लोक-परंपरा में अनेक ऐसी रचनाएं हैं, जिन्होंने न सिर्फ लोगों का मनोरंजन किया, बल्कि बड़े सामाजिक बदलाव का उपकरण साबित हुर्इं, एक नई लोक-शैली का प्रस्थान-बिंदु बनीं। भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का नाटक ‘बिदेसिया’ भी ऐसी ही रचना है। अब तक बिदेसिया की जितनी नाट्य प्रस्तुतियां हुई होंगी और लोक गायन मंडलियों के कंठ से जितनी बार इसके गीत फूटे होंगे, उतना शायद ही किसी रचना को सम्मान मिला होगा। इस साल बिदेसिया नाटक के सौ साल पूरे हुए। बिदेसिया की कथा-वस्तु, इसकी लोकप्रियता और इस शैली का विश्लेषण कर रहे हैं सदानंद शाही।
सन दो हजार सत्रह कई महान घटनाओं का शताब्दी वर्ष है। दुनिया के पैमाने पर अक्तूबर क्रांति और देश के पैमाने पर चंपारण क्रांति की शताब्दी के साथ यह भोजपुरी भाषा की अनूठी रचना ‘बिदेसिया’ का शताब्दी वर्ष भी है। बिदेसिया के रचनाकार भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर, 1887 को छपरा जिले के कुतुबपुर गांव में एक नाई परिवार में हुआ था। औपचारिक पढ़ाई में मन नहीं रमा। पारिवारिक पेशे में आए। फिर नगद पैसा कमाने खड़गपुर (बंगाल) चले गए। वहीं रहते हुए रामलीला से जुड़े और बंगाल के कुछ हिस्सों में घूमते रहे। लौट कर गांव आए। कई नाटक मंडलियों से जुड़े और फिर अपनी मंडली बनाई। तीस साल की आयु में 1917 में ‘बिदेसिया’ की रचना की, जिसे वे खुद ‘बिदेसिया का नाच’ कहते थे। इस महान कृति के सौ साल पूरे हो गए हैं।
आजकल रचनाओं की कितनी प्रतियां बिकीं और कितने संस्करण छपे, इस जोड़-घटाने के आधार पर उन्हें ‘बेस्ट सेलर’ के खिताब से नवाजा जा रहा है। इस पैमाने पर देखेंगे तो एकदम से अलग दृश्य सामने होगा। बिदेसिया का प्रकाशन लिखे जाने के तेईस वर्ष बाद दूधनाथ पुस्तकालय ऐंड प्रेस, सलकिया, हावड़ा से 1940 में हुआ, जब यह कृति ‘लीजेंड’ का दर्जा हासिल कर चुकी थी।
बिदेसिया नाटक है। नाट्य कृतियों के महत्त्व का पता उसकी प्रस्तुतियों की संख्या से होता है। बिदेसिया की कितनी प्रस्तुतियां हुई होंगी, यह जानने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है। यह संख्या हजार में है, दस हजार में है या कि लाख में। सच पूछिए तो बिदेसिया के महत्त्व का आकलन इन तरीकों से नहीं हो सकता। ऐसी कृति जो लोक मन में बैठी हुई है, लोक चित्त में समाई हुई है, उसके महत्त्व का अंदाज लगाने के दूसरे पैमाने होंगे। बिदेसिया केवल एक कृति नहीं है, एक रचना नहीं है, बल्कि लोकनाट्य शैली है, लोकधुन है। दरअसल भिखारी ठाकुर बिदेसिया के रूप में भोजपुरी भाषा और भोजपुरी संस्कृति का अर्क निकाल कर रख देते हैं। भिखारी ठाकुर के युवा अध्येता जितेंद्र यादव ठीक ही कहते हैं कि ‘गोड़ऊ नाच, अहिरऊ, कहरऊ, धोबियऊ, आल्हा, लोरिकायन, जतसारी, पूर्वी बारहमासा, पचरा, सोरठी, झूमर, विवाह का गीत, नेटुआ नाच आदि सभी लोकगीतों को ‘बिदेसिया’ में भिखारी ठाकुर ने समाहित किया है।’ बिदेसिया की पहुंच और प्रसार का अंदाजा लगाने का कोई उपाय हो और उसकी कथा लिखी जा सके तो हम पाएंगे कि छोटे से हनुमाजजी हैं और मीलों लंबी पूंछ है। केदारनाथ सिंह की कविता हमें बताती है कि ‘भिखारी ठाकुर की आवाज (से) ताल के जल की तरह हिलने लगती थीं बोली की सारी सोई हुई क्रियाएं।’ सोई हुई क्रियाओं को जगा देने वाले बिदेसिया की लय स्वाधीनता संघर्ष के लिए उठने वाली पुकार की लय से टकराती है। बिदेसिया की लय किस तरह स्वाधीनता संघर्ष की लय से मिल जाती है, इसे इतिहासकार भले न देख पाए हों, एक रचनाकार इसे देख लेता है।
अभी हमने गांधी के चंपारण पंहुचने के सौ साल को याद किया। चंपारण पंहुच कर गांधी ने भोजपुरी अंचल की जनता को सोते से जगा दिया और उसे नए तरह से क्रियाशील बनाया। इधर भिखारी ठाकुर भोजपुरी की सोई हुई क्रियाओं को जगा रहे थे। बोली की क्रियाएं और उसे बोलने वाले साथ-साथ जागते हैं और साथ-साथ स्वाधीनता के लिए हो रहे संघर्ष में शामिल हो जाते हैं। स्वाधीनता आंदोलन से बिदेसिया की लय का यह रिश्ता केदारनाथ सिंह की कविता देख पाती है- ‘शायद यह भी कि रात के तीसरे पहर/ जब किसी झुरमुट में/ ठनकता था गेहुंअन/ तो नाच के किसी अंधेरे कोने से/ धीरे-धीरे उठती थी/ एक लंबी और अकेली/ भिखारी ठाकुर की आवाज/और ताल के जल की तरह/ हिलने लगती थीं/ बोली की सारी/ सोई हुई क्रियाएं/ और अब यह बहस तो चलती ही रहेगी/ कि नाच का आजादी से/ रिश्ता क्या है/ और अपने राष्ट्रगान की लय में/ वह ऐसा क्या है/ जहां रात-बिरात जाकर टकराती है/ बिदेसिया की लय।’
आज बिदेसिया के सौ साल पूरा होने पर हमें देखना चाहिए कि बिदेसिया की लय में कैसे आजादी और राष्ट्रगान की लय मिलती है।
बोली की क्रियाओं की सक्रिय करने के लिए भिखारी ठाकुर अपने गांव कुतुबपुर से बोलते हैं। आखिरी दिनों में भिखारी ठाकुर सारी प्रसिद्धि को किनारे रख कर अपने गांव चले आए थे। वे गांव में साधारण किसान की तरह रहने लगे थे। गांवों को बेहाल कर के देश का विकास नहीं हो सकता, यह गांधी भी कह रहे थे और भिखारी ठाकुर भी। ‘कहत भिखारी भिखार होई गइलीं दौलत बहुत कमा के’- दौलत मात्र को विकास का प्रतीक मानने वाली सोच की धारणा को बिदेसिया में भिखारी ठाकुर खारिज करते हैं- बिल्कुल गांधी की तरह। जिन दिनों गांधी सेवाग्राम में थे, उन्हें सुनने तत्कालीन वाइसराय लार्ड लिनथिनगो (सेवाग्राम) चले आए थे। गांधी के अपने ही चेले भले उन्हें नहीं सुन पा रहे थे, वाइसराय ने सुना था। हमने न गांधी को सुना न भिखारी ठाकुर को। दौलत कमाते रहे और भिखारी हो गए। भिखारी ठाकुर की रचनाओं में और जीवन में कुतुबपुर को लेकर, अपने गांव को लेकर जो बातें की गई हैं, वे विकास की चालू अवधारणा पर पुनर्विचार की मांग करती हैं और सभ्यता के बड़े प्रश्नों को सामने लाने वाली हैं।
‘बिदेसिया’ की छोटी-सी कथा है। बिदेसी गवना करा कर प्यारी सुंदरी को घर लाता है और आनन-फानन में कलकत्ता जाने की ठान लेता है। प्यारी सुंदरी के मना करने पर भी वह चुपके से कलकत्ता चला जाता है- कमाने। वहां जाकर बिदेसी दूसरी औरत के प्रेम में पड़ जाता है। नाटक में भिखारी ठाकुर ने उसे रंडी कहा है। वह अब रखैल बन जाती है। रखैल से बिदेसी के दो बच्चे हैं। इन्हीं सबके मोहपाश में बंधा बिदेसी भूल जाता है कि उसका घर भी है, जहां वह प्यारी सुंदरी को छोड़ आया है। उधर, प्यारी सुंदरी विरह से कातर हो रही है। एक दिन उसे बटोही मिलता है, जो कलकत्ता जा रहा है। बटोही को रोक कर प्यारी सुंदरी अपना दुखड़ा सुनाती है और कहती है कि मेरे पति को खोज कर उससे मेरी दशा का बयान करिए और समझा-बुझा कर घर भेजिए। बटोही कलकत्ते में बिदेसी को खोज निकालता है और उसे समझा-बुझा कर वापस घर भेजता है। पीछे-पीछे रखैल भी जाती है। रास्ते में बिदेसी और रखैल दोनों को ही डाकू लूट लेते हैं। जिस पैसे के लिए बिदेसी कलकत्ते आया था, वह पैसा कलकत्ते में ही रह जाता है। प्यारी सुंदरी को पैसा नहीं चाहिए। वह बिदेसी को पाकर खुश है। इस खुशी में रखैल और बच्चों को भी स्वीकार कर लेती है। सब साथ रहने लगते हैं। एक सुखांत-सी लघु कथा है। बिल्कुल प्यारी सुंदरी की तरह। समाजी प्यारी सुंदरी की दशा का वर्णन इस तरह करता है-
‘तेहि अवसर बटोही एक आए। तासो प्यारी दुख सुनाए।
पति गुन कहि रोवन लागी। सुनि बटोही के धीरज भागी।’
इस तरह की विरह संदेश कथाओं की लंबी परंपरा हमारे देश में मिलती है। भिखारी ठाकुर को भी यह कथा लोक परंपरा से ही मिली है। मजे की बात यह है कि भिखारी ठाकुर लोक परंपरा से प्राप्त विरह संदेश कथा को अपनी विशिष्ट छाप से पुन: संस्कारित करके जीवंत बनाते हैं। कोई बड़ी घटना नहीं घटती। न राम वनवास है, न सीता का हरण होता है, न लंका का पता लगाया जाता है। न ही रावण का बध होता है और न ही सीता की अग्निपरीक्षा होती है। यानी, कहानी में कुछ भी असाधाण नहीं घटता।
बिदेसिया की कथा बताते-बताते राम कथा की ओर आना यों ही नहीं हुआ है। बिदेसिया नाटक रामकथा (लीला) से प्रेरित भी है और उससे होड़ भी लेता है। खास तौर से तुलसीदास के रामचरितमानस से। भिखारी ठाकुर ने कई बार कहा है कि रामायण की चौपाई के ढंग पर कविता बनाता हूं। बिदेसिया के मंगलाचरण में ही नहीं, बीच में भी तुलसी बाबा की पंक्तियां आती हैं। वे कदम-कदम पर तुलसीदास को याद करते हैं।
मंगलाचरण के ठीक बाद तुलसी बाबा की चौपाई- ‘मंगल भवन अमंगल हारी/ द्रवहु सो दसरथ अजिर बिहारी’ से नाटक शुरू होता है- और थोड़ी ही देर में भिखारी ठाकुर तुलसीदास को प्रणाम करते हुए अपनी चौपाई पर उतर आते हैं-
नाच तमासा कीर्तन जेते। होखत बा सब जग मंह तेते।।
नावत बानी सब कर माथा। चित देइ सुनहु बिदेसिया काथा।।
एह किताब के सब बिस्तारी। थोरही में सब कहत भिखारी।।
ध्यान से देखिए तो यह तुलसीदास की ही शैली है। तुलसीदास भी अपने पूर्व पुरुषों को याद करते हैं, उन्हें सम्मान देते हैं और धीरे से अपना रास्ता अलग कर लेते हैं। बिदेसिया में भिखारी ठाकुर भी ऐसा ही करते हैं। विविध प्रकार के नाच, तमाशे, कीर्तन सब हो रहे हैं। भिखारी सबके आगे नतमस्तक हैं- ‘नावत बानी सब कर माथा’। बड़ी व्यंजक अर्धाली है यह। सब कुछ जो पहले हो चुका है या पहले से होता रहा है उसे आदर भी देते हैं, पर साथ ही उसे प्रणाम भी कर लेते हैं। इस माथा नवाने में आदर के साथ विदाई भी है। इस विदाई के बाद भिखारी बिना समय गंवाए अपनी कथा पर आ जाते हैं- ‘चित देइ सुनहु बिदेसिया काथा।’
‘बिदेसिया काथा’ शुरू करने के पहले भिखारी पहले से हो रहे नाच, तमाशे और कीर्तन को विदा करते हैं। बिदेसिया की लोकव्याप्ति जिस भोजपुरी प्रदेश में है, वहां जो नाच तमाशे प्रचलित थे, उनमें रामलीला भी है। रामकथा की लोक व्याप्ति बेजोड़ है। राम कथा के असंख्य लिखित पाठ मौजूद हैं। कहते हैं रामकथा पर आधारित रामलीला की शुरुआत तुलसीदास ने बनारस में ही की थी। देखते-देखते रामलीला की परंपरा गांव-गांव फैल गई। नाटक की ओर भिखारी का भी ध्यान खड़गपुर में रामलीला देख कर ही गया। खड़गपुर से लौटे तो पहले रामलीला करनी शुरू की। कुछ आगे चल कर भिखारी रामलीला को प्रणाम कर दे रहे हैं और ‘बिदेसिया काथा’ प्रस्तावित कर रहे हैं। रामलीला के बरक्स लोकलीला। नाटक के आरंभ में ही इसे एक रूपक के रूप में देखने का प्रस्ताव किया गया है।
‘एह तमासा में चार आदमी के पाट बा- बिदेसी एक, प्यारी सुंदरी दू, बटोही तीन, रखेलिन चार।
अथवा
बिदेसी ब्रह्म, बटोही धरम, रखेलिन माया, प्यारी सुंदरी जीवन।’
इसके तत्काल बाद भिखारी कहते हैं-
‘अथवा बिदेसी रामचंद्रजी। भरतजी महाराज बटोही बनि के रामचंद्र जी के बन से फेरे गइले हा। उ बिदेसी त दोसर जनाना राखि लेलन तेहसे ना लवटलन, बाकी रामचन्द्र जी काहें ना लवटलन?’
यहीं पर भिखारी ठाकुर रामकथा पर अपने ढंग से प्रश्नवाचक लगाते हैं। यह लोक कलाकार हमें मुश्किल में डाल देता है। हम नाटक को किस तरह देखें- शुद्ध लौकिक रूप में- बिदेसी, प्यारी, सुंदरी बटोही और रखेलिन की कथा के रूप में, या कि जैसा भिखारी ठाकुर सुझाते हैं- ब्रह्म, माया, धरम और जीव के दार्शनिक आध्यात्मिक फ्रेमवर्क में। क्या इसे आत्मा, परमात्मा, माया और धर्म के रूपक कथा के रूप में देखें। लेकिन भिखारी ठाकुर के तीसरे प्रस्ताव का क्या करें, जहां वे बिदेसी को रामचंद्र कह रहे हैं। शुरू में ही यह गड़बड़झाला रच देते हैं। दर्शक या पाठक को कथा के इतने आयाम सुझा कर भिखारी ठाकुर क्या करना चाहते हैं? क्या यह नाटक के लिए उत्सुकता पैदा करने का कौशल भर है या उससे कुछ अधिक।
यहीं पर थोड़ा यह विचार करें कि तुलसी के और राम के भक्त भिखारी ने रामलीला को क्यों नमस्कार किया और क्यों बिदेसिया की ओर मुड़े। रामलीला का जो फ्रेमवर्क है उसमें बहुत परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है। भिखारी के समय समाज में जो परिवर्तन घटित हो रहा है, जो मूल्यगत टकराव उपस्थित हो रहे हैं, ऐसा लगता है कि उन्हें व्यक्त करने की गुंजाइश रामलीला के बंधे-बंधाए कथानक में संभव नहीं रह गया है।
इसलिए भिखारी बिदेसिया कथा की ओर मुड़े। अब इस बिदेसिया कथा को व्यापक अर्थ देने के लिए वे रूपक प्रस्तावित कर रहे हैं। वह भी एक नहीं दो-दो। एक सच्चाई रोजमर्रा के जीवन में प्रकट होती है, तो एक सच्चाई दार्शनिक स्तर पर होती है। एक तीसरी सच्चाई, जो मूल्यगत स्तर पर प्रकट होती है। इस रूपक संकेत से भिखारी कथा को तीनों स्तरों पर ले आते हैं। आगे समाजी कहता है-
‘बाल्मीकि महाभारत गीता, करहु कृपा जग जननी सीता।
एह नाटक के बिचऊ बाना, गावत बानी बिदेसिया गाना।’
एह नाटक के बिचऊ बाना- बहुत महत्त्वपूर्ण कथन है। यानी प्रकट यथार्थ, दार्शनिक और मूल्यगत संसार-तीनों के बीच एक संतुलन स्थापित करने की कोशिश। इसीलिए मुझे लगता है कि बिदेसिया की कथा रामकथा से होड़ लेती है। जब प्यारी सुंदरी और बिदेसी में कलकता जाने के सवाल पर बहस हो रही थी, प्यारी सुंदरी कहती है-
‘त्राहि-त्राहि अबला कर स्वामी! मत करहू परिसान।
सीता राम गइलन कानन संग, जानत सकल जहान।’
सीता और राम साथ-साथ जंगल गए थे। इस पर बिदेसी तुरंत जवाब देता है-
‘संघत के फल तुरते मिलल हरन भइल प्रियनारि।
आजु तलक ले सुनिलऽ प्यारी, गावत वेदपुरान।’
रामकथा की नैतिक व्यवस्था के सामने बिदेसी एक प्रतिप्रश्न रख देता है। रामकथा जिन सामाजिक-नैतिक मूल्यों को स्थापित करती है- आदर्श रचती है- जीवन की धारा उससे अलग और भिन्न है। बिदेसिया जीवन को उसकी तथता में स्वीकार करता है। नाटक के अंत में बिदेसी, प्यारी सुंदरी और रखेलिन एक साथ रहने लगते हैं। साथ रहने के लिए कहीं किसी को समझाने की जरूरत नहीं पड़ती। बिदेसी कहता है- ड्योढ़ी में सौत खड़ी है। रखेलिन अपने बेटे से कहती है- मां है, प्रणाम करो। और एक संगति बैठ जाती है।
रामकथा में जहां सीता जैसी आदर्श स्त्री को निर्वासन मिलता है, बिदेसिया में रंडी भी घर में स्थापित हो जाती है। माया का मायात्व खत्म हो जाता है। जीव, ब्रह्म और माया एक हो जाते हैं। बिदेसिया की बहुस्तरीयता का यह भी एक आयाम है।
राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का अनगढ़ हीरा कहा था। लेकिन सच पूछिए तो भिखारी ठाकुर हीरा गढ़ने वाले हैं। भोजपुरी रूपी हीरे की खान से वे अनगढ़ हीरे निकालते हैं और उसे तराश कर हमारे सामने रख देते हैं। भोजपुरी अंचल से जाने कब से नगद रुपया कमाने के लिए पुरुष कोलकाता से लेकर सात समंदर पार तक का सफर करते रहे हैं। पीछे छूट गई स्त्री की अनेक विधि व्यथाओं का समंदर समूचे अंचल में लहराता रहता है।
भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया में पूरब की स्त्री की अपार व्यथा को वाणी दी है। ध्यान से देखें तो भिखारी के अन्य नाटक बिरहा बहार, बेटी वियोग, गबर घिचोर आदि बिदेसिया के सीक्वेल लगते हैं और पूरब के स्त्रियों के जीवन का महाख्यान रचते हैं। इस रूप में देखें तो भिखारी ठाकुर श्रम के लिए होने वाले प्रवासन की पीड़ा के महान गायक हैं।
बिदेसिया का एक और आयाम है। भिखारी ठाकुर ही गांव नहीं लौटते, बिदेसिया भी लौट आता है। धन कमाने की जिस लालसा से वह गया था, धन तो नहीं मिलता, लेकिन धन की लालसा मिट जाती है।
‘कहत भिखारी भिखार होई गइलीं दौलत बहुत कमा के।’
हमारी बेहतर भौतिक स्थिति के लिए दौलत बहुत जरूरी है। लेकिन दौलत की बहुलता हमें भिखारी बनाए दे रही है। हमारे मानवीय सद्गुणों- दया, ममता, करुणा, परोपकार, भाईचारा आदि धन लोभ में बिला जा रहे हैं। जीवन में कला साहित्य संगीत के लिए अवकाश नहीं रह जा रहा है। हम दौलत कमाने की मशीन बनते जा रहे हैं। याद कीजिए लगभग उसी के आसपास प्रेमचंद महाजनी सभ्यता की आलोचना कर रहे थे। धन की संस्कृति की आलोचना कर रहे थे। निर्मम बना देने वाली सफलता की आलोचना कर रहे थे। ऐसी सफलता, जिसने आगे चल कर सभ्यता विमर्श में भारतीय गांवों को कहीं पीछे छोड़ दिया। बिदेसिया के सौ वर्ष की यात्रा को इस निर्मम सभ्यता विमर्श के प्रति पाठ के रूप में पढ़ा और देखा जाना चाहिए। ०