जब संगठन में ही शक्ति है, तब लेखकों का भी संगठन क्यों नहीं होना चाहिए? होना चाहिए, तभी तो 1936 में ह्यप्रगतिशील लेखक संघ बना, जिसके जरिए नई चेतना का जन्म हुआ और साहित्य की रचना और मूल्यांकन के नए प्रतिमान बने। अखिल भारतीय स्तर पर प्रगतिशील आंदोलन ने भारतीय साहित्य के मन-मिजाज को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। आज इस तथ्य से कौन इनकार करेगा कि अपनी कुछ कमियों के बावजूद प्रगतिशील आंदोलन ने बड़ी उपलब्धियां हासिल की और साहित्य, सिनेमा, रंगमंच आदि अभिव्यक्ति-माध्यमों के जरिए जनता में नई दृष्टि और ऊर्जा का संचार किया। लेकिन डेढ़ दशक बीतते-बीतते प्रगतिशील लेखक संघ का सांगठनिक ढांचा चरमराने लगा और इस तरह वह भंग हो गया। कुछ लोगों के अनुसार इसका मुख्य कारण संगठन में बढ़ती संकीर्णता थी, तो कुछ लोगों के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी का बढ़ता हस्तक्षेप। कारण चाहे जो हो, प्रलेस भंग हो गया और दो-ढाई दशक बाद फिर उसे सक्रिय करने की कोशिश हुई, तो जो संगठन सामने आया वह भाकपा का लेखकीय प्रकोष्ठ भर था, जिससे कर्ता-धर्ता पार्टी सदस्य ही थे। यह नया प्रगतिशील लेखक संघ प्रगतिशील साहित्यिक प्रवृत्तियों का वैसा व्यापक मंच नहीं था, जिसकी कल्पना के साथ 1936 में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत हुई थी। यही कारण था कि कुछ ही समय बाद माकपा से जुड़े लेखकों ने ह्यजनवादी लेखक संघह्ण की और माकपा (माले) से जुड़े लेखकों ने ह्यजन संस्कृति मंचह्ण की स्थापना की और अपनी-अपनी पार्टियों की छत्रछाया में साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता की रस्म-अदायगी भर करते रहे। मालूम तो था कि इतिहास अपने आप को दुहराता नहीं है और अगर दुहराता है तो वह या तो प्रहसन होता है या त्रासदी। ऐसी स्थिति में प्रश्न है कि प्रगतिशील आंदोलन को वापस लाने के जो दलगत प्रयास हुए उसे क्या माना जाए?
इसलिए अगर कोई यह सोचे कि इस समय कार्यरत लेखक संगठन, वह प्रलेस हो, जलेस हो या जसम, आज के साहित्यिक माहौल में ह्यनिस्तेजह्ण और ह्यनिष्प्राणह्ण उपस्थिति भर हैं तो गलत नहीं सोचेगा। प्रगतिशीलता और जनवाद की संकीर्ण परिपाटी के साथ समाजवादी-यथार्थवादी सोच और कुछ सांगठनिक आयोजनों-प्रकाशनों के रूप में इनकी जो सक्रियता दीखती है, वह अधिकतर उनकी ह्यनिस्तेजह्ण और ह्यनिष्प्राणह्ण उपस्थिति का ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। कैसी विडंबना है कि प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम घोषणा पत्र में भारत के पुराने साहित्य के लिए ह्यनिस्तेजह्ण और ह्यनिष्प्राणह्ण जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था आज वही शब्द इन संगठनों के लिए उपयुक्त लग रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जो कुछ नया, आंदोलित और परिवर्तनकामी है, उसमें आॅफिशियल मार्क्सवादी पाार्टियों की कोई खास हस्तक्षेपकारी और सार्थक भूमिका नहीं है? यही स्थिति क्या वाम छाते के भीतर सक्रिय लेखक संगठनों की नहीं है? क्या इस समय बुनियादी सरोकारों वाले प्राय: सभी आंदोलन मार्क्सवादी छाते के बाहर नहीं चल रहे हैं? इसी तरह क्या यह भी सच नहीं है कि किसी भी नए रेडिकल साहित्यिक विमर्श को- वह दलित, स्त्री, आदिवासी, साबल्टर्न, जिस नाम से भी जाना जाता है- जारी करने या गति देने में इन लेखक संगठनों की कोई भूमिका नहीं है?
उसकी वजह क्या है? मुझे लगता है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में मार्क्सवाद और उससे अनुप्राणित कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित जो स्वप्न था, वह मानव मुक्ति के निर्विवाद स्वप्न-सा था। उससे प्रेरणा लेकर प्रगतिशील आंदोलन की नींव जब रखी गई तो उसे मुक्ति की व्यापक भावधारा के रूप में उसका स्वागत हुआ।
ह्यदेश हमारा, धरती अपनी, हम भारत के लाल/ नया संसार बसाएंगे, नया बनाएंगे- कवि शील के इस लोकप्रिय जनवादी संकल्प से भरे स्वप्न में मुक्ति की अनिवार्य उपस्थिति जनता ने महसूस की, लेकिन इस तरह के तराने आज वैसी तरंग लोगों के भीतर नहीं पैदा करते। शोषक और शोषित का जो साफ-साफ वर्गगत विभाजन तब था, उससे दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों आदि के मुक्तिकामी सपने टकराने लगे हैं। कोई कह सकता है कि मुक्ति के जिस महास्वप्न ने साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन को पंख दिए थे, मुक्ति का वैसा महास्वप्न विमर्शजनित आंदोलनों में नहीं है। इसलिए यह अकारण नहीं है कम्युनिस्ट पार्टियों के छाते तले सक्रिय लेखक संगठनों से बेखबर दलित, स्त्री और आदिवासी लेखकों के मंच अधिक सक्रिय भूमिका में हैं। अब तो ओबीसी साहित्य के साथ बहुजन साहित्य की भी अवधारणा की चर्चा होने लगी है। जाहिर है ऐसे साहित्य को बल देने के लिए भी लेखक मंचों की दरकार होगी और देर-सबेर उनका गठन भी होगा। प्रगतिशील लेखक संघ जब बना था, तब विश्व स्तर पर फासीवाद का खतरा था। देश के भीतर साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ भारत का स्वतंत्रता आंदोलन जारी था। सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था कायम थी और विश्व स्तर पर चलने वाले मुक्तिकामी संघर्ष को और प्रगतिशील आंदोलनों को उससे बल मिल रहा था। आज स्थितियां दूसरी हैं। सांप्रदायिकता को नए सिरे से उभारने में कुछ शक्तियां सक्रिय हैं। चुनावी राजनीति ने जातिवादी प्रवृत्ति को नए सिरे से उभारने में कोई कोर-कसर न छोड़ी हैं। दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की मुक्ति पुरानी परिपाटी के लेखक संगठनों में अपने लिए अनुकूल जगह नहीं पाती हैं। तब प्रश्न है कि प्रगतिशीलता और अस्मिता मूलक समूहों का एक संघ कैसा होगा?
किसी भी लेखक संगठन का पहला काम अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करना है, फासीवाद और संप्रदायवाद अभिव्यक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधाएं हैं। खुशी की बात है कि अस्मितामूलक जो ग्रुप सक्रिय हैं, वे अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर और सांप्रदायिकता के विरोधी हैं। लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी उनका प्रथम एजेंडा है। आर्थिक विषमता की बढ़ती खाई, उनकी चिंता के दायरे में उस तरह नहीं हैं वे अब अपनी उड़ान के लिए प्रगतिशीलता-जनवाद के आकाश को नाकाफी पाते हैं, तो लेखक संगठनों के स्वरूप पर क्या नए सिरे से विचार करने की जरूरत है? अब लेखक संघों के ऐसे महासंघ की जरूरत है, जिसके आकाश में उन सबकी आकांक्षाओं की उड़ान की पर्याप्त जगह हो।
लेखक संगठन आधुनिक युग की परिघटना है। पहले संतों के संप्रदाय हुआ करते थे। सिद्ध-नाथ निर्गुण-सगुण अनेक संप्रदाय मध्यकाल में दिखाई देते हैं। सबकी उपासना पद्धति में अंतर भी है। लेकिन अंतत: सब इस बात को स्वीकार करते हैं कि सबका मालिक एक है और उसके दरबार में सब बराबर हैं। उपासना-पद्धति की स्वतंत्रता और ईश्वर के दरबार में बराबरी की जगह ये दो बातें सबको जोड़ती थीं। इसी तरह जितने भी लेखक संगठन हों, अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक-आर्थिक समता का भाव अगर उनके एजेंडे का अंतिम लक्ष्य है, तो सबको उड़ने दो- उड़ने के तरीके सबके अपने होंगे। अपनी रचनात्मक उड़ान के लिए लेखक संघ किसी राजनीतिक दल के निर्देश पर न चलें और लेखक संघ लेखक की अनुभूत सच्चाई की अभिव्यक्ति पर पहरे न बिठाएं- आदर्श स्थिति यही हो सकती है।