पास में। घर के पिछवारे की गली में। उसके गाने में इतनी गहरी वेदना है, इतनी बेधक विकलता है, इतनी विलुलित विह्वलता है कि गान मन में समाता जा रहा है। जो मन में समा गया है, वह किंचित भी दूर कहां है। तनिक भी विलग कहां है, अपने से।
मुझे लगता है, कोई मुझमें ही गा रहा है। मन बेचैनी से, विकलता से, अवसाद से, अवसन्न-सा हुआ जा रहा है।
‘हर आदमी के पास हीरा है, क्या?’
हां… हां…. हां। हर आदमी के पास हीरा है। बेशकीमती हीरा। अनमोल हीरा। चमकता हीरा। दमकता हीरा।
समूची मनुष्य जाति के पास हीरा है। मगर उसे पता नहीं है कि उसके पास हीरा है। हीरा से अपरिचित, अनजान रह कर उसने कंकड, पत्थर, कूड़े-कचरे को हीरा समझ रखा है। उसने अपने इर्द-गिर्द उसी का अंबार लगा रखा है।
किसी-किसी को कभी-कभी, किन्ही दुर्लभ क्षणों में यह अनुभव हो लेता है कि उसके पास हीरा है। जिसे अनुभव हो लेता है, वह विकल हो उठता है। जिसे अपना दुर्भाग्य दिखाई पड़ जाता है, वह विकल हो उठता है। जिसका अपना दुर्भाग्य मनुष्य जाति के दुर्भाग्य से विलग नहीं रह जाता, उसकी विकलता ही गान बन पाती है। विकलता का गान बन पाना दुर्लभ घटना है। मनुष्य की लघुता का मनुष्य जाति की विराटता में विलीन हो जाना ही वेदना का गान बन जाना होता है।
कबीर का बोध विराट का बोध है। उनकी विकलता विराट के बोध से उत्पे्ररित विकलता है। इसीलिए कबीर की वाणी में व्याप्ति है। इसीलिए कबीर की वाणी में बेधकता है। कबीर को पता है कि हमारे पास हीरा है। मगर हीरा हेराय गया है। कचरे में हेराय गया है। जिसे पता हो जाएगा कि उसकी सबसे कीमती थाती खो गई है, वह चुप कैसे बैठ सकता है। वह चैन की सांस कैसे ले सकेगा। नहीं, यह संभव नहीं है। हमेशा से हमेशा के लिए मनुष्य की सबसे कीमती चीज पारस्परिकता है। पारस्परिकता जितना बड़ा सामाजिक मूल्य है, उससे अधिक वह आत्मिक मूल्य है। पारस्परिकता मनुष्य की लघुता को विराटता की ओर ले जाने वाला मूल्य है। उसकी खंडित अस्मिता को अखंड अस्तित्व में ले जाने वाला मूल्य है। पारस्परिकता अद्वैत के बोध को उत्प्रेरित करने वाला मूल्य है। एकात्म का बोध ही पारस्परिकता के प्रसार का आधार है। एकात्म का बोध ही एक-दूसरे से जुड़ने की उत्प्रेरणा देता है। परस्पर के जुड़ाव और लगाव के कारण ही मनुष्य में सुख-दुख की अनुभूति की व्यापकता विराटता को प्राप्त होती है। एकात्मकता का प्रसार ही असीम विराट के बोध का प्रतिष्ठापक है। समूचे अस्तित्व में एकात्म बोध ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। मनुष्यता का शृंगार है। यही मनुष्य जाति का हीरा है। कबीर को यह हीरा अभिज्ञात है। जिस व्यक्ति का वजूद अपने समय में और अपने समय के बाद भी जितने अधिक लोगों में एकात्म बोध में समाहित होता है, वह व्यक्ति उतना ही विराट होता है। मनुष्य की विराट गरिमा का इससे इतर दूसरा कोई मापदंड नहीं है। मगर जो बड़ा होता है, वह बड़प्पन की लालसा के कारण नहीं होता, अपने स्वभाव के कारण होता है। सब में अपने को अनुभव कर सकने का स्वभाव ही मनुष्य जीवन में उसकी सबसे बहुमूल्य निधि है।
मनुष्य की आंतरिक चेतना में जो अवबोध घटित होता है, वह हीरा है। वह जीवन में, जीवन का सबसे कीमती रत्न है। वह सबके पास है। सबमें है। मगर उधर हमारा खयाल नहीं है। हमारा सारा ध्यान अपने से बाहर है। जो बाहर है, वह हमारी आंतरिकता से भरा नहीं है। अपनी आंतरिकता से भरे न होने के कारण ही, अपनी आंतरिक सचाई से संयुक्त न होने के कारण ही वह कचरा है। कूड़ा है। रद्दी है। व्यर्थ है। हमने अपने मन में, अपने घर में, अपने पड़ोस में अनवधानता वश कूड़े का ढेर लगा रखा है। इस कूड़े में हमारा हीरा हेरा गया है। खो गया है। बड़ा पीड़ाजनक है। हमारे जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। ऐसा नहीं कि जो आंतरिक है, वही मूल्यवान है। ऐसा भी नहीं कि जो बाहर है, व्यर्थ है, हेय है। नहीं, यह सच नहीं है। हमारे जीवन के लिए सबसे कीमती चीज है, अंत: और बाह्य की एकात्मकता। जो भीतर है, वही बाहर भी दिखे और जो बाहर दिखे, वह भीतर भी हो, यही धर्म है। यही सत्य है। यही जीवन का सौंदर्य है। इससे अलग धर्म नहीं है, धर्म का धोखा है। धर्म का व्यापार है। जीवन की वंचना है। कबीर की कविता में सबसे बड़ा दुख, जीवन की वंचना का दुख है। सबसे बड़ी वंचना आत्मवंचना है। हम खुद ही अपने को ठग रहे हैं। मगर हमें पता नहीं है कि हम ठग रहें हैं। आत्मवंचना का पता चल जाना ही हीरे का अभिज्ञान है। झूठ का पता चलते ही सच का पता लग जाता है। मगर हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हम जब भी खोज शुरू करते हैं, सच की करते हैं। झूठ एकदम हमारी आंख के सामने है। हमारी सांसों से सटा है। उसे हम देखने को आंख नहीं उठाते। उसे छूने को हम हाथ नहीं बढ़ाते। हम पांव उठाते हैं, सच को पाने के लिए और हम सच से थोड़ी और दूर हो जाते हैं। सच हमारे ही अंदर में अवस्थित है।
‘मेरा’ और ‘तेरा’ धूल-गर्द है। इस धूल-गर्द में हीरा दब गया है। ढंक गया है। है, मगर पता नहीं है कि वह है। कहां है? नहीं मालूम पांच और पच्चीस का जो पचड़ा है, उसमें हीरा खो गया है। ख्याति की, लोकेषणा की जो अंधी बुभुक्षा है, वह हीरे को निगल रही है। सचमुच बड़ी दिक्कत है। हमने इतनी बड़ी दुनिया को बांट लिया है। बांट कर अपने हिस्से में बेहद छोटा कर लिया है। हमारे लिए यह दुनिया केवल अपनी दुनिया होकर रह गई है। केवल अपने भोग के लिए रह गई है। इतनी छोटी दुनिया का आदमी कितना छोटा आदमी है। हमारे समय का मनुष्य कितना लघु मानव होकर रह गया है। नहीं, नहीं यह लघु मानव कबीर की विराट चिंता को नहीं सुन सकता। नहीं समझ सकता। उसे हीरा की नहीं, कूड़ा की चिंता है। वह तो कूड़ा बटोरने में बेतरह परेशान है। पता नहीं कैसे, पता नहीं क्यों हमारे लोकतंत्र की मूल पूंजी पाखंड की पूंजी बन कर रह गई है। हमारे पास, हमारे लोकतंत्र के पास मौजूदा समय में केवल पाखंड एक ऐसी पूंजी है, जिससे लोभ और लाभ की भ्रांति को भड़काया जा सकता है। लोभ और लाभ जनता के संकटग्रस्त जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। भावनात्मक धरातल पर उसे जीवित बनाए रखना ही हमारे लोकतंत्र का लक्ष्य रह गया है। उसके संरक्षक और संचालक वही कह रहे हैं, वही कहते जा रहे हैं, जिससे जनता में लोभ बना रहे। हीरा खो गया है, ठीक है। हीरा खोजने की बात होती रहे। हीरा मिले न मिले, कोई बात नहीं। हम कचरे और पचड़े को उलटते-पुलटते रहें। यही हमारे लिए ठीक है। सुविधाजनक है। श्रेयस्कर है। कबीर के बारे में कबीर जानें। हमें कबीर की नहीं, अपनी चिंता करनी है।