महिला दिवस पर हम महिला सुरक्षा, समानता, जागरूकता और सशक्तीकरण की जोर-शोर से चर्चा करते हैं और समारोह का आयोजन कर उन्हें सम्मानित करते हैं। देश और दुनिया को बताते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में हमने महिला प्रगति और विकास का डंका बजाया है। लेकिन समझनेवाली बात यह है कि मुट्ठी भर महिलाओं के आगे बढ़ने से संपूर्ण महिला समाज का उत्थान नहीं होगा।
हर साल 26 अगस्त को महिला समानता दिवस मनाया जाता है लेकिन महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार आज भी जारी है। हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी और प्रतिशत कम है। साक्षरता दर में महिलाएं आज भी पुरुषों से पीछे हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार महिलाओं की साक्षरता दर में 12 प्रतिशत की वृद्धि जरूर हुई है लेकिन केरल में जहां महिला साक्षरता दर 92 प्रतिशत है, वहीं बिहार में महिला साक्षरता दर अभी भी 53.3 प्रतिशत है।
भारत में आजादी के बाद से ही महिलाओं को वोट देने का अधिकार तो था, लेकिन पंचायतों और नगर निकायों में आरक्षण 73वे संविधान संशोधन के माध्यम से मिला। इसी का परिणाम है की आज भारत की पंचायतों में महिलाओं की 50 प्रतिशत से अधिक भागीदारी है। भारत ने महिलाओं को आजादी के बाद से ही मतदान का अधिकार पुरुषों के बराबर दिया, लेकिन वास्तविक समानता की बात करें तो भारत में आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है। आए दिन समाचार पत्रों में लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी खबरों को देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं को दोयम दर्जे के बर्ताव से जूझना पड़ रहा है। यूनीसेफ की रिपोर्ट यह बाताती है कि महिलाएं नागरिक प्रशासन में भागीदारी निभाने में सक्षम हैं। यही नहीं, महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बगैर किसी भी क्षेत्र में काम ठीक से और पूर्णता के साथ संपादित नहीं हो सकता।
महिला दिवस पर हम महिला सुरक्षा, समानता, जागरूकता और सशक्तीकरण की जोर-शोर से चर्चा करते हैं और समारोह का आयोजन कर उन्हें सम्मानित करते हैं। देश और दुनिया को बताते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में हमने महिला प्रगति और विकास का डंका बजाया है। लेकिन समझनेवाली बात यह है कि मुट्ठी भर महिलाओं के आगे बढ़ने से संपूर्ण महिला समाज का उत्थान नहीं होगा। महिला समानता और सुरक्षा आज सबसे अहम मुद्दा है, जिसे किसी भी हालत में नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह है कि एक छोटे से गांव से देश की राजधानी तक महिला सुरक्षित नहीं है। अंधेरा होते-होते महिला प्रगति और विकास की बातें छू-मंतर हो जाती हैं। रात में विचरण करना बेहद डरावना लगता है। कामकाजी महिलाओं को सुरक्षित घर पहुंचने की चिंता सताने लगती है। ऐसे में जरूरी है कि हम नारी समानता और सुरक्षा की बात पर गहराई से मंथन करें।
एक सदी पहली तक हमारा देश अनेक रूढ़ियों से ग्रसित था। बेटी को कोख में मारने, सती प्रथा जैसी कुप्रथा समाज में प्रचलित थी। नारी को पढ़ाना तक पाप समझा जाता था। नारी घूंघट में रहे, ऐसी सोच हावी थी।अंग्रेजों के आने के बाद हालांकि नारी स्वतंत्रता और समानता की बातें कुछ शरू तो हुई थीं। धीरे-धीरे समाज और वातावरण में आए बदलाव ने महिला स्वतंत्रता को समझा और उनके अधिकारों और कर्तव्यों की बातें होने लगी। नारी को चूल्हे-चौकी से बाहर लाने की वकालत शुरू हुई। इस दौरान शिक्षा के विस्तार ने क्रांतिकारी बदलाव का मार्ग अख्तियार किया और शिक्षा रूपी ज्ञान की रोशनी से फैली।
महिलाओं ने पढ़-लिखकर अपना और अपने परिवार का नाम रोशन किया। सरोजनी नायडू, विजय लक्ष्मी पंडित, सुचेता कृपलानी और इन्दिरा गांधी के नाम हमारे सामने हैं जिन्होंने देश का नेतृत्व किया और नारी की अहमियत को घर-घर पहुंचा कर यह सिद्ध किया कि अवसर मिले तो महिला किसी भी भांति पुरूष से कमतर नहीं है। अगर हम चाहते हैं कि हमारा परिवार, समाज और देश प्रगति और विकास की दिशा में अनवरत आगे बढ़े तो हमें लड़के और लड़की का भेद मिटाना होगा। संतुलित समाज के लिए पुरूष और महिला की समानता आवश्यक है। देश और समाज में बेटी-बेटे का भेदभाव समाप्त करने की यह शुरुआत हमें अपने घर से करनी होगी। बेटे-बेटी की समानता का संदेश जन जागरण के साथ घर-घर पहुंचाना होगा। इसी में हमारी, समाज की और देश की भलाई निहित है। ०