भारतीय संविधान के अनुसार बुनियादी शिक्षा एक आधारभूत अधिकार है। यह एक समवर्ती विषय भी है, जिस पर भारत की प्रत्येक चुनी हुई सरकार को यथासमय और यथासंभव फैसले करना और उन्हें राष्ट्रहित में क्रियान्वित कराना होता है। क्रियान्वयन एक प्रशासनिक उत्तरदायित्व है। शिक्षा में गुणवत्ता और उसका अधिकाधिक प्रसार इसी प्रशासनिक अमले की सतर्कता, जागरूकता और जिम्मेदारी पर निर्भर करता है। यह देखा गया है कि जहां उच्च प्रशासनिक अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों को प्राथमिकता और प्रतिबद्धता से निभाते हैं, वहां शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता में आमूल-चूल परिवर्तन आते हैं। भारत के कई राज्य और अनेक जिले इसके जीवंत उदाहरण हैं। प्राथमिक शिक्षा पर विचार करते हुए यह जरूरी है कि भारतीय समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप को समझ लिया जाए। भारतीय समाज को देखने के कई दृष्टिकोण हो सकते हैं। एक तो यह कि भारतीय समाज मोटे तौर पर शहरी, कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजित है। शहरी और कस्बाई क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण भारत की दशा अधिक शोचनीय है।
गांधीजी कहते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। भारतीय ग्राम ही वास्तविक सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को कमोबेश अब भी बचाए हुए हैं। आजादी के बाद भारतीय ग्राम-व्यवस्था में धीरे-धीरे बदलाव आया है। आजादी से पहले और बाद के ग्रामीण समाज में उल्लेखनीय अंतर दिखाई देता है। खासकर सन 1990 के बाद यह अंतर राजनीति और समाज दोनों में स्पष्ट दिखाई देता है। शिक्षा के प्रति सामाजिक जागरूकता और लगाव के संकेत भी मिलने लगते हैं। भारतीय गांवों की सामाजिक संरचना जाति आधारित है। अधिकतर समस्याओं की वजह इसी जाति-व्यवस्था की कोख में छिपी है। हैरानी की बात यह कि जाति की इस व्यवस्था ने धर्म के कठोर पठार को भी तोड़ कर उसमें अपनी पैठ बना ली। भारत में आज कोई ऐसा धर्म नहीं है, जिसमें जाति की घुसपैठ या उसका वर्चस्व न हो। जो हिंदू, हिंदू धर्म की जाति-व्यवस्था से दुखी होकर दूसरे धर्मों में जाते हैं, वे वहां भी वही ऊंच-नीच पाते हैं।
आजादी के बाद सभी जातियों में शिक्षा-प्राप्ति के प्रयास दिखाई दिए। सवर्ण जातियों के सदस्य पहले भी शिक्षा से कमोबेश जुड़े हुए थे, पर आजादी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक सवर्ण समुदाय भी शिक्षा के प्रति तत्पर हुए। इससे पहले अधिकतर शिक्षा शहर केंद्रित गतिविधि मानी जाती थी। ग्रामीण समाज अपने परंपरागत काम-धंधों में लगा था। सवर्ण समुदायों की तरह दलित-पिछड़ी जातियों और जनजातियों में भी शिक्षा के महत्त्व को समझा जाने लगा। दलितों और पिछड़ों में शिक्षा के प्रति लालसा का मुख्य कारण दलित आंदोलन और बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों के प्रसार को माना जाता है। इन वर्गों को रोजगार के अलावा सम्मान की आकांक्षा ने भी शिक्षित होने के लिए प्रेरित किया। यही स्थिति स्त्री शिक्षा के मामले में दिखाई देती है। यह भारतीय इतिहास की पहली परिघटना है जब दलितों, पिछड़ों और जनजातीय समुदायों में मध्यवर्ग का उदय हुआ। सवर्ण जातियों में तीनों वर्ग बहुत पहले से रहे हैं, पर इन समुदायों में सिर्फ निम्न वर्ग रहा। किसी भी देश के विकास में उसके मध्यवर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत के संदर्भ में कहा जाए तो यह प्रत्येक जाति समुदाय के लिए जरूरी है कि उसका अपना एक मध्यवर्ग हो। जिस जाति का जितना बड़ा मध्यवर्ग होगा, वह उतनी ही शक्तिशाली और सत्ता संपन्न होगी।
प्राथमिक शिक्षा को शिक्षा का मेरुदंड माना जाता है। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता, प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर टिकी होती है। अगर प्राथमिक स्तर को ही सुदृढ़ और रोचक बना दिया जाए तो बाद की सारी सरकारी कोशिशें जरूर कामयाब हो सकती हैं। पश्चिम के कई देशों में, खासकर विकसित देशों में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है। प्राथमिक स्तर पर ही छात्र-छात्राओं में शिक्षा के प्रति अनन्य अनुराग पैदा कर दिया जाता है। साथ ही उनमें कारीगरी या कौशल के कर्मों के प्रति आदर की भावना विकसित की जाती है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यालय की स्थिति, अध्यापकों का आचरण और छात्र-छात्राओं से बर्ताव, समाज के दूसरे अंग और निकायों का दृष्टिकोण, वास्तव में, शिक्षा-विरोधी कहा जा सकता है। सामान्यतया कहा जाता है कि ग्रामीण जनता गरीबी के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं करती। पर यह अधूरा सत्य है। वास्तव में, यह दूसरी कमियों और गैर-जिम्मेदारियों को छिपाने का एक तरीका भर है। ऐसा नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के कारण विद्यार्थी नहीं आते। अगर ऐसा होता तो केरल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में शिक्षा का स्तर इतना ऊंचा कैसे होता। पूर्वोत्तर के राज्यों में शिक्षा का प्रतिशत क्यों बढ़ रहा है?
भारत में शिक्षा की समस्या बहुत जटिल है। अधिकतर राजनीतिक दल सामान्य जनता तक शिक्षा को पहुंचाने से डरते हैं। इस मामले में दलित और पिछड़े वर्गों के ज्यादातर राजनेताओं की नीयत भी संदिग्ध है। ग्रामीण क्षेत्रों में पहली समस्या यही है कि वहां प्राथमिक विद्यालयों की संख्या बहुत कम है, जिसकी वजह से छोटे बच्चों को दूसरे गांवों के विद्यालयों में जाना पड़ता है। अधिकतर माता-पिता इसलिए भी अपने बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते। खासकर, लड़कियों का प्रतिनिधित्व ऐसे स्थानों पर नगण्य होता है। जो बच्चे इस बाधा को पार कर विद्यालय तक पहुंचते हैं, वहां अध्यापकों की कमी उनके उत्साह को ठंडा कर देती है। उत्तर भारत का असमान मौसम भी प्राथमिक शिक्षा में रुकावट बनता है। यहां जितनी तेज गर्मी पड़ती है उतनी ही तेज सर्दी भी और विद्यालयों में उचित संसाधनों का पर्याप्त अभाव रहता है। कई जगह तो पक्की इमारत ही नहीं है। विद्यालयों की ऐसी हालत शहरों में भी कई जगह देखी जा सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में हालत और बदतर है। खुले में बैठ कर पढ़ना छोटे बच्चों के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। इसके अलावा बड़ी समस्या है शौचालयों की। इन विद्यालयों में या तो शौचालय होंगे ही नहीं, संयोग से होंगे भी तो वे उपयोग लायक नहीं होंगे। ऐसे में बच्चे खुले में जाने के लिए अभिशप्त हैं। बच्चियों के मामले में यह स्थिति और विकट हो जाती है।
प्राथमिक स्तर पर ही स्कूल छोड़ने की एक बड़ी वजह शौचालयों की कमी है। इसके लिए जाति आधारित उत्पीड़न भी उतना ही जिम्मेदार है, शौचालय की समस्या से भी कुछ अधिक। दलित लेखकों की आत्मकथाएं इस तथ्य पर प्रकाश डालती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में पग-पग पर जाने कितने ऐसे गुरु बैठे हैं, जो सिर्फ जाति के कारण कितने ही प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का भविष्य चौपट कर रहे हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, सिद्धा लिंगैया और श्योराजसिह बेचैन की आत्मकथाएं भारत की शिक्षा व्यवस्था के आंतरिक लोमहर्षक दृश्य को समझने के लिए भी किसी दस्तावेज की तरह हैं। अभी ग्रामीण जीवन से जुड़ी स्त्री आत्मकथाओं का इंतजार करना चाहिए, जिनमें ग्रामीण जीवन और शिक्षा-व्यवस्था के और भी बहुत से सच उद्घाटित होने बाकी हैं। प्राथमिक शिक्षा की नींव को सुदृढ़ किए बिना उच्च शिक्षा में गुणवत्ता नहीं लाई जा सकती। ग्रामीण क्षेत्रों से इसकी शुरुआत की जानी चाहिए।